जाते साल को सलाम... नया साल 2009 आप सबों को एक नए क्षितिज पर ले जाए... शुभकामनाएं....
Wednesday, December 31, 2008
Thursday, November 27, 2008
मुंबई पर हमला
मुंबई पर फिर हमला हुआ है। हम तैयार हैं कब तैनाती हो जाए...
पर कई बातें ज़ेहन में आती हैं। कुछ ही घंटों के अंदर...
सरकार कहेगी, हम निंदा करते हैं... पूरी तरह जांच की जाएगी... दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी... किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।
पुलिस कहेगी... पहली बार समुद्री रास्ते से आए आंतकी। नया मोडस आपरेंडी।
(हालांकि हमारे एनएसए पहले ही इसके बारे में चेता चुके हैं। पर शायद वो चेते नहीं)
विपक्ष कहेगा, ये सरकार की विफलता है। वो हिंदू आतंकवाद का झूठा ख़ौफ दिखा रही है... असल में ख़तरा जेहादी आतंकवाद का है। हम आए तो पलट देंगे तस्वीर... ।
अख़बार टीवीओं पर ख़बर आएगी... पटरी पर लौटी ज़िंदगी। मुंबई की ज़िंदादिली...
फिर सब कुछ पटरी पर लौट आएगा... अगली वारदात तक.... और कोई चारा भी तो नहीं।
पर कई बातें ज़ेहन में आती हैं। कुछ ही घंटों के अंदर...
सरकार कहेगी, हम निंदा करते हैं... पूरी तरह जांच की जाएगी... दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी... किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।
पुलिस कहेगी... पहली बार समुद्री रास्ते से आए आंतकी। नया मोडस आपरेंडी।
(हालांकि हमारे एनएसए पहले ही इसके बारे में चेता चुके हैं। पर शायद वो चेते नहीं)
विपक्ष कहेगा, ये सरकार की विफलता है। वो हिंदू आतंकवाद का झूठा ख़ौफ दिखा रही है... असल में ख़तरा जेहादी आतंकवाद का है। हम आए तो पलट देंगे तस्वीर... ।
अख़बार टीवीओं पर ख़बर आएगी... पटरी पर लौटी ज़िंदगी। मुंबई की ज़िंदादिली...
फिर सब कुछ पटरी पर लौट आएगा... अगली वारदात तक.... और कोई चारा भी तो नहीं।
Friday, November 7, 2008
अमेरिका का नेशनल फ्लैग मेड इन चाईना...!
ऐसा शायद हम तिरंगे के साथ नहीं कर सकते। ये तिरंगे का अपमान माना जाएगा। ये अमेरिका में ही संभव है। इन तस्वीरों को ग़ौर से देखिए। ये अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज है। लेकिन बना कहां है? मेड इन चाईना! जी हां। ये तस्वीर 5 नवबंर की हैं। नई दिल्ली स्थित अमेरिकन इंफोर्मेशन सेंटर की जहां ओबामा की जीत का जश्न मनाया जा रहा था। पॉलीथीन के बने सैकड़ों झंडे लगाए गए थे। सब पर मेड इन चाईना का ऐसा ही मार्का लगा था। अपना राष्ट्रीय ध्वज चीन में बनवाने के पीछे की वजह साफ है। मानव श्रम की उपलब्धता से लेकर प्रदूषण निरोधी नीति तक... कई कारणों से अमेरिका जैसे विकसित देश को नहीं लगता कि ऐसे छोटे-छोटे कामों में अपना वक्त और ताक़त ख़र्च करें। सस्ता माल चीन से उठा लेते हैं। चाहे राष्ट्रीय ध्वज ही क्यों न हो!
Wednesday, November 5, 2008
टीवी रिपोर्टरों की खींचतान में गए ओबामा!
ये दो तस्वीरें हैं अमेरिकन इंफॉरमेशन सेंटर नई दिल्ली की जहां आज चुनाव नतीजों के लिए ख़ास इंतज़ाम किए गए थे। ओबामा की जीत के बाद कई चैनलों के रिपोर्टर ओबामा की इस आदमकद कटआउट के साथ पीटीसी करने के चक्कर में आपसी खींचतान में लग गए। नतीजा... अमेरिकी दूतावास की एक महिला अधिकारी ओबामा को उठा ले गई। हां... इसके पहले दिल्ली के एक नामी महिला कॉलेज की लड़कियों ने ओबामा के इस बुत के साथ ख़ूब तस्वीरें खिंचवाईं।
Monday, September 1, 2008
हमारा बिगड़ा मुकद्दर है... क्या किया जाए
बिहार का मंज़र
हमारा बिगड़ा मुकद्दर है
क्या किया जाए
हमारे घर में समंदर है
क्या किया जाए
है भूख प्यास की शिद्दत
हमारे चेहरों पे
ये अब बिहार का मंज़र है
क्या किया जाए!
-तहसीन मुनव्वर
हमारा बिगड़ा मुकद्दर है
क्या किया जाए
हमारे घर में समंदर है
क्या किया जाए
है भूख प्यास की शिद्दत
हमारे चेहरों पे
ये अब बिहार का मंज़र है
क्या किया जाए!
-तहसीन मुनव्वर
Saturday, August 30, 2008
अब तो ख़ैर हो मौला!
बिहार में बाढ़ से तबाही पर जितना लिखा-दिखाया जाए कम है। लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं। सैंकड़ो बह गए हैं। लाखों फंसे हैं। दाने दाने को मोहताज़ हैं। सही में राहत पहुंचाने की बजाए राज्य और केन्द्र की राजनीति जारी है। हालात पर जितना रोया जाए, बयानबाज़ी को जितना दुत्कारा जाए, व्यवस्था के कान में जूं नहीं रेंगती। सरकारी मदद से दूर लोगों का आसरा अब सिर्फ ऊपर वाले का है। इसे तहसीन मुनव्वर चार पंक्तियों में कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं-
कई दिन से हैं भूखे लोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
ये जीवन बन गया है रोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
नज़र जिस सिम्ट भी उठती है
पानी है तबाही है
हर एक घर में है फैला सोग
अब तो ख़ैर हो मौला!
कई दिन से हैं भूखे लोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
ये जीवन बन गया है रोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
नज़र जिस सिम्ट भी उठती है
पानी है तबाही है
हर एक घर में है फैला सोग
अब तो ख़ैर हो मौला!
Tuesday, August 26, 2008
जम्हूरियत की मज़बूती या सिर्फ सत्ता की लड़ाई?
परवेज़ मुशर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं बीता कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़ गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां पहले भी भिड़तीं रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है। लेकिन अवाम की ज़रुरत और उसके सपनों से दूर राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरियां होती हैं। यही मजबूरी नवाज़ के पीएमएल एन और ज़रदारी की पीपीपी की भी है। दोनों एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां रहीं हैं और एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ कर सत्ता तक पहुंचती रही हैं। मुशर्रफ़ नाम की मजबूरी ने दोनों को एक किया। अकेले पार पाने में नाकाम रही इन पार्टियों ने चुनाव के बाद मिल कर सरकार बनायी। लेकिन गठबंधन सरकार बनाने के बाद भी दोनों ने अपने अपने एजेंडे पर चलने की कोशिश जारी रखा। नवाज़ को मुशर्रफ़ से अपना बदला लेना था तो ज़रदारी को पाकिस्तान की राजनीति में ख़ुद को सेट करना। अपने जनाधार के बूते नवाज़ शरीफ मुशर्रफ़ को एक पल भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे तो एनआरओ (नेशनल रिकांसिलिएशन आर्डर) के ज़रिए वापस लौटे और भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त हुए ज़रदारी मुशर्रफ़ के ख़िलाफ एक हद से बाहर जाने को तैयार नहीं थे। मुशर्रफ़ को बेनज़ीर की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाले ज़रदारी अमेरिकी दबाव में ही सही... मुशर्रफ़ को साथ लेकर चलने में ही अपनी भलाई समझने लगे थे। लेकिन उन्होने जब देखा कि आम अवाम, वक्कला (वकीलों) और अदलिया (अदालत और जजों) और सिविल सोसाइटी में हवा उनके खिलाफ बनने लगी है तो वो महाभियोग को राज़ी हुए।
ख़ैर। दबाव की रणनीति के ज़रिए और अमेरिका और सेना के मुशर्रफ़ के पीछे से हाथ खींच लेने की वजह से महाभियोग के पहले ही इस सैनिक तानाशाह से पार पा लिया गया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया। सैनिक तानाशाह के चले जाने के बाद लोकतांत्रिक ताक़तों के एकजुट रहने की किसी वजह के बचा नहीं रहने का खालीपन। अब किससे लड़ें और किसके ख़िलाफ एक रहें। साझा दुश्मन से निज़ात और साझा मंज़िल पा लेने के बाद ही वर्चस्व की आपसी लड़ाई शुरु होती है। आने वाले समय में पाकिस्तान का मुस्तकबिल कौन तय करेगा। कौन उनकी ज़रुरतों को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है और कौन उन्हें बेहतर शासन दे सकता है। अपेक्षाकृत उदारवादी और अमेरिका जैसे देशों की तरफ झुकाव रखने वाली पीपीपी के मुखिया आसिफ़ अली ज़रदारी या फिर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले मियां नवाज़ शरीफ़। चुनाव दोनों में से एक का ही होना है। और वो उसका होगा जो पाकिस्तानी अवाम के ज़्यादा क़रीब होने का संदेश देगा। जो उनकी माली हालत बेशक ना ठीक कर सके... सस्ता आटा चावल दाल बेशक मुहैय्या न करा सके... लेकिन उसके उठाए मुद्दे में साथ खड़े होने का भ्रम दे सके।
राजनीति के पुराने खिलाड़ी नवाज़ शरीफ़ को ये बेहतर पता है कि मौजूदा समय में सरकार में रहने से इसकी नाक़ाबिलियत का ठीकरा उनके सिर भी फूटता। मुद्रा स्फीति और बढ़ती महंगाई से पार पाना कोई आसान काम नहीं और ना ही कबाईली इलाक़ो में सर उठ चुके आतंकवादियों पर काबू पाना। तो डूब रहे जहाज़ पर खड़े हो कर डूबने से बेहतर है किनारे बैठ कर बचाओ-बचाओ चिल्लाना। मतलब अगर नवाज़ सरकार में रहते हुए सरकार को अपने एजेंडे पर चलते हुए न दिखा सकें तो विपक्ष में बैठ कर ख़ुद को सरकार से लड़ते हुए तो दिखा ही सकते हैं। इससे वो अवाम में पीपीपी को एक्सोपोज़ भी कर पाएंगे कि देखो जिन वायदों के साथ वो सत्ता में पहुंची उसे वो भूल चुकी है लिहाज़ा अब बारी उनकी है।
दोनों दलों के इस तरह से अलग होने को पाकिस्तान ही नई नवेली जम्हूरियत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा। इससे लोकतंत्र विरोधी उन ताक़तों को मज़बूती मिलने की आशंका बढ़ गई है जो मौक़े की तलाश में रहती हैं। हालांकि पाकिस्तान की सेना ने राजनीति से ख़ुद को दूर रखने का फैसला किया है और अमेरिका भी पाकिस्तान में लोकतंत्र के अपने प्रयोग को इतनी जल्दी ख़त्म नहीं करना चाहेगा। फिर भी सरकार अगर कमज़ोर और अल्पमत की हो तो आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इस सब बातों के बीच नवाज़ और ज़रदारी के अलग होने का एक सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। मुशर्रफ़ के बाद उनकी समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है और उसके ज़्यादातर सदस्य अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। ज़ाहिर है कि संसद में कोई मज़बूत विपक्ष बचा नहीं रहा जो कि मज़बूत लोकतंत्र के लिए ज़रुरी है। ऐसे में पाकिस्तान की दो सबसे बड़ी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टी को देर सबेर एक दूसरे के खिलाफ़ आना ही था। सो वे आ आ गए हैं। ये अलग बात है कि समय से पहले आ गए हैं। लेकिन नवाज़ शरीफ जानते हैं कि अभी पाकिस्तान में दुबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो विपक्ष में बैठने की बात करके भी पीपीपी की सरकार को गिराने की बात फिलहाल नहीं कर रहे। हालांकि उनसे बतौर विपक्षी पार्टी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा करना बेमानी होगी, लेकिन वो चाहेंगे कि सरकार तब तक चलती रहे जब तक वो उसे अवाम में लताड़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते रहें। अभी उनकी पार्टी का जनाधार सिर्फ पंजाब में है। लेकिन जिस दिन पीपीपी की तरह पीएमएल एन का भी जनाधार बाक़ी के तीनों राज्यों में भी होता दिखेगा, वो चुनाव में जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे। और ऐसा करते हुए वो सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते नहीं बल्कि जम्हूरियत को मज़बूत करते भी दिखेंगें।
ख़ैर। दबाव की रणनीति के ज़रिए और अमेरिका और सेना के मुशर्रफ़ के पीछे से हाथ खींच लेने की वजह से महाभियोग के पहले ही इस सैनिक तानाशाह से पार पा लिया गया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया। सैनिक तानाशाह के चले जाने के बाद लोकतांत्रिक ताक़तों के एकजुट रहने की किसी वजह के बचा नहीं रहने का खालीपन। अब किससे लड़ें और किसके ख़िलाफ एक रहें। साझा दुश्मन से निज़ात और साझा मंज़िल पा लेने के बाद ही वर्चस्व की आपसी लड़ाई शुरु होती है। आने वाले समय में पाकिस्तान का मुस्तकबिल कौन तय करेगा। कौन उनकी ज़रुरतों को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है और कौन उन्हें बेहतर शासन दे सकता है। अपेक्षाकृत उदारवादी और अमेरिका जैसे देशों की तरफ झुकाव रखने वाली पीपीपी के मुखिया आसिफ़ अली ज़रदारी या फिर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले मियां नवाज़ शरीफ़। चुनाव दोनों में से एक का ही होना है। और वो उसका होगा जो पाकिस्तानी अवाम के ज़्यादा क़रीब होने का संदेश देगा। जो उनकी माली हालत बेशक ना ठीक कर सके... सस्ता आटा चावल दाल बेशक मुहैय्या न करा सके... लेकिन उसके उठाए मुद्दे में साथ खड़े होने का भ्रम दे सके।
राजनीति के पुराने खिलाड़ी नवाज़ शरीफ़ को ये बेहतर पता है कि मौजूदा समय में सरकार में रहने से इसकी नाक़ाबिलियत का ठीकरा उनके सिर भी फूटता। मुद्रा स्फीति और बढ़ती महंगाई से पार पाना कोई आसान काम नहीं और ना ही कबाईली इलाक़ो में सर उठ चुके आतंकवादियों पर काबू पाना। तो डूब रहे जहाज़ पर खड़े हो कर डूबने से बेहतर है किनारे बैठ कर बचाओ-बचाओ चिल्लाना। मतलब अगर नवाज़ सरकार में रहते हुए सरकार को अपने एजेंडे पर चलते हुए न दिखा सकें तो विपक्ष में बैठ कर ख़ुद को सरकार से लड़ते हुए तो दिखा ही सकते हैं। इससे वो अवाम में पीपीपी को एक्सोपोज़ भी कर पाएंगे कि देखो जिन वायदों के साथ वो सत्ता में पहुंची उसे वो भूल चुकी है लिहाज़ा अब बारी उनकी है।
मामला चीफ जस्टिस इफ्तिख़ार मोहम्मद चौधरी की बर्खास्तगी और इसके ख़िलाफ वकीलों के आन्दोलन से शुरु हुआ था जो इमरजेंसी के समय और जजों की बर्खास्तगी और वकीलों पर पाबंदी तक गया। इस आंदोलन ने मुशर्रफ़ के खिलाफ अवाम के गुस्से को एक नया आकार और विस्तार दिया। दोनों ही दलों ने इसका फ़ायदा फरवरी के चुनाव में उठाया। पीपीपी सबसे बड़ी तो पीएमएल एन दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी। लेकिन पीपीपी ने इन जजों की बहाली में जितनी देरी की, नवाज़ के लिए राजनीतिक ज़मीन उतनी ही तैयार होती गई। वो वक्कला-अदलिया और प्रेस और सिविल सोसाईटी के जो लोग पहले पीपीपी के साथ थे वो सभी नवाज़ के साथ आते चले गए। इससे ज़रदारी के भीतर राजनीतिक असुरक्षा का भाव और घर करता चला गया। वो जजों तो बहाल कर देते तो इसका सेहरा नवाज़ के सर तो बंधता ही, मुशर्रफ़ के फैसलों को गैरकानूनी ठहराने की स्थिति में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मामले खुलने का भी अंदेशा बढ़ता। इसलिए उन्होने राष्ट्रपति बनने के बाद ही जजों की बहाली की शर्त रख दी। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पीपीपी का होने से नवाज़ की राजनीतिक पकड़ कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए नवाज़ उन्होने राष्ट्रपति पद के लिए ज़रदारी के खिलाफ सईद उल जमा सिद्दीकी को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना दिया है।
दोनों दलों के इस तरह से अलग होने को पाकिस्तान ही नई नवेली जम्हूरियत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा। इससे लोकतंत्र विरोधी उन ताक़तों को मज़बूती मिलने की आशंका बढ़ गई है जो मौक़े की तलाश में रहती हैं। हालांकि पाकिस्तान की सेना ने राजनीति से ख़ुद को दूर रखने का फैसला किया है और अमेरिका भी पाकिस्तान में लोकतंत्र के अपने प्रयोग को इतनी जल्दी ख़त्म नहीं करना चाहेगा। फिर भी सरकार अगर कमज़ोर और अल्पमत की हो तो आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इस सब बातों के बीच नवाज़ और ज़रदारी के अलग होने का एक सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। मुशर्रफ़ के बाद उनकी समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है और उसके ज़्यादातर सदस्य अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। ज़ाहिर है कि संसद में कोई मज़बूत विपक्ष बचा नहीं रहा जो कि मज़बूत लोकतंत्र के लिए ज़रुरी है। ऐसे में पाकिस्तान की दो सबसे बड़ी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टी को देर सबेर एक दूसरे के खिलाफ़ आना ही था। सो वे आ आ गए हैं। ये अलग बात है कि समय से पहले आ गए हैं। लेकिन नवाज़ शरीफ जानते हैं कि अभी पाकिस्तान में दुबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो विपक्ष में बैठने की बात करके भी पीपीपी की सरकार को गिराने की बात फिलहाल नहीं कर रहे। हालांकि उनसे बतौर विपक्षी पार्टी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा करना बेमानी होगी, लेकिन वो चाहेंगे कि सरकार तब तक चलती रहे जब तक वो उसे अवाम में लताड़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते रहें। अभी उनकी पार्टी का जनाधार सिर्फ पंजाब में है। लेकिन जिस दिन पीपीपी की तरह पीएमएल एन का भी जनाधार बाक़ी के तीनों राज्यों में भी होता दिखेगा, वो चुनाव में जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे। और ऐसा करते हुए वो सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते नहीं बल्कि जम्हूरियत को मज़बूत करते भी दिखेंगें।
Monday, August 25, 2008
भिड़ गए नवाज़ और ज़रदारी
परवेज़ मुशर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं हुआ है कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़ गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां भिड़तीं पहले भी रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है।
...जारी
...जारी
Thursday, August 21, 2008
अब दिखेगी नवाज़ और ज़रदारी की टक्कर
परवेज़ मुशर्रफ़ के इस्तीफे के बाद पाकिस्तान में सियासत ने एक नई करवट ली है। मुशर्रफ़ के जाने को यहां जम्हूरियत की मज़बूती की तरफ एक और बढ़ा क़दम माना जा रहा है। ये बात सही है कि मुशर्रफ़ ने लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ने की कोशिश में सैन्य तख़्ता पलट से लेकर ईमरजेंसी लगाने तक कई काम किए। चीफ जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी जैसे जजों को बर्ख़ास्त किया और अदालतों की आज़ादी को घेरे रखा। पाकिस्तान इलेक्ट्रानिक मीडिया रेगुलेशन एक्ट (पैमरा) और प्रेस एंड पब्लिसिटी रेगुलेशन आर्डिनेंस के ज़रिए मीडिया को भी बांधे रखा। लेकिन मुशर्रफ़ के जाने के साथ ये सारे सवाल बेशक पीछे छूट गए हैं। लेकिन पाकिस्तान की जम्हूरियत की मज़बूती के लिए कुछ और सवाल बचे हुए हैं।
सबसे बड़ा सवाल है कि नए हालात में मियां नवाज़ शरीफ और आसिफ़ अली ज़रदारी कब तक साथ खड़े रह पाएंगे? ये सवाल अचानक उठ नहीं खड़ा है। ये तब भी था जब ये साथ खड़े हुए थे। लेकिन मुशर्रफ़ से लड़ाई की शोर में ये दबा हुआ था। दोनों साथ आए ही थे मुशर्रफ़ को हटाने के लिए। तो जब इनके साझा दुश्मन मुशर्रफ़ सियासी परिदृष्य से हट गए हैं तो ज़ाहिर सी बात है इनके बीच एकता का साझा बहाना भी ख़त्म हो गया है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़, पाकिस्तान की ये दो मुख्य पार्टियां पहले एक दूसरे के खिलाफ लड़ती और संसद तक पहुंचती रही हैं। परवेज़ मुशर्रफ ने इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के सुप्रीम नेताओं से जम कर दुश्मनी की। नतीज़ा दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है की तर्ज़ पर इन दोनों पार्टियों के नेता साथ आने को मज़बूर हुए। यूं तो 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान' की इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में कोई मौलिक विभेद मुश्किल है। लेकिन ये तो साफ़ है कि नवाज़ शरीफ राइटविंग पॉलिटिक्स यानि दश्रिणपंथी राजनीतिक में भरोसा करते हैं और अपेक्षाकृत कट्टरवादी चेहरा माने जाते हैं। वे पाकिस्तान में अमेरिकी दख़ल की मुख़ालफत करते रहते हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व में अपेक्षाकृत उदारवादी नीति वाली पार्टी का रहा है। इसका झुकाव हमेशा पश्चिमी देशों, ख़ासतौर से अमेरिका की तरफ रहा है। बेनज़ीर के पार्टी की कमान संभालने वाले आसिफ़ अली ज़रदारी की यूं तो अभी कोई ठोस राजनीतिक छवि नहीं बन पायी है। वे बस बेनज़ीर की विरासत को आगे ले जाने की कोशिश में जुटे हैं और पार्टी को पुरानी नीति से अलग नहीं ले जा सकते। इसके लिए उनकी अपनी मज़बूरियां भी हैं।
यानि राजनीतिक पार्टी के तौर पर पीपीपी और पीएमएल क्यू की विचारधारा में जो अंतर है वो ख़त्म नहीं हो सकता। होना नहीं चाहिए। लेकिन अगर दोनों मुख्य पार्टियां एक साथ सत्ता में बैठी रहेंगी तो मज़बूत विपक्ष की भूमिका कौन निभाएगा? मुशर्रफ़ की वजह से वजूद में आयी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू) मुशर्रफ़ के जाने के साथ ही ख़त्म नहीं तो बहुत कमज़ोर तो पड़ ही गई है। उसके सांसदों के जल्द ही टूट कर अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ आ जाने की उम्मीद जतायी जा रही है। तो जब कोई मज़बूत विपक्ष नहीं होगा तो मज़बूत जम्हूरियत की बात बेमानी होगी। अगर पीपीपी-पीएमएल (एन) गठबंधन पर नज़र डालें तो इन दोस्ती के दिनों में भी दोनों के बीच सोच और एप्रोट का अंतर साफ दिखाई देता रहा है। इस्लामाबाद से सटे हिल स्टेशन मरी में जारी घोषणापत्र एक तरह से इन दोनों पार्टियों के बीच का या न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) था। हालांकि इसमें सारा ज़ोर मुशर्रफ़ को हटाने और बरख़ास्त जजों की बहाली पर था जो सरकार को समर्थन देने की नवाज़ शरीफ़ की शर्त और नतीज़ा था। फरवरी में चुनाव नतीजे आने के बाद भी सरकार बनने में तक़रीबन एक महीना लग गया तो वो इसलिए कि ज़रदारी नवाज़ की शर्तों को मानने को तैयार नहीं हो पा रहे थे। लेकिन नवाज़ शरीफ की लगातार ज़िद, सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे जैसे क़दम और चुनावी वादा न निभाने के चलते जनता में पीपीपी की लगातार होती फज़ीहत से पैदा हुए दबाव का ही नतीज़ा रहा कि आख़िरकार ज़रदारी को मुशर्रफ़ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा। चौतरफा दबाव की वजह से मुशर्रफ तो निकल लिए लेकिन अब गठबंधन सरकार के सामने पेंच जजों की बहाली को लेकर फंसा हुआ है। नवाज़ ने कई बार समय सीमा तय की है लेकिन बहाली को लेकर फैसला लेने में देरी हो रही है। ज़रदारी को डर है कि अगर बर्ख़ास्त जजों को बहाल किया गया तो उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मुकद्दमें फिर से खुल सकते हैं। नवाज़ शरीफ बेशक उन्हें अपनी तरफ से ऐसा नहीं होने का भरोसा दे रहे हों लेकिन ज़रदारी का डर बेवजह नहीं है।
बेशक नवाज़ ने मुशर्रफ के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ने की बात फिलहाल मान ली हो। लेकिन मुशर्रफ़ का दिया जो दर्द नवाज़ ने झेला और अदालत और वकीलों ने जो परेशानी उठायी है उसको देखते हुए ये अचरज़ की बात नहीं कि मुशर्रफ़ के खिलाफ़ देर सबेर कानूनी कार्रवाई शुरु की जाए। पुरानी अदालत बहाल होने की स्थिति में इसमें तेज़ी आ सकती है। मुशर्रफ के जाने के पुराने फैसले असंवैधानिक करार दिए जा सकते हैं। ऐसे में मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच हुआ नेशनल रिकांसिलिएशन एलायंस की जद में आ सकता है। मुशर्रफ के जिस नेशनल रिकांसिलेएशन आर्डर के ज़रिए ज़रदारी पर से भ्रष्टाचार के मामले हटाए गए उसे रद्द किया जा सकता है। ऐसे में ज़रदारी फिर से राजनीतिक तौर पर हाशिए पर धकेले जा सकते हैं। मुशर्रफ क हटाने में हुई देरी के चलते वकीलों ने ज़रदारी के खिलाफ जो मोर्चा खोल दिया उससे भी ज़रदारी सहमे हुए हैं। एतेज़ाज़ एहसन जैसे वकील नेता का उभरना भी ज़रदारी को भारी पड़ सकता है। दूसरी तरफ, नए हालात में ज़रदारी को कमज़ोर करने वाली जितनी भी बातें होगीं वो सब नवाज़ शरीफ को सत्ता के क़रीब ले जाने वाली साबित हो सकती हैं। मुशर्रफ़ के हाथों बहाल हुए मौजूदा जजों ने नवाज़ शरीफ के चुनाव लड़ने की पात्रता पर रोक लगा रखी है। पुराने जज आएंगे तो नवाज़ से ये पाबंदी हटनी तय है। नवाज़ का चुन कर संसद में आने का मतलब है ज़रदारी की तरकश से उस तीर का निकल जाना जिसके बूते वो बाद की राजनीति में नवाज़ को दबा कर रखने की कोशिश कर सकते हैं। राजनीतिक में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता ये तो धुर विरोधी रही पार्टियां पीपीपी और पीएमएल (एन) का मिल कर बनाने के फैसले से ही साफ हो गया। लेकिन इसी राजनीति में कोई स्थायी दोस्त भी नहीं होता ये ज़ाहिर होना बाक़ी है। इन दोनों पार्टियों के लिए ये स्वभाविक भी है क्योंकि ये पहले से एक दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं। आगे भी लड़ेगें। बात सिर्फ समय की है।
नवाज़ शरीफ अभी तुरंत चुनाव नहीं चाहेंगे क्योंकि इससे उनपर अपने स्वार्थ के लिए सरकार गिराने का आरोप लग सकता है और पाकिस्तान की सियासत में अभी जो कुछ भी ठीक होता नज़र आ रहा है वो फिर से ग़लत रास्ता पकड़ सकता है। नवाज़ को ये भी पता है कि फरवरी के चुनाव में उनकी पार्टी ने सिर्फ पंजाब प्रांत में उम्दा प्रदर्शन किया जबकि पीपीपी की पकड़ बाक़ी के तीन राज्यों सिंध, बलचिस्तान और एनडब्ल्यूएफपी में भी है। इसलिए जब तक नवाज़ पूरे पाकिस्तान में अपने लिए आधार नहीं बना लेते तब तक वो चुनाव नहीं चाहेंगे। लेकिन आवाम के सामने वो ज़रदारी को कमतर साबित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे। बर्ख़ास्त जजों की बहाली की ज़िद के ज़रिए वो सिविल सोसायटी और वकीलों के चहेते तो बन ही गए हैं... आने वाले दिनों में गठबंधन सरकार के होने वाले फैसलों में भी अपनी चला कर वो वोटबैंक पुख़्ता करने की कोशिश में जुटे रहेंगे। यानि दोस्ती के दिनों में दुश्मनी के हथियार जुटाते और संभालते रहेंगे।
BMW का मतलब 'बिको मत वकीलसाहब'
बीएमडब्ल्यू कार दुर्घटना मुकद्दमें में एनडीटीवी के स्टिंग ऑपरेशन पर दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आ गया है। मामले में फंसे दोनों वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को दोषी पाया गया है। दोनों वकीलों से वरिष्ठ वकील होने का दर्ज़ा वापस लेने की अनुशंसा की गई है और इनकी वकालत पर चार महीने की पाबंदी भी लगा दी गई है।
इस पर एक पुरानी पोस्ट पढ़ने के लिए नीचे क्लिक कर सकते हैं।
BMW मतलब Biko-Mat-Wakeelsahab!!!
इस पर एक पुरानी पोस्ट पढ़ने के लिए नीचे क्लिक कर सकते हैं।
BMW मतलब Biko-Mat-Wakeelsahab!!!
Monday, August 18, 2008
आख़िर गए मुशर्रफ़
मुशर्रफ को आख़िरकार इस्तीफ़ा देना पड़ा। मुख्य तौर पर तीन वजहें रहीं। नवाज़ शरीफ और ज़रदारी के नेतृत्व में राजनीतिक दलों की घेराबंदी, पाकिस्तानी सेना का चुप रहना और अमेरिका का मुशर्रफ़ से पीछे से हाथ खींच लेना। पाकिस्तान में जम्हूरियत की मज़बूती के लिए मुशर्रफ को हटाया जाना ज़रुरी माना जा रहा था। अब मुशर्रफ नहीं हैं लेकिन जम्हूरियत की चुनौतियां अब भी बरकरार है।
किसी जम्हूरियत की मज़बूती के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना ज़रुरी है। मुशर्रफ की विदाई के बाद उनकी बनाई पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है। ऐसे में मज़बूत विपक्ष की भूमिका में कोई बड़ी पार्टी नहीं बची है। दो धुरविरोधी पार्टियां पीपीपी और पीएमएल एन सत्ता में साझीदार हैं। अब जब उनका साझा दुश्मन नहीं रहा तो ऐसे में देखना होगा कि अलग अलग नीतियां लेकर चलने वाली ये दोनों पार्टिया कब तक साथ चलती हैं। इनके बीच हितों का टकराव तो होना ही है। लेकिन अभी मुल्क जिस आर्थिक बदहाली और विधि व्यवस्था की नाकामी का शिकार है उससे पार पाए बग़ैर अगर ये आपस में लड़े तो लोकतंत्र विरोधी ताक़तों को फिर मौक़ा मिल सकता है।
आतंकवाद पर क़ाबू पाते हुए और मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाते हुए अगर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के ख़िलाफ चुनाव लड़ा तो ये पाकिस्तान की नई नवेली जम्हूरियत के हित में होगा। स्वार्थ की वजह से लड़े तो जैसा था वैसे की स्थिति में पहुंचने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।
किसी जम्हूरियत की मज़बूती के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना ज़रुरी है। मुशर्रफ की विदाई के बाद उनकी बनाई पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है। ऐसे में मज़बूत विपक्ष की भूमिका में कोई बड़ी पार्टी नहीं बची है। दो धुरविरोधी पार्टियां पीपीपी और पीएमएल एन सत्ता में साझीदार हैं। अब जब उनका साझा दुश्मन नहीं रहा तो ऐसे में देखना होगा कि अलग अलग नीतियां लेकर चलने वाली ये दोनों पार्टिया कब तक साथ चलती हैं। इनके बीच हितों का टकराव तो होना ही है। लेकिन अभी मुल्क जिस आर्थिक बदहाली और विधि व्यवस्था की नाकामी का शिकार है उससे पार पाए बग़ैर अगर ये आपस में लड़े तो लोकतंत्र विरोधी ताक़तों को फिर मौक़ा मिल सकता है।
आतंकवाद पर क़ाबू पाते हुए और मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाते हुए अगर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के ख़िलाफ चुनाव लड़ा तो ये पाकिस्तान की नई नवेली जम्हूरियत के हित में होगा। स्वार्थ की वजह से लड़े तो जैसा था वैसे की स्थिति में पहुंचने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।
Thursday, August 7, 2008
मुशर्रफ़ पर महाभियोग!
मुशर्रफ को हटाने के लिए नवाज़ शरीफ का दबाव आख़िर काम आता नज़र आ रहा है। पीपीपी से आगे बातचीत का रास्ता बंद करने की धमकी के बाद सत्तारुढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी को राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा है। हालांकि अभी ये साफ नहीं है कि महाभियोग कब लाया जाएगा। हो सकता है कि नवाज़ के दबाव के चलते अभी सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर इसका ऐलान किया गया हो और इस पर वास्तविक अमल में अभी वक्त लगे।
दरअसल 18 फरवरी के चुनाव नतीज़ों में मुशर्रफ की समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू की करारी हार हुई थी। पीपीपी की सरकार नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल एन के समर्थन के बूते ही बन सकी। उसके बाद से ही नवाज़ शरीफ लगातार लोकतंत्र विरोधी मुशर्रफ को हटाने और इमरजेंसी के पहले के जजों की बहाली के लिए ज़ोर डालते रहे हैं। लेकिन चाहे वो अमेरिकी दबाव हो या सेना से दुश्मनी का डर, ज़रदारी मुशर्रफ से सीधा दो दो हाथ करने से बचते रहे। नतीजतन पीपीपी के खिलाफ पाकिस्तानी अवाम की नाराज़गी भी काफी बढ़ती गई।
अब ऐलान किया गया है कि सरकार संसद में मुशर्रफ के खिलाफ चार्जशीट पेश करेगी। आठ साल तक पाकिस्तान पर राज करने वाले राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के लिए इसे मुश्किल दिनों की शुरुआत के तौर पर देखा जा रहा है। एक रास्ता ये है कि वो खुद ही इस्तीफ़ा दे दें। वैसे संसद को भंग करने के लिए धारा 58 2बी का इस्तेमाल अभी भी मुशर्रफ के हाथ में है। अपने शासन काल में की गई ग़लतियों के चलते हाल ही में अमेरिकी आलोचना का शिकार हो चुके मुशर्रफ मौजूदा हालात में इसके इस्तेमाल की हिम्मत शायद ही कर पाएं। सरकार के सामने सवाल ये है कि वो महाभियोग के लिए ज़रुरी दो तिहाई बहुमत कैसे जुटाती है। क्या वो महाभियोग पर अवामी नेशनल पार्टी जैसे दलों का सहयोग हासिल कर पाती है, पीएमएल क्यू को तोड़ती है या फिर नवबंर में सीनेट चुनाव तक इंतज़ार करती है।
जम्मू जाग जाने का वक्त है... पार्ट 2
गतांक से आगे...
जम्मू में कई इलाक़े में कश्मीरी बसे हैं। पंडित और मुसलमान भी। नई नई बस्तियां बसी हैं। एसबेस्टर की और महलनुमा भी। उनके बीच धार्मिक स्थल भी बने हैं। मंदिर भी और मस्ज़िद भी। तब क्यों नहीं स्यापा हुआ। अब क्यों हो रहा है। कम्युनल लाईन पर बात तब क्यों नहीं आयी। अब क्यों आ रही है।
ज़मीन वापस लेने के फैसले के पीछे अगर श्रीनगर के जनांदोलन की दुहाई दी जा रही है तो ये बात किसी से छिपी नहीं है कि कम से कम दो दशक से पूरी घाटी में आंदोलन, हिंसक या अहिंसक, किस बात के लिए हो रहे हैं। भारत से अलग होने के लिए ही ना। तो जनभावना और जनआंदोलन का ख़्याल कर क्यों नहीं खुला छोड़ देते उन्हें। मालूम है धर्मनिरपेक्षों को कि वो इलाका तो चला ही जाए... पूरा देश जूते मारेगा सो अलग। इसलिए उनको बांध के ही सही... साथ रखना है। और वोट मिलता रहे... कुर्सी बची रहे इसले लिए जनभावना की दुहाई देकर चंद अलगाववादियों को खुश रखना है। और ये अगर लोकल पॉलिटिक्स में बने रहने की चालाक रफ्फूगिरी नहीं है तो क्यों कांग्रेस और पीडीपी जैसी सभ्रांत पार्टियों के नेता ज़मीन की लड़ाई में जम्मू के साथ हो लिए हैं। पार्टी लाइन तोड़ रहे है या पार्टी ही छोड़ रहे हैं। इसलिए क्योंकि नहीं हुए तो ज़मीन सूंघ जाएंगे। जो लोकल हीट इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लोकल नेताओं को लोकल स्तर पर हो रहा है वही अगर राष्ट्रीय स्तर पर रास्ट्रीय स्तर के नेताओं को होने लगे तो शायद वो अपना चश्मा उतार फेंके।
ज़मीन देने के ख़िलाफ जब श्रीनगर में आंदोलन शुरु हुआ तो ज़िम्मेदार सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेताओं को ठहराया गया। वहां अगर ये मामला गहरा सांप्रदायिक रंग लेने से बचा तो उन टैक्सी ड्राईवरों और व्यापार करने वालों की वजह से जिनकी रोज़ी रोटी ‘टनल पार’ वालों से चलती है। क्योंकि आपने उनको आज़ादी दी नहीं है इसलिए वो इधर वालों पर आश्रित हैं। इसलिए जहां कहीं भी टनल पार वालों पर पत्थर बरसने की नौबत आयी... वो बचा ले गए... बचा ले जाते हैं। जहां पत्थर बरसे वो कैमरों की निगाह में आ नहीं पाए। अगर कोई भुक्तभोगी मिलेगा तो वही आपको बता पाएगा। क्या क्या हुआ। कैसे वापस आए। लेकिन वहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का शासन है। इसलिए सब कुछ मैनेज कर लिया गया। लेकिन अब वहीं मीरवाइज़ उमर फारुक सेब का ट्रक लेकर एलओसी क्रॉस करने की बात कर रहे हैं। मेहबूबा कहतीं है कि हमें अलग कर दो इतना ही दिक्कत है तो। क्यों भई। बीजेपी के नेता भड़काऊ हैं तो ये आगे आकर क्यों नहीं कहते कि जम्मू के भाई... इतनी सी ज़मीन के लिए इतना बवाल क्यों। ले लो। क्या इससे कश्मीर कम हो जाएगा। नहीं। कश्मीरियत उंची उठ जाएगी। पर वो ऐसा क्यों करें।
दरअसल कश्मीर किसी आज़ादी की लड़ाई का नहीं राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का शिकार रहा है। जिसका एक सिरा पाकिस्तान को खुलता है। ट्रांसफॉर्मर तो बिहार में भी फुंकते हैं। लेकिन ट्रांसफॉमर फुंकने पर भी ‘जीवे जीवे पाकिस्तान... हम क्या मांगे आज़ादी’ के नारे लगते सुने गए हैं। तो इकॉनॉमिक ब्लोकेड पर तो पाकिस्तान की गोद में बैठने डर दिखाना तो ऐसे नेताओं की फितरत का हिस्सा है। कभी इनको एक्सपोज़ करने की बात क्यों नहीं होती। नंगे पंगे को ही रगड़ कर क्यों खुद को सबसे ठीक होने की गलतफहमी पाले हुए हैं। जान लें। गुजरात हो या जम्मू और कश्मीर, धर्म के नाम पर जहां भी राजनीतिक सत्ता पर बने रहने की मंशा होगी... आज न कल ऐसी ही जलती हुई तस्वीर दिखेगी।
जम्मू जलने के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले सावधान। हिन्दुत्व का एक फ्लॉप शो देकर कुंद हो चुकी पार्टी में आप एक नई जान भर रहे हो। इस पार्टी में इतनी कूवत होती तो अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ सिर्फ बयानबाज़ी कर चुप नहीं रह जाती। जनभावना को भड़का कोई जनांदोलन का भ्रम दे पाने जैसी हालत भी पैदा कर पाती तो देश कई जगह जल रहा होता। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर बहक कर लोग बांग्लादेशियों को सीमा पर घसीटने पर आमादा हो रहे होते। राम मंदिर बनाने के लिए दुबारा से ईंट लेकर आडवाणी के पीछे हो लिए होते। लेकिन अभी सिर्फ सिर्फ जम्मू जला है तो सिर्फ एक वजह से। आपकी वजह से। क्योंकि आपने जलने की पृष्ठभूमि तैयार की। पहले ज़मीन देकर। फिर वापस लेकर।
जम्मू में कई इलाक़े में कश्मीरी बसे हैं। पंडित और मुसलमान भी। नई नई बस्तियां बसी हैं। एसबेस्टर की और महलनुमा भी। उनके बीच धार्मिक स्थल भी बने हैं। मंदिर भी और मस्ज़िद भी। तब क्यों नहीं स्यापा हुआ। अब क्यों हो रहा है। कम्युनल लाईन पर बात तब क्यों नहीं आयी। अब क्यों आ रही है।
ज़मीन वापस लेने के फैसले के पीछे अगर श्रीनगर के जनांदोलन की दुहाई दी जा रही है तो ये बात किसी से छिपी नहीं है कि कम से कम दो दशक से पूरी घाटी में आंदोलन, हिंसक या अहिंसक, किस बात के लिए हो रहे हैं। भारत से अलग होने के लिए ही ना। तो जनभावना और जनआंदोलन का ख़्याल कर क्यों नहीं खुला छोड़ देते उन्हें। मालूम है धर्मनिरपेक्षों को कि वो इलाका तो चला ही जाए... पूरा देश जूते मारेगा सो अलग। इसलिए उनको बांध के ही सही... साथ रखना है। और वोट मिलता रहे... कुर्सी बची रहे इसले लिए जनभावना की दुहाई देकर चंद अलगाववादियों को खुश रखना है। और ये अगर लोकल पॉलिटिक्स में बने रहने की चालाक रफ्फूगिरी नहीं है तो क्यों कांग्रेस और पीडीपी जैसी सभ्रांत पार्टियों के नेता ज़मीन की लड़ाई में जम्मू के साथ हो लिए हैं। पार्टी लाइन तोड़ रहे है या पार्टी ही छोड़ रहे हैं। इसलिए क्योंकि नहीं हुए तो ज़मीन सूंघ जाएंगे। जो लोकल हीट इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लोकल नेताओं को लोकल स्तर पर हो रहा है वही अगर राष्ट्रीय स्तर पर रास्ट्रीय स्तर के नेताओं को होने लगे तो शायद वो अपना चश्मा उतार फेंके।
ज़मीन देने के ख़िलाफ जब श्रीनगर में आंदोलन शुरु हुआ तो ज़िम्मेदार सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेताओं को ठहराया गया। वहां अगर ये मामला गहरा सांप्रदायिक रंग लेने से बचा तो उन टैक्सी ड्राईवरों और व्यापार करने वालों की वजह से जिनकी रोज़ी रोटी ‘टनल पार’ वालों से चलती है। क्योंकि आपने उनको आज़ादी दी नहीं है इसलिए वो इधर वालों पर आश्रित हैं। इसलिए जहां कहीं भी टनल पार वालों पर पत्थर बरसने की नौबत आयी... वो बचा ले गए... बचा ले जाते हैं। जहां पत्थर बरसे वो कैमरों की निगाह में आ नहीं पाए। अगर कोई भुक्तभोगी मिलेगा तो वही आपको बता पाएगा। क्या क्या हुआ। कैसे वापस आए। लेकिन वहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का शासन है। इसलिए सब कुछ मैनेज कर लिया गया। लेकिन अब वहीं मीरवाइज़ उमर फारुक सेब का ट्रक लेकर एलओसी क्रॉस करने की बात कर रहे हैं। मेहबूबा कहतीं है कि हमें अलग कर दो इतना ही दिक्कत है तो। क्यों भई। बीजेपी के नेता भड़काऊ हैं तो ये आगे आकर क्यों नहीं कहते कि जम्मू के भाई... इतनी सी ज़मीन के लिए इतना बवाल क्यों। ले लो। क्या इससे कश्मीर कम हो जाएगा। नहीं। कश्मीरियत उंची उठ जाएगी। पर वो ऐसा क्यों करें।
दरअसल कश्मीर किसी आज़ादी की लड़ाई का नहीं राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का शिकार रहा है। जिसका एक सिरा पाकिस्तान को खुलता है। ट्रांसफॉर्मर तो बिहार में भी फुंकते हैं। लेकिन ट्रांसफॉमर फुंकने पर भी ‘जीवे जीवे पाकिस्तान... हम क्या मांगे आज़ादी’ के नारे लगते सुने गए हैं। तो इकॉनॉमिक ब्लोकेड पर तो पाकिस्तान की गोद में बैठने डर दिखाना तो ऐसे नेताओं की फितरत का हिस्सा है। कभी इनको एक्सपोज़ करने की बात क्यों नहीं होती। नंगे पंगे को ही रगड़ कर क्यों खुद को सबसे ठीक होने की गलतफहमी पाले हुए हैं। जान लें। गुजरात हो या जम्मू और कश्मीर, धर्म के नाम पर जहां भी राजनीतिक सत्ता पर बने रहने की मंशा होगी... आज न कल ऐसी ही जलती हुई तस्वीर दिखेगी।
जम्मू जलने के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले सावधान। हिन्दुत्व का एक फ्लॉप शो देकर कुंद हो चुकी पार्टी में आप एक नई जान भर रहे हो। इस पार्टी में इतनी कूवत होती तो अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ सिर्फ बयानबाज़ी कर चुप नहीं रह जाती। जनभावना को भड़का कोई जनांदोलन का भ्रम दे पाने जैसी हालत भी पैदा कर पाती तो देश कई जगह जल रहा होता। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर बहक कर लोग बांग्लादेशियों को सीमा पर घसीटने पर आमादा हो रहे होते। राम मंदिर बनाने के लिए दुबारा से ईंट लेकर आडवाणी के पीछे हो लिए होते। लेकिन अभी सिर्फ सिर्फ जम्मू जला है तो सिर्फ एक वजह से। आपकी वजह से। क्योंकि आपने जलने की पृष्ठभूमि तैयार की। पहले ज़मीन देकर। फिर वापस लेकर।
जम्मू जाग जाने का वक्त है
जम्मू जाग जाने का वक्त है। उन लोगों के लिए जिन्होने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सालों साल से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति अपना रखी है। आपको ये लाइनें किसी बीजेपी या विश्व हिन्दू परिषद् के नेता का लग सकती हैं। लेकिन यही सच्चाई नज़र आने लगी है। ख़ास तौर पर उन लोगों को जो रोज़ टीवी पर जम्मू के लोगों को सड़क पर उतरते देख रहे हैं। जो जम्मू की महिलाओं को पहली बार उसी तरह से छाती पीटते देख रहे हैं जैसा अब तक सिर्फ कश्मीर में किसी कस्टोडियल कीलिंग के बाद देखने में आता था। जत्थे के जत्थे लोग। पुलिस, आंसू गैस और गोली से जूझते लोग। आप भी देख रहे हैं।
जो लोग जम्मू की हालत के लिए बीजेपी जैसी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं वो कहीं ना कहीं बीजेपी की मदद करते नज़र आते हैं। एक ऐसी पार्टी जो राम मंदिर के लिए शिला पूजन करा जन भावना को भड़का अयोध्या तक ले गई... वही पार्टी जो हिन्दुत्व का झंडाबरदार बनने का वैसा ही नाटक दूबारा नहीं कर सकी। क्यों। क्योंकि उसका प्रपंच सामने आ गया। फिर वो कभी वो ताक़त नहीं पा सकी। पा सकी होती तो शायद देश में कई जगहों पर वो अपना एजेंडा चला चुकी होती... चला रही होती। गुजरात मोदी के हवाले छोड़ दें तो बाक़ी कहीं हिन्दुत्व फैक्टर बीजेपी के लिए काम करता नज़र नहीं आता। फिर जम्मू में बीजेपी फैक्टर काम कर रहा है तो क्यों।
धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने के थोथे आरोप प्रत्यारोप को अलग रख तक तथ्यात्मक तौर से देखें तो ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा ये जानने में कि जम्मू को जलाने का काम किसने किया... क्यों किया। एक ज़मीन दी गई अमरनाथ श्राईन बोर्ड को। राज्य सरकार का फैसला था। उस सरकार का जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली पार्टियों से बनी थी। कैबिनेट की मंज़ूरी से फैसला होता है। फैसले के पहले या तो किसी ने इसके दूरगामी प्रभाव की गणना नहीं की... या फिर इसके पीछे डोडा, भरदवाह, किश्तवाड़ समेत जम्मू के तमाम... और जम्मू ही क्यों, पूरे देश के हिन्दू तीर्थ यात्रियों के दिल जीतने की मंशा के तहत किया। इस फैसले के बाद जब श्रीनगर जल उठा तो इस फैसले को ग़लत मान लिया गया और बदल दिया गया। सही बात है। जनभावना के सामनों सरकारों को झुक जाना चाहिए। सो वो झुक गई। अब बारी जम्मू की थी। वो सुलगने लगा। नेताओं को लगा ये मोम के बने लोग हैं। जल्द ही पिघल जाएंगे। लेकिन गर्मी इतनी बढ़ गई कि केन्द्र सरकार तक को पसीना आ गया। किसी भी सरकार का जम्मू से ये इस तरह का पहला एक्सोपज़र है। सो समझ नहीं आ रहा क्या करें। सर्वदलीय बैठक कर लिया। चलो सब मिल के चलते हैं। बीजेपी भी चलेगी। जा के क्या करेंगे... शायद पता नहीं। हां... शांति की अपील करेगें। और लोग शांत हो जाएंगे। गोली का डर भी दिखा रहे हैं। फिर ग़लती कर रहे हैं और हिंसा के लिए ज़िम्मेदार जनता पर थोप रहे हैं।
जम्मू वालों के तर्क को कैसे काटेंगे कि क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अगर वहां धारा 370 है तो क्या वो जम्मू में नहीं है। अगर जम्मू है तो वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड को इतना विस्तार कैसे दिया गया। इतनी सुविधाएं क्यों बनने दी गई। सिर्फ इसलिए कि श्रीनगर ने विरोध नहीं किया या फिर विरोध उनके अख़्तियार में ही नहीं था। जहां था वहां किया और फैसला बदलवा लिया। तो अब वैसी कोशिश ही जम्मू कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि वैष्णो देवी और अमरनाथ दोनों भारत में ही है। राज्य के एक इलाक़े के लोगों को आंदोलन के ज़रिए सरकार को झुकाने का हक़ है तो दूसरे इलाक़े के लोगों का ये हक़ कोई कैसे छीन सकता है। ये बहाना मत बनाइए कि ये संवेदशील मामला है। ... जारी
जो लोग जम्मू की हालत के लिए बीजेपी जैसी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं वो कहीं ना कहीं बीजेपी की मदद करते नज़र आते हैं। एक ऐसी पार्टी जो राम मंदिर के लिए शिला पूजन करा जन भावना को भड़का अयोध्या तक ले गई... वही पार्टी जो हिन्दुत्व का झंडाबरदार बनने का वैसा ही नाटक दूबारा नहीं कर सकी। क्यों। क्योंकि उसका प्रपंच सामने आ गया। फिर वो कभी वो ताक़त नहीं पा सकी। पा सकी होती तो शायद देश में कई जगहों पर वो अपना एजेंडा चला चुकी होती... चला रही होती। गुजरात मोदी के हवाले छोड़ दें तो बाक़ी कहीं हिन्दुत्व फैक्टर बीजेपी के लिए काम करता नज़र नहीं आता। फिर जम्मू में बीजेपी फैक्टर काम कर रहा है तो क्यों।
धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने के थोथे आरोप प्रत्यारोप को अलग रख तक तथ्यात्मक तौर से देखें तो ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा ये जानने में कि जम्मू को जलाने का काम किसने किया... क्यों किया। एक ज़मीन दी गई अमरनाथ श्राईन बोर्ड को। राज्य सरकार का फैसला था। उस सरकार का जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली पार्टियों से बनी थी। कैबिनेट की मंज़ूरी से फैसला होता है। फैसले के पहले या तो किसी ने इसके दूरगामी प्रभाव की गणना नहीं की... या फिर इसके पीछे डोडा, भरदवाह, किश्तवाड़ समेत जम्मू के तमाम... और जम्मू ही क्यों, पूरे देश के हिन्दू तीर्थ यात्रियों के दिल जीतने की मंशा के तहत किया। इस फैसले के बाद जब श्रीनगर जल उठा तो इस फैसले को ग़लत मान लिया गया और बदल दिया गया। सही बात है। जनभावना के सामनों सरकारों को झुक जाना चाहिए। सो वो झुक गई। अब बारी जम्मू की थी। वो सुलगने लगा। नेताओं को लगा ये मोम के बने लोग हैं। जल्द ही पिघल जाएंगे। लेकिन गर्मी इतनी बढ़ गई कि केन्द्र सरकार तक को पसीना आ गया। किसी भी सरकार का जम्मू से ये इस तरह का पहला एक्सोपज़र है। सो समझ नहीं आ रहा क्या करें। सर्वदलीय बैठक कर लिया। चलो सब मिल के चलते हैं। बीजेपी भी चलेगी। जा के क्या करेंगे... शायद पता नहीं। हां... शांति की अपील करेगें। और लोग शांत हो जाएंगे। गोली का डर भी दिखा रहे हैं। फिर ग़लती कर रहे हैं और हिंसा के लिए ज़िम्मेदार जनता पर थोप रहे हैं।
जम्मू वालों के तर्क को कैसे काटेंगे कि क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अगर वहां धारा 370 है तो क्या वो जम्मू में नहीं है। अगर जम्मू है तो वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड को इतना विस्तार कैसे दिया गया। इतनी सुविधाएं क्यों बनने दी गई। सिर्फ इसलिए कि श्रीनगर ने विरोध नहीं किया या फिर विरोध उनके अख़्तियार में ही नहीं था। जहां था वहां किया और फैसला बदलवा लिया। तो अब वैसी कोशिश ही जम्मू कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि वैष्णो देवी और अमरनाथ दोनों भारत में ही है। राज्य के एक इलाक़े के लोगों को आंदोलन के ज़रिए सरकार को झुकाने का हक़ है तो दूसरे इलाक़े के लोगों का ये हक़ कोई कैसे छीन सकता है। ये बहाना मत बनाइए कि ये संवेदशील मामला है। ... जारी
Monday, July 28, 2008
“...कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे...”
अहमदाबाद में धमाके की ख़बर आयी उस समय मैं 64 लोदी स्टेट में था। संसद में नोट लहराए जाने के मामले पर गठित कमिटि के चेयरमैन और वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद के सी देव के यहां। धमाका दूर अहमदाबाद में हुआ था लेकिन कुछ ही मिनटों में गूंज दिल्ली में भी सुनाई देगी इस बात का एहसास तो था ही। लिहाज़ा यहां से अपना काम समेट कहीं और चलने की प्रक्रिया में था। तभी बीजेपी दफ्तर से फोन आया। “एबी 97... जी...जी। राजीव प्रताप रुढी जी के यहां।...हां वहीं बाइट देगें...।“ ऐसे मौकों को मन झिड़क देने को करता है। लेकिन धमाकों के बाद प्रतिक्रिया लेने और देने का चलन है। सो चल पड़ा। पहुंच कर कैमरा सजाया ही था कि कहा गया पार्टी अध्यक्ष ही बाइट देगें अपने निवास पर। वहां चलें। हम मशीनी तरीके से चल पड़े। चलने के पहले नोटिस किया कि यहां कई चैनलों को लगातार मॉनीटर किया जा रहा है। दो शख्स लगातार फोन कर चैनलों को बता रहे हैं कि राजनाथ सिंह ने धमाकों की निंदा की है। कहा है देश में असुरक्षा का माहौल है। इसे चला दें। टाइम्स नाउ पर पट्टी चल पड़ी। फोन करने वाले को त्वरित संतुष्टि का अहसास हुआ... “चल गया... चल गया।“ ख़ैर ये उनका काम था सो उन्हें करना था। धमाकों के बीच प्रमुख विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष की चिंता को चैनलों के ज़रिए फैलाना था।
राजनाथ सिंह के घर ओबी वैन पहुंच रहे थे। छ बज कर पैंतालिस मिनट पर पहला धमाका हुआ था। बम अभी फट ही रहे थे। अभी तक सिर्फ 6 लोगों के मरने की जानकारी आयी थी। अपडेट्स लगातार आ रहे थे। लेकिन ये ज़रुरी तो नहीं कि सारा कुछ देख लेने के बाद ही नेता अपनी प्रतिक्रिया दें। मज़ाक की बात थोड़े ही है। आपको हमको भी तो इंतज़ार रहता है कि देश दुनिया को बताएं कि अमुक अमुक पार्टी के अमुक अमुक नेता क्या कर रहे हैं... क्या कह रहे हैं... जब देश में बम फट रहे हैं। सो ऐसे में पहली प्रतिक्रिया की अपनी वैल्यू है।
10 मिनट के अंदर 16 कैमरे और 6 ओबी वैन्स पहुंच चुके थे। तभी जानकारी मिली की मामला बड़ा हो गया है। लालकृष्ण आडवाणी खुद मीडिया से बात करेंगे। वहां पहुंचें। मैंने अपने साथियों को रोका। कहा पहले यहां सुन लें फिर वहां चलेगें। कैमरे सज चुके थे। ओबी सिग्नल भी ट्रैक हो चुके थे। सो सभी ने हामी भर दी। अंदर जानकारी भेजी गई कि अगर आडवाणी जी बोल गए तो राजनाथ सिंह जी की कौन सुनेगा। बात शायद क्लिक कर गई। राजनाथ सिंह जी सवा आठ से आठ मिनट पहले ही कैमरे के सामने प्रकट हो गए। वही बातें कि जो पार्टी अक्सर करती रहती है। ...आंतकवाद की कड़े से कड़े शब्दों में निंदा और पोटा जैसे कानून की मांग। अफज़ल को फांसी पर क्यों नहीं लटकाया अब तक...। सरकार के निकम्मेपन पर विपक्ष की ये लाठी असल में पानी पर पड़ती नज़र आती है। चलिए। इनको सुन लिया। लाइव कट गया। इनका बयान ख़त्म होते होते उधर आडवाणी भी शुरु हो चुके थे। वहां से फोन पर लाइव लिए जा रहे थे। उन्होने प्रतिक्रिया देने का फैसला इतना त्वरित लिया था कि बहुतों की ओबी नहीं पहुंच पायी थी।
इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। सत्ता पक्ष का पहलू। ये भी धमाके के तुरंत बाद ही शुरु हो जाता है। मैंने अपने सहयोगी शारिक ख़ान को गृह राज्यमंत्री शकील अहमद को ट्रैक करने का अनुरोध किया था। शारिक का फोन आया कि वो कहीं मयूर विहार में बैठे हैं जहां हमें नहीं बुला सकते। हां फोनो दे सकते हैं सो मैंने ऑफिस को नंबर लिखा दिया है। शकील अहमद साहब ऑन एयर थे। हर बात पर बात करने को तैयार दूसरे गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल कानपुर में थे। कुछ चैनलों ने उनको वहीं ढूंढ निकाला। वे भी बोल रहे थे। ऐसे मौके पर राजनीति नहीं करने की अपील कर रहे थे। इस तरह का बयान कोई पहली बार सुन रहा होता तो शायद अच्छा लगता। कि देखो सत्ता में इतना उंचा उठा नेता राजनीति नहीं करने की बात कर रहा है। लेकिन ऐसा हमेशा होता है। ख़ासतौर पर जब बम बीजेपी शासित राज्य में फटा हो। सरकार की तरफ से बयान आता है कि۔..."लॉ एंड आर्डर राज्य की ज़िम्मेदारी है।... हमने उनके एक दो तीन पहले ही बता दिया था कि ऐसा कुछ होने वाला है। ये उनकी चूक है।... हम हर मदद देने को तैयार हैं।"
अब तक कैमरा माननीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल जी के घर भी घूम चुका है। कहीं बाहर से आ रहे हैं। वो आते हैं। फटाफट बैठक करते हैं। अब मीडिया से मुख़ातिब हैं। “...किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा...।“ उनको भी पता है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनके ही कार्यकाल में कम से एक दर्जन ऐसे सीरियल ब्लास्ट्स हुए हैं। हर बार आतंकियों को पकड़ सज़ा देने का बात हुई है। एक्का दुक्का पकड़ा गया तो पकड़ा गया नहीं तो हुजी, सिमी, लश्कर जैसे संगठनों का नाम सामने रख कार्रवाई पूरी मान ली गई है। अगर नहीं मानी जाती तो शायद इन्हें एक बार और ऐसा वादा या दावा नहीं करना पड़ता जिसका खोखलापन साफ उजागर होता है।
एक सख्त कानून की मांग करता है। मतलब कि धमाके तो होंगे ही... कहीं ना कहीं वो ये मान कर चल रहा है। उसके बाद पकड़ने और सज़ा देने के लिए कड़ा कानून चाहिए। दूसरा एफबीआई जैसी एजेंसी का झांसा दे रहा है। कई साल बनने में लग जाएगें। अभी तो सिर से उतारो। सुरक्षा के लिए हरेक के पीछे एक पुलिस वाला नहीं लगा सकते। ये हम आप सभी जानते हैं। लेकिन आंतरिक सुरक्षा के लिए ज़रुरी ख़ुफिया तंत्र को क्यों लकवा मार गया है। 17 धमाकों के पीछे लगे आतंकियों ने फोन, ईमेल या बैठकी के ज़रिए आपस में संवाद किया होगा। आपकी नज़र से ये सब क्यों छूट जाता है। क्या मुख़बिर नहीं हैं या सोर्स मनी कम पड़ गया है। कुछ बेसिक्स पर विचारिए। एक दूसरे पर दोषारोपण तो राजनीति का स्वभाविक चरित्र है। लेकिन ज़रूरी नहीं कि मामले की गंभीरता का एहसास तभी हो जब अपने घर का कोई इसका शिकार हो। तब शायद आप ये कह पाने की हालत में नहीं होगे कि…” हम कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे...”
राजनाथ सिंह के घर ओबी वैन पहुंच रहे थे। छ बज कर पैंतालिस मिनट पर पहला धमाका हुआ था। बम अभी फट ही रहे थे। अभी तक सिर्फ 6 लोगों के मरने की जानकारी आयी थी। अपडेट्स लगातार आ रहे थे। लेकिन ये ज़रुरी तो नहीं कि सारा कुछ देख लेने के बाद ही नेता अपनी प्रतिक्रिया दें। मज़ाक की बात थोड़े ही है। आपको हमको भी तो इंतज़ार रहता है कि देश दुनिया को बताएं कि अमुक अमुक पार्टी के अमुक अमुक नेता क्या कर रहे हैं... क्या कह रहे हैं... जब देश में बम फट रहे हैं। सो ऐसे में पहली प्रतिक्रिया की अपनी वैल्यू है।
10 मिनट के अंदर 16 कैमरे और 6 ओबी वैन्स पहुंच चुके थे। तभी जानकारी मिली की मामला बड़ा हो गया है। लालकृष्ण आडवाणी खुद मीडिया से बात करेंगे। वहां पहुंचें। मैंने अपने साथियों को रोका। कहा पहले यहां सुन लें फिर वहां चलेगें। कैमरे सज चुके थे। ओबी सिग्नल भी ट्रैक हो चुके थे। सो सभी ने हामी भर दी। अंदर जानकारी भेजी गई कि अगर आडवाणी जी बोल गए तो राजनाथ सिंह जी की कौन सुनेगा। बात शायद क्लिक कर गई। राजनाथ सिंह जी सवा आठ से आठ मिनट पहले ही कैमरे के सामने प्रकट हो गए। वही बातें कि जो पार्टी अक्सर करती रहती है। ...आंतकवाद की कड़े से कड़े शब्दों में निंदा और पोटा जैसे कानून की मांग। अफज़ल को फांसी पर क्यों नहीं लटकाया अब तक...। सरकार के निकम्मेपन पर विपक्ष की ये लाठी असल में पानी पर पड़ती नज़र आती है। चलिए। इनको सुन लिया। लाइव कट गया। इनका बयान ख़त्म होते होते उधर आडवाणी भी शुरु हो चुके थे। वहां से फोन पर लाइव लिए जा रहे थे। उन्होने प्रतिक्रिया देने का फैसला इतना त्वरित लिया था कि बहुतों की ओबी नहीं पहुंच पायी थी।
इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। सत्ता पक्ष का पहलू। ये भी धमाके के तुरंत बाद ही शुरु हो जाता है। मैंने अपने सहयोगी शारिक ख़ान को गृह राज्यमंत्री शकील अहमद को ट्रैक करने का अनुरोध किया था। शारिक का फोन आया कि वो कहीं मयूर विहार में बैठे हैं जहां हमें नहीं बुला सकते। हां फोनो दे सकते हैं सो मैंने ऑफिस को नंबर लिखा दिया है। शकील अहमद साहब ऑन एयर थे। हर बात पर बात करने को तैयार दूसरे गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल कानपुर में थे। कुछ चैनलों ने उनको वहीं ढूंढ निकाला। वे भी बोल रहे थे। ऐसे मौके पर राजनीति नहीं करने की अपील कर रहे थे। इस तरह का बयान कोई पहली बार सुन रहा होता तो शायद अच्छा लगता। कि देखो सत्ता में इतना उंचा उठा नेता राजनीति नहीं करने की बात कर रहा है। लेकिन ऐसा हमेशा होता है। ख़ासतौर पर जब बम बीजेपी शासित राज्य में फटा हो। सरकार की तरफ से बयान आता है कि۔..."लॉ एंड आर्डर राज्य की ज़िम्मेदारी है।... हमने उनके एक दो तीन पहले ही बता दिया था कि ऐसा कुछ होने वाला है। ये उनकी चूक है।... हम हर मदद देने को तैयार हैं।"
अब तक कैमरा माननीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल जी के घर भी घूम चुका है। कहीं बाहर से आ रहे हैं। वो आते हैं। फटाफट बैठक करते हैं। अब मीडिया से मुख़ातिब हैं। “...किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा...।“ उनको भी पता है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनके ही कार्यकाल में कम से एक दर्जन ऐसे सीरियल ब्लास्ट्स हुए हैं। हर बार आतंकियों को पकड़ सज़ा देने का बात हुई है। एक्का दुक्का पकड़ा गया तो पकड़ा गया नहीं तो हुजी, सिमी, लश्कर जैसे संगठनों का नाम सामने रख कार्रवाई पूरी मान ली गई है। अगर नहीं मानी जाती तो शायद इन्हें एक बार और ऐसा वादा या दावा नहीं करना पड़ता जिसका खोखलापन साफ उजागर होता है।
एक सख्त कानून की मांग करता है। मतलब कि धमाके तो होंगे ही... कहीं ना कहीं वो ये मान कर चल रहा है। उसके बाद पकड़ने और सज़ा देने के लिए कड़ा कानून चाहिए। दूसरा एफबीआई जैसी एजेंसी का झांसा दे रहा है। कई साल बनने में लग जाएगें। अभी तो सिर से उतारो। सुरक्षा के लिए हरेक के पीछे एक पुलिस वाला नहीं लगा सकते। ये हम आप सभी जानते हैं। लेकिन आंतरिक सुरक्षा के लिए ज़रुरी ख़ुफिया तंत्र को क्यों लकवा मार गया है। 17 धमाकों के पीछे लगे आतंकियों ने फोन, ईमेल या बैठकी के ज़रिए आपस में संवाद किया होगा। आपकी नज़र से ये सब क्यों छूट जाता है। क्या मुख़बिर नहीं हैं या सोर्स मनी कम पड़ गया है। कुछ बेसिक्स पर विचारिए। एक दूसरे पर दोषारोपण तो राजनीति का स्वभाविक चरित्र है। लेकिन ज़रूरी नहीं कि मामले की गंभीरता का एहसास तभी हो जब अपने घर का कोई इसका शिकार हो। तब शायद आप ये कह पाने की हालत में नहीं होगे कि…” हम कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे...”
Friday, June 27, 2008
नवाज़ के सामने की मुश्किलें
"मुशर्रफ़ के शिकस्ते-फाश के लिए ज़रुरी हुआ तो पीपीपी के साथ मिल कर भी सरकार बनाएंगे”… बेनज़ीर की हत्या के बाद लाहौर के रायविंड स्थित अपने आवास पर नवाज़ शरीफ ने मुझसे यही कहा था। मिलीजुली सरकार की बात उन्होने पहली बार की थी लेकिन गठबंधन की राजनीति का आगाज़ करने के बाद भी मियां नवाज़ शरीफ अपने मक़सद में अब तक क़ामयाब नहीं हो पाए हैं। उल्टे लाहौर हाईकोर्ट ने उप-चुनाव में खड़े होने के अयोग्य ठहरा कर उनकी राजनीतिक मुश्कलें और बढ़ा दी हैं। हालांकि पीपीपी सरकार ने अपने नाराज़ सहयोगी को राहत पहुंचाने की कोशिश के तहत चुनाव आयोग को निर्देश दे दिए कि उप-चुनाव की तारीख़ टाल दी जाए। नवाज़ शरीफ संसदीय चुनाव लड़ पाएगें या नहीं अब ये फैसला सुप्रीम कोर्ट में है जहां पीसीओ के तहत बहाल जज बैठे हैं। यानि इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने जिन जजों की नियुक्ति की वे जज। नवाज़ शरीफ लगातार मांग करते रहे हैं कि पीसीओ के पहले के जजों की बहाली की जाए जिनमें चीफ जस्टिस इफ्तिख़ार मोहम्मद चौधरी भी शामिल है। मुशर्रफ और उनके तानाशाही फैसलों की मुखालफत करने वाले इन जजों की बहाली का एक मतलब होता है पीसीओ के तहत बहाल जजों को हटाना। और इस तरह से देखें तो सुप्रीम कोर्ट से भी नवाज़ शरीफ को चुनाव लड़ने के मामले में ज़्यादा राहत की उम्मीद नहीं होगी।
मुशर्रफ ने जब नवाज़ शरीफ का तख़्ता पलट मुल्क की बागडोर अपने हाथ में ली तो उन्होने नवाज़ शरीफ को क़ैद की बजाय निर्वासित कर दिया। इन शर्तों के साथ कि वो दस साल तक देश वापस नहीं लौटेंगे और चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें। अमेरिका के दबाव में बेनज़ीर की वापसी के बाद सऊदी अरब ने भी मुशर्रफ पर दबाव डाला और इस तरह से नवाज़ शरीफ की वापसी तक़रीबन आठ साल बाद संभव हो पायी। लेकिन चुनाव लड़ने का मामला कानूनी दांव पेंच में फंसा हुआ है। नई सरकार मुशर्रफ को हटाने का अपना वादा अभी तक पूरा नहीं कर पायी है और इस मुद्दे पर सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे दिला कर नवाज़ शरीफ ने दूरगामी राजनीतिक चाल चली है। इससे वो उन लोगों को अपने साथ कर पाने में क़ामयाब रहे हैं जो पहले इसी मुद्दे पर पीपीपी के साथ थे। कहने के मतलब कि उनका वोट बैंक दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है। हालांकि नवाज़ शरीफ को लगता है कि अभी दूबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो पीपीपी सरकार को बाहर से समर्थन जारी रखे हुए हैं। जिस दिन उन्होने समर्थन खींचा सरकार की बुनियाद हिल जाएगी। ऐसी सूरत में नवाज़ शरीफ अपनी पार्टी पीएमएल एन को बड़ी क़ामयाबी की ओर ले तो जा सकते हैं लेकिन संसद के भीतर खुद उसका नेतृत्व नहीं कर सकते। कहते हैं कि दुश्मनी के हथियार दोस्ती के समय ही इकठ्ठे किए जाते हैं। आज के दोस्त नवाज़ कल को अगर चुनाव मैदान में पीपीपी को ललकारते हैं... और जो कि आज न कल होगा ही... तो ऐसे में पीपीपी के पास बेहतर विकल्प यही है कि वो नवाज़ शरीफ की चुनावी उम्मीदवारी की संभावना को लटकता छोड़ कर ही रखे। मुशर्रफ के साथ उनका बने उनके ‘वर्किंग रिलेशन’ को भी यही मुफ़ीद बैठता है।
इधर एक दिलचस्प बात ये हुई है कि पहली बार अमेरिका की तरफ से ये कहा गया है कि मुशर्रफ ने अपने आठ साल के शासनकाल में ‘कई ग़लतियां’ की हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कॉडालिज़ा राइस ने एक इंटरव्यू में ये बात कहते हुए हालांकि ये जोड़ दिया कि आतंक के खिलाफ की लड़ाई में मुशर्रफ बेहतरीन सहयोगी रहे हैं। लिहाज़ा मुशर्रफ की ग़लतियों वाले रायस के बयान से मुशर्रफ की कमज़ोर पड़ती हालत से का अंदाज़ा न भी लगाएं तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि अमेरिकी भी पाकिस्तान में करवट लेती राजनीतिक व्यवस्था को देख और महसूस कर रहा है। वो झटके से मुशर्रफ का हाथ नहीं छोड़ सकता लेकिन अमेरिका की पाकिस्तान में दिलचस्पी मुशर्रफ के अस्तित्व से कहीं आगे तक जाती है। एक तरफ लोकतंत्र का हिमायती बन वो दूसरी तरफ पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार को एक तानाशाह के साथ चलते रहने के लिए लंबे समय तक दबाव नहीं डाल सकता। हो सकता है कि वो मुशर्रफ का साथ तभी तक दे जब तक वे नई सरकार से पाकिस्तान में अपनी मनमाफिक सुविधाएं और पैठ हासिल न कर ले। घरेलु राजनीति का दबाव अगर ज़रदारी को बाध्य करता है कि वो मुशर्रफ को हटाएं... तो वो मुशर्रफ को समर्थन वाली अमेरिकी मंशा के खिलाफ खड़ा होने की बजाय अमेरिका के साथ मुशर्रफ के खिलाफ खड़ा होना पसंद करेंगे। लेकिन यहां भी पेंच नवाज़ शरीफ को लेकर है जो अमेरिका के कहे मुताबिक चलने को कभी तैयार नहीं होगें। कुल मिला कर पाकिस्तान की उलझी राजनीति का सिरा सुलझाने, मुश्किलों से पार पाने और असल जम्हूरियत लाने में नवाज़ शरीफ को अभी लंबा वक्त लगेगा.
मुशर्रफ ने जब नवाज़ शरीफ का तख़्ता पलट मुल्क की बागडोर अपने हाथ में ली तो उन्होने नवाज़ शरीफ को क़ैद की बजाय निर्वासित कर दिया। इन शर्तों के साथ कि वो दस साल तक देश वापस नहीं लौटेंगे और चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें। अमेरिका के दबाव में बेनज़ीर की वापसी के बाद सऊदी अरब ने भी मुशर्रफ पर दबाव डाला और इस तरह से नवाज़ शरीफ की वापसी तक़रीबन आठ साल बाद संभव हो पायी। लेकिन चुनाव लड़ने का मामला कानूनी दांव पेंच में फंसा हुआ है। नई सरकार मुशर्रफ को हटाने का अपना वादा अभी तक पूरा नहीं कर पायी है और इस मुद्दे पर सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे दिला कर नवाज़ शरीफ ने दूरगामी राजनीतिक चाल चली है। इससे वो उन लोगों को अपने साथ कर पाने में क़ामयाब रहे हैं जो पहले इसी मुद्दे पर पीपीपी के साथ थे। कहने के मतलब कि उनका वोट बैंक दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है। हालांकि नवाज़ शरीफ को लगता है कि अभी दूबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो पीपीपी सरकार को बाहर से समर्थन जारी रखे हुए हैं। जिस दिन उन्होने समर्थन खींचा सरकार की बुनियाद हिल जाएगी। ऐसी सूरत में नवाज़ शरीफ अपनी पार्टी पीएमएल एन को बड़ी क़ामयाबी की ओर ले तो जा सकते हैं लेकिन संसद के भीतर खुद उसका नेतृत्व नहीं कर सकते। कहते हैं कि दुश्मनी के हथियार दोस्ती के समय ही इकठ्ठे किए जाते हैं। आज के दोस्त नवाज़ कल को अगर चुनाव मैदान में पीपीपी को ललकारते हैं... और जो कि आज न कल होगा ही... तो ऐसे में पीपीपी के पास बेहतर विकल्प यही है कि वो नवाज़ शरीफ की चुनावी उम्मीदवारी की संभावना को लटकता छोड़ कर ही रखे। मुशर्रफ के साथ उनका बने उनके ‘वर्किंग रिलेशन’ को भी यही मुफ़ीद बैठता है।
इधर एक दिलचस्प बात ये हुई है कि पहली बार अमेरिका की तरफ से ये कहा गया है कि मुशर्रफ ने अपने आठ साल के शासनकाल में ‘कई ग़लतियां’ की हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कॉडालिज़ा राइस ने एक इंटरव्यू में ये बात कहते हुए हालांकि ये जोड़ दिया कि आतंक के खिलाफ की लड़ाई में मुशर्रफ बेहतरीन सहयोगी रहे हैं। लिहाज़ा मुशर्रफ की ग़लतियों वाले रायस के बयान से मुशर्रफ की कमज़ोर पड़ती हालत से का अंदाज़ा न भी लगाएं तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि अमेरिकी भी पाकिस्तान में करवट लेती राजनीतिक व्यवस्था को देख और महसूस कर रहा है। वो झटके से मुशर्रफ का हाथ नहीं छोड़ सकता लेकिन अमेरिका की पाकिस्तान में दिलचस्पी मुशर्रफ के अस्तित्व से कहीं आगे तक जाती है। एक तरफ लोकतंत्र का हिमायती बन वो दूसरी तरफ पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार को एक तानाशाह के साथ चलते रहने के लिए लंबे समय तक दबाव नहीं डाल सकता। हो सकता है कि वो मुशर्रफ का साथ तभी तक दे जब तक वे नई सरकार से पाकिस्तान में अपनी मनमाफिक सुविधाएं और पैठ हासिल न कर ले। घरेलु राजनीति का दबाव अगर ज़रदारी को बाध्य करता है कि वो मुशर्रफ को हटाएं... तो वो मुशर्रफ को समर्थन वाली अमेरिकी मंशा के खिलाफ खड़ा होने की बजाय अमेरिका के साथ मुशर्रफ के खिलाफ खड़ा होना पसंद करेंगे। लेकिन यहां भी पेंच नवाज़ शरीफ को लेकर है जो अमेरिका के कहे मुताबिक चलने को कभी तैयार नहीं होगें। कुल मिला कर पाकिस्तान की उलझी राजनीति का सिरा सुलझाने, मुश्किलों से पार पाने और असल जम्हूरियत लाने में नवाज़ शरीफ को अभी लंबा वक्त लगेगा.
Wednesday, June 25, 2008
क्या श्रीनगर में लड़कियां नहीं रहतीं!
अगर आप फेसबुक नामके सामाजिक बंधन या संगठन(?) को जानते हैं तो आप ये भी जानते होगें कि किसी के होमटाऊन के रुप में अंकित शहर पर क्लिक कर आप उस शहर के उन तमाम लोगों तक पहुंच सकते हैं जिन्होंने अपने फेसबुक प्रोफ़ाईल में ईमानदारी से इस शहर का नाम लिखा हो। फेसबुक पर बने अपने एक ऐसे ही मेरे मित्र के होमटाऊन के ज़रिए जब मैंने उन बाक़ी शौकिनों सामाजिक प्राणियों को जानने की कोशिश की, जो इस ख़ूबसूरत शहर को अपना होमटाऊन कहते हैं, तो तक़रीबन 500 लोगों की सूची मेरे सामने आयी। इनमें रॉयटर्स के अनुभवी कैमरामैन फयाज़ काबली भी मिले... जिनके साथ मैंने 2000-02 में ख़ूब काम किया और जिनके साथ वो ख़ौफनाक यादें भी जुड़ीं हैं जब आदूश होटेल की चहारदीवारी के साथ किए गए आतंकी विस्फोट में एच टी के छायाकार प्रदीप भाटिया जी की जान गई (फ़याज़ इसके चश्मदीदों में एक रहे और ख़ुशकिस्मती से ज़िंदा भी क्योंकि वो भी वहीं फोटोग्राफी कर रहे थे).... और आसिम उमर जैसे नौजवान भी जिनको मैं बिल्कुल ही नहीं जानता....
लेकिन हैरत की बात है कि यहां किसी भी ऐसी लड़की का प्रोफ़ाईल नहीं मिला जो अपना होमटाऊन श्रीनगर बताती हो! ऐसा कैसे हो सकता है! क्या इस ख़ूबसूरत शहर में रहने वाली कोई भी ऐसी नहीं है जिसे फेसबुक के बारे में पता ना हो... या उन में से किसी ने अपना प्रोफ़ाइल यहां ना बनाया हो... ! दोनों ही बातें मुश्किल लगती हैं। इंटरनेट कैफे की भरमार वाले इस शहर में ज़रूर दो चार पांच तो ऐसी होगीं ही जिन्हें इंटरनेट सामाजिकता के ऐसे बंधन में अपने बांधने की इच्छा होगी। मेरा होमटाऊन मधुबनी है जो 'बिहार में भी बहुत पिछड़ा' माना जाता है। यहां के क़रीब तीस प्रोफाइल में आपको पांच-सात लड़कियां तो मिल ही जाएंगी... लेकिन श्रीनगर में नहीं!
अब या तो ये इस शहर (या इस राज्य) के माहौल की मजबूरी है... या फिर आतंकी ख़तरों से जूझ रहे इस शहर से अपनी पहचान जोड़े बिना बाक़ी दुनिया से जुड़ने की ललक... ऐसी कोई भी नहीं मिलेगी आपको जो फेसबुक पर स्वीकार रही हो कि हां वो श्रीनगर से हैं। यहां की दर्जनों ऐसी लड़कियां होगीं जो फेसबुक पर होंगी। लेकिन होमटाऊन के रुप में श्रीनगर शहर नहीं डालने के पीछे ज़रूर 'दुखतराने मिल्लत' जैसी कट्टरपंथी संगठनों का डर होगा... जिसकी नज़र में लड़कियों/महिलाओं का ब्यूटी पार्लर तक जाना गुनाह है... या फिर लश्करे जब्बार जैसे किसी आतंकी संगठन का... जिन्होने गोनी खान मार्केट के एक पार्लर में बुर्का नहीं पहनने वाली और एक महिला की टांग में गोली मार दी थी...! पर इतना तो तय है फेसबुक पर श्रीनगर की ख़वातीनों के नहीं होने का मतलब ये नहीं कि श्रीनगर में लड़कियां होती ही नहीं!
लेकिन हैरत की बात है कि यहां किसी भी ऐसी लड़की का प्रोफ़ाईल नहीं मिला जो अपना होमटाऊन श्रीनगर बताती हो! ऐसा कैसे हो सकता है! क्या इस ख़ूबसूरत शहर में रहने वाली कोई भी ऐसी नहीं है जिसे फेसबुक के बारे में पता ना हो... या उन में से किसी ने अपना प्रोफ़ाइल यहां ना बनाया हो... ! दोनों ही बातें मुश्किल लगती हैं। इंटरनेट कैफे की भरमार वाले इस शहर में ज़रूर दो चार पांच तो ऐसी होगीं ही जिन्हें इंटरनेट सामाजिकता के ऐसे बंधन में अपने बांधने की इच्छा होगी। मेरा होमटाऊन मधुबनी है जो 'बिहार में भी बहुत पिछड़ा' माना जाता है। यहां के क़रीब तीस प्रोफाइल में आपको पांच-सात लड़कियां तो मिल ही जाएंगी... लेकिन श्रीनगर में नहीं!
अब या तो ये इस शहर (या इस राज्य) के माहौल की मजबूरी है... या फिर आतंकी ख़तरों से जूझ रहे इस शहर से अपनी पहचान जोड़े बिना बाक़ी दुनिया से जुड़ने की ललक... ऐसी कोई भी नहीं मिलेगी आपको जो फेसबुक पर स्वीकार रही हो कि हां वो श्रीनगर से हैं। यहां की दर्जनों ऐसी लड़कियां होगीं जो फेसबुक पर होंगी। लेकिन होमटाऊन के रुप में श्रीनगर शहर नहीं डालने के पीछे ज़रूर 'दुखतराने मिल्लत' जैसी कट्टरपंथी संगठनों का डर होगा... जिसकी नज़र में लड़कियों/महिलाओं का ब्यूटी पार्लर तक जाना गुनाह है... या फिर लश्करे जब्बार जैसे किसी आतंकी संगठन का... जिन्होने गोनी खान मार्केट के एक पार्लर में बुर्का नहीं पहनने वाली और एक महिला की टांग में गोली मार दी थी...! पर इतना तो तय है फेसबुक पर श्रीनगर की ख़वातीनों के नहीं होने का मतलब ये नहीं कि श्रीनगर में लड़कियां होती ही नहीं!
Wednesday, June 11, 2008
सॉरी, साईं बाबा की बाइट मिस हो गई!
साईं बाबा बोल रहे थे। साक्षात। भक्त जनों को संबोधित कर रहे थे। वो दीवार से टिक कर खड़े थे। उनके दो सहयोगी उनके साथ थे। इस फ्रेम में थ्री-शॉट था। सिर्फ बाबा बोल रहे थे। बाक़ी दोनों खामोश थे। शरीर में कोई हरकत भी नहीं हो रही थी। साईं बाबा के भी सिर्फ होठ हिल रहे थे। बाक़ी पूरा फ्रेम फिक्स था। किसी चैनल का गन-माइक भी नज़र नहीं आ रहा था। ना ही बाबा के कुरते से झांकता लेपल माइक ही। पर बाबा बोल रहे थे। शायद कैमरा माइक पर। एक बाइट टाइट-फ्रेम में भी थी। अस्सी साल पहले तब टेक्नोलॉजी इतनी विकसित नहीं हुई थी। ना ही टीवी पत्रकारिता इस मुकाम पर पहुंची थी। तब बाइट लेने वाले को शायद साई बाबा की बाइट की अहमियत भी नहीं पता होगी। कोई स्ट्रिंगर टाईप रहा होगा। बाबा मिल गए तो ले लिया होगा। बिना किसी चैनल आइडी के। किस मीडिया हाउस के के काम आ जाए पता नहीं। सो आरकाइब कर लिया होगा।
अस्सी साल बाद ये टेप बाहर आया। इन अस्सी सालों में दुनिया ने बहुत तरक्की की। ख़ास तौर पर पिछले कुछ सालों में इंडिया में टीवी ने पत्रकारिता में कई झंडे गाड़े हैं। ख़बर को नीरस और उबाऊ होने से बचाया है। जितनी तरक्की प्रसारण तकनीकी में हुई है उससे कहीं ज़्यादा इन तकनीकी वरदानों को निर्देशित करने वालों का मानसिक परिष्करण हुआ है। यही वजह है कि अस्सी साल से धूल खा रहा साईं बाबा की बाइट वाला टेप बाहर निकल पाया। इंवेस्टिगेटिव कैटेगरी की पत्रकारिता भी इसे कह सकते हैं। इसी खोजबीन के बूते भक्त बाबा को बोलते हुए देख-सुन पाए। ये अलग बात है कि पहले इसे दिखा कर श्रद्धा और सबुरी से भरे दर्शकों का ध्यान खींचा। फिर थोड़ी देर बाद में इस टेप को ग़लत बताने लगे। अच्छा हुआ जल्द पता चल गया। नहीं तो कई दूसरे चैनलों के रिपोर्टरों की तो बस वाट लगने वाली थी। उनसे पूछा जाता कि तुम्हारे पुरखे क्या कर रहे थे जब बाबा बाईट दे रहे थे। वो वहां क्यों नहीं थे। क्या उनका पुश्तैनी पेशा कुछ और था... तो तुम इस पेशे में क्या कर रहे हो। जाओ। जहां से भी बाबा की बाईट लेकर आओ। नहीं तो दफा हो जाओ।
हालांकि ट्रांसफर टेक्नीलॉजी ने तेज़ी से अपनी जगह बना ली है। मेरे जैसे कई रिपोर्टर अब कई बार एक टेप लेकर शूट पर निकल पड़ते हैं। कैमरे की चिंता नहीं होती। अपने श्रमजीवी पत्रकार मित्र मंडली में कम से कम दो तो ऐसे मिल ही जाते हैं कि एक के कैमरे में टेप डाल दूसरे से ट्रांसफर ले लें। झंझट तब होता है जब किसी के सिंगल माइक पर बाइट हो। लेकिन बाबा की बाइट में ये समस्या भी नहीं थी। कोई आईडी थी ही नहीं। सो किसी को भी आराम से ट्रांसफर मिल जाता। वैसे भी ये आस्था को बेचने का मामला था। सो कोई एक्सक्लुसिव होने का भ्रम नहीं दे सकता था। जो जिस हिसाब से चलाना चाहते... चला सकते थे। चलाया भी। इस ख़बर से जैसे खेल सकते थे... खेला भी। ये तो अच्छा हुआ कि जिस मार्फिंग को उच्च पदस्थ पत्रकारों की पारखी नज़र नहीं पकड़ पायी उसे कंम्प्यूटर तकनीकी के कुछ जानकारों ने पकड़ा। फिर संपादकीय फैसले और एंकरों के प्रभावशाली हावभावों के ज़रिए आस्थावान दर्शको को बताया कि वो इस चक्कर में ना पड़ें। ना ही अपनी आस्था पर कोई चोट लगा महसूस करें। ये कोई अस्सी साल पहले रिकार्ड की गई साई बाबा की बाइट नहीं। कम्प्यूटर की कलाकारी का कमाल है। मिल गया तो दिखा दिया। जब रामायण काल में पुष्पक विमान सर्विस में था... तो 1920 के दशक में कैमरा-बाइट का होना इतनी अजीब बात भी तो नहीं!
अस्सी साल बाद ये टेप बाहर आया। इन अस्सी सालों में दुनिया ने बहुत तरक्की की। ख़ास तौर पर पिछले कुछ सालों में इंडिया में टीवी ने पत्रकारिता में कई झंडे गाड़े हैं। ख़बर को नीरस और उबाऊ होने से बचाया है। जितनी तरक्की प्रसारण तकनीकी में हुई है उससे कहीं ज़्यादा इन तकनीकी वरदानों को निर्देशित करने वालों का मानसिक परिष्करण हुआ है। यही वजह है कि अस्सी साल से धूल खा रहा साईं बाबा की बाइट वाला टेप बाहर निकल पाया। इंवेस्टिगेटिव कैटेगरी की पत्रकारिता भी इसे कह सकते हैं। इसी खोजबीन के बूते भक्त बाबा को बोलते हुए देख-सुन पाए। ये अलग बात है कि पहले इसे दिखा कर श्रद्धा और सबुरी से भरे दर्शकों का ध्यान खींचा। फिर थोड़ी देर बाद में इस टेप को ग़लत बताने लगे। अच्छा हुआ जल्द पता चल गया। नहीं तो कई दूसरे चैनलों के रिपोर्टरों की तो बस वाट लगने वाली थी। उनसे पूछा जाता कि तुम्हारे पुरखे क्या कर रहे थे जब बाबा बाईट दे रहे थे। वो वहां क्यों नहीं थे। क्या उनका पुश्तैनी पेशा कुछ और था... तो तुम इस पेशे में क्या कर रहे हो। जाओ। जहां से भी बाबा की बाईट लेकर आओ। नहीं तो दफा हो जाओ।
हालांकि ट्रांसफर टेक्नीलॉजी ने तेज़ी से अपनी जगह बना ली है। मेरे जैसे कई रिपोर्टर अब कई बार एक टेप लेकर शूट पर निकल पड़ते हैं। कैमरे की चिंता नहीं होती। अपने श्रमजीवी पत्रकार मित्र मंडली में कम से कम दो तो ऐसे मिल ही जाते हैं कि एक के कैमरे में टेप डाल दूसरे से ट्रांसफर ले लें। झंझट तब होता है जब किसी के सिंगल माइक पर बाइट हो। लेकिन बाबा की बाइट में ये समस्या भी नहीं थी। कोई आईडी थी ही नहीं। सो किसी को भी आराम से ट्रांसफर मिल जाता। वैसे भी ये आस्था को बेचने का मामला था। सो कोई एक्सक्लुसिव होने का भ्रम नहीं दे सकता था। जो जिस हिसाब से चलाना चाहते... चला सकते थे। चलाया भी। इस ख़बर से जैसे खेल सकते थे... खेला भी। ये तो अच्छा हुआ कि जिस मार्फिंग को उच्च पदस्थ पत्रकारों की पारखी नज़र नहीं पकड़ पायी उसे कंम्प्यूटर तकनीकी के कुछ जानकारों ने पकड़ा। फिर संपादकीय फैसले और एंकरों के प्रभावशाली हावभावों के ज़रिए आस्थावान दर्शको को बताया कि वो इस चक्कर में ना पड़ें। ना ही अपनी आस्था पर कोई चोट लगा महसूस करें। ये कोई अस्सी साल पहले रिकार्ड की गई साई बाबा की बाइट नहीं। कम्प्यूटर की कलाकारी का कमाल है। मिल गया तो दिखा दिया। जब रामायण काल में पुष्पक विमान सर्विस में था... तो 1920 के दशक में कैमरा-बाइट का होना इतनी अजीब बात भी तो नहीं!
Tuesday, June 10, 2008
ज़रदारी को दिखने लगी है ज़मीन
नवाज़ शरीफ के एक कदम ने आसिफ अली ज़रदारी को ज़मीन पर ला खड़ा किया है। अब वे राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ के खिलाफ महाभियोग लाने की बात करने लगे हैं। इसके लिए उन्होने अपनी पार्टी के नेताओं को तैयार रहने को कहा है। महाभियोग के मसौदे को अंतिम रुप दिया जा रहा है। ये वही ज़रदारी हैं जो राष्ट्रपति के साथ वर्किंग रिलेशन को बुरा नहीं मानते थे। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह अध्यक्ष ज़रदारी का इशारा पा कर ही प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने मुशर्रफ के साथ कामकाज़ी रिश्ते का समझौता किया था। आखिर पार्टी के स्टैंड में इस बदलाव की वजह साफ है। नवाज़ शरीफ का सरकार से अलग होना और अवाम के बीच घूम घूम कर अपनी बात कहना।
पीपीपी अब तक मुशर्रफ के साथ नहीं तो उसके पीछे भी पड़ी नज़र नहीं आ रही थी। चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर चुनकर आने के बाद पार्टी नेताओं को अपनी सरकार बनाने और उसे बचाए रखने की चिंता थी। ऐसे में आठ साल से मज़बूती से टिके मुशर्रफ से वो झगड़ा मोल नहीं लेना चाहती थी। पीएमएल एन नेता नवाज़ शरीफ़ जब जब जनता से किए गए वायदे को निभाने और मुशर्रफ तो तत्काल हटाने की मांग करते है तो ज़रदारी उन्हें व्यवहारिक होने की सलाह देते रहे हैं। ज़रदारी के दिमाग में सरकार जाने का डर तो था ही... मुशर्रफ से साथ अमेरिका का खड़ा रहना भी मुशर्रफ को हटाने की राह में बाधा रहा है। यहां तक कि आपातकाल के समय बर्खास्त किए गए जजों की बहाली भी अब तक लटकी हुई है। इन हालातों के बीच जब नवाज़ शरीफ़ ने सरकार से अपने सभी नौ मंत्रियों के इस्तीफे दिलवा दिए तो पीपीपी को पहला झटका लगा। लेकिन वो उससे भी संभलने और वैकल्पिक रास्ते तलाशने में लगी रही है। लेकिन इस बीच नवाज़ शरीफ ने जिस तरह की राजनीति शुरु कर दी है उससे ज़रदारी के कान खड़े हो गए है।
सरकार से अलग होने के बाद से नवाज़ शरीफ अवाम को ये संदेश देने में क़ामयाब साबित हो रहे कि जिन मुद्दों को लेकर आपने इस सरकार को चुना उन मुद्दों को सरकार पीछे छोड़ चुकी है। आपातकाल के पहले की अदालत की बहाली और मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हटाना... ये दो मुद्दे पाकिस्तान की अवाम के दिल से जुड़े हैं। मुशर्रफ की आठ साल की तानाशाही में पाकिस्तान की अवाम की जिंदगी से लेकर अर्थव्यवस्था तक... सब कुछ दांव पर लग गया और उसी का नतीज़ा रहा कि अवाम ने सत्ताधारी पार्टी पीएमएल क्यू को भारी शिकस्त दी। पाकिस्तान की मीडिया और वकीलों के आंदोलन ने लोकतांत्रिक सरकार लाने में अहम भूमिका निभाई। और ये भी अब छला हुआ महसूस कर रहे हैं। तो जो ज़मीन पीपीपी ने खाली छोड़ दी है नवाज़ शरीफ़ उसे तेज़ी से भर रहे हैं। जो पहले पीपीपी के साथ थे वो सब अब नवाज़ शरीफ़ के साथ हो लिए हैं या हो रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री और कद्दावर नेता बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर भी अब शांत हो चुकी है। लोग सरकार को उसके कामकाज़ के आधार पर तौलने की तैयारी में हैं। जो गुस्सा मुशर्रफ और उसकी स्टैब्लिशमेंट यानि व्यवस्था के खिलाफ था वो अब इस गठबंधन सरकार के खिलाफ होता जा रहा है। नवाज़ शरीफ ने सरकार अलग होकर गुस्से के केन्द्र में पीपीपी और ज़रदारी को ला खड़ा किया है। ये बात ज़रदारी को समझ आने लगी है इसलिए मुशर्रफ के खिलाफ वो अपनी ज़बान फिर से तल्ख करने लगे हैं। व्यापारी से राजनेता बने ज़रदारी को अवाम की ताक़त का एहसास है। तानाशाही के तमाम हथकंडो के बाद भी जो अवाम मुशर्रफ की पार्टी के खिलाफ वोट कर सकती है वो ज़रदारी के खिलाफ भी।
पाकिस्तान में पीपीपी और पीएमएल एन, ये दो ही ऐसी राष्ट्रीय पार्टी हैं जिनका आधार पूरे देश में है। दोनो एक दूसरे की घोर प्रतिद्वंद्वी रही हैं। ये मुशर्रफ की तानाशाही से निकलने की मज़बूरी थी कि ये एक साथ आए। लेकिन देश की दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी लंबे समय तक साथ नहीं चल सकती। इससे एक का वजूद दूसरे में समाने का ख़तरा रहेगा और सैनिक तानाशाही से निकल मुल्क एक अलग राजनीतिक दलदल में फंस सकता है। लोकतंत्र के हित और उसकी मज़बूती के लिए ज़रुरी है कि दो ताकतवर राजनीतिक पार्टियों के बीच ‘लोकतांत्रिक लडाई’ होती रहे। कहने का मतलब ये कि इन दोनों दलों का आज न कल चुनाव में भिड़ना ही होगा। मुशर्रफ को न हटा पाने की मज़बूरी ने पीपीपी के जनाधार को कमज़ोर कर रही है इसमें कोई शक नहीं। नवाज़ शरीफ को पता है कि अभी चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो एक कदम चल कर अपनी तैयारियों में जुटे हुए हैं। अब चुनाव के दो सूरते हाल नज़र आ रहे हैं। या तो ज़रदारी मुशर्रफ को हटाने का फैसला कर अपना चेहरा बचाने की कोशिश करें। ऐसे में यदि मुशर्रफ इस सरकार को बर्खास्त करने की हिमाकत भी करते हैं तो दूबारा चुनाव की हालत में पीपीपी अपनी शहादत वाली छवि पेश कर सकती है। या फिर ज़रदारी नवाज़ शरीफ़ के सरकार से पूरी तरह समर्थन वापस ले लेने तक का इंतज़ार करें। लेकिन उसके बाद के चुनाव में पीपीपी को अवाम की तरफ से कुछ नहीं मिलने वाला। हां, तब मुशर्रफ, अमेरिका और ज़रदारी की तिकड़ी कोई नया खेल रचा पाकिस्तान में काबिज़ रहने की कोशिश कर सकते हैं। अब फैसला ज़रदारी के हाथ में है।
पीपीपी अब तक मुशर्रफ के साथ नहीं तो उसके पीछे भी पड़ी नज़र नहीं आ रही थी। चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर चुनकर आने के बाद पार्टी नेताओं को अपनी सरकार बनाने और उसे बचाए रखने की चिंता थी। ऐसे में आठ साल से मज़बूती से टिके मुशर्रफ से वो झगड़ा मोल नहीं लेना चाहती थी। पीएमएल एन नेता नवाज़ शरीफ़ जब जब जनता से किए गए वायदे को निभाने और मुशर्रफ तो तत्काल हटाने की मांग करते है तो ज़रदारी उन्हें व्यवहारिक होने की सलाह देते रहे हैं। ज़रदारी के दिमाग में सरकार जाने का डर तो था ही... मुशर्रफ से साथ अमेरिका का खड़ा रहना भी मुशर्रफ को हटाने की राह में बाधा रहा है। यहां तक कि आपातकाल के समय बर्खास्त किए गए जजों की बहाली भी अब तक लटकी हुई है। इन हालातों के बीच जब नवाज़ शरीफ़ ने सरकार से अपने सभी नौ मंत्रियों के इस्तीफे दिलवा दिए तो पीपीपी को पहला झटका लगा। लेकिन वो उससे भी संभलने और वैकल्पिक रास्ते तलाशने में लगी रही है। लेकिन इस बीच नवाज़ शरीफ ने जिस तरह की राजनीति शुरु कर दी है उससे ज़रदारी के कान खड़े हो गए है।
सरकार से अलग होने के बाद से नवाज़ शरीफ अवाम को ये संदेश देने में क़ामयाब साबित हो रहे कि जिन मुद्दों को लेकर आपने इस सरकार को चुना उन मुद्दों को सरकार पीछे छोड़ चुकी है। आपातकाल के पहले की अदालत की बहाली और मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हटाना... ये दो मुद्दे पाकिस्तान की अवाम के दिल से जुड़े हैं। मुशर्रफ की आठ साल की तानाशाही में पाकिस्तान की अवाम की जिंदगी से लेकर अर्थव्यवस्था तक... सब कुछ दांव पर लग गया और उसी का नतीज़ा रहा कि अवाम ने सत्ताधारी पार्टी पीएमएल क्यू को भारी शिकस्त दी। पाकिस्तान की मीडिया और वकीलों के आंदोलन ने लोकतांत्रिक सरकार लाने में अहम भूमिका निभाई। और ये भी अब छला हुआ महसूस कर रहे हैं। तो जो ज़मीन पीपीपी ने खाली छोड़ दी है नवाज़ शरीफ़ उसे तेज़ी से भर रहे हैं। जो पहले पीपीपी के साथ थे वो सब अब नवाज़ शरीफ़ के साथ हो लिए हैं या हो रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री और कद्दावर नेता बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर भी अब शांत हो चुकी है। लोग सरकार को उसके कामकाज़ के आधार पर तौलने की तैयारी में हैं। जो गुस्सा मुशर्रफ और उसकी स्टैब्लिशमेंट यानि व्यवस्था के खिलाफ था वो अब इस गठबंधन सरकार के खिलाफ होता जा रहा है। नवाज़ शरीफ ने सरकार अलग होकर गुस्से के केन्द्र में पीपीपी और ज़रदारी को ला खड़ा किया है। ये बात ज़रदारी को समझ आने लगी है इसलिए मुशर्रफ के खिलाफ वो अपनी ज़बान फिर से तल्ख करने लगे हैं। व्यापारी से राजनेता बने ज़रदारी को अवाम की ताक़त का एहसास है। तानाशाही के तमाम हथकंडो के बाद भी जो अवाम मुशर्रफ की पार्टी के खिलाफ वोट कर सकती है वो ज़रदारी के खिलाफ भी।
पाकिस्तान में पीपीपी और पीएमएल एन, ये दो ही ऐसी राष्ट्रीय पार्टी हैं जिनका आधार पूरे देश में है। दोनो एक दूसरे की घोर प्रतिद्वंद्वी रही हैं। ये मुशर्रफ की तानाशाही से निकलने की मज़बूरी थी कि ये एक साथ आए। लेकिन देश की दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी लंबे समय तक साथ नहीं चल सकती। इससे एक का वजूद दूसरे में समाने का ख़तरा रहेगा और सैनिक तानाशाही से निकल मुल्क एक अलग राजनीतिक दलदल में फंस सकता है। लोकतंत्र के हित और उसकी मज़बूती के लिए ज़रुरी है कि दो ताकतवर राजनीतिक पार्टियों के बीच ‘लोकतांत्रिक लडाई’ होती रहे। कहने का मतलब ये कि इन दोनों दलों का आज न कल चुनाव में भिड़ना ही होगा। मुशर्रफ को न हटा पाने की मज़बूरी ने पीपीपी के जनाधार को कमज़ोर कर रही है इसमें कोई शक नहीं। नवाज़ शरीफ को पता है कि अभी चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो एक कदम चल कर अपनी तैयारियों में जुटे हुए हैं। अब चुनाव के दो सूरते हाल नज़र आ रहे हैं। या तो ज़रदारी मुशर्रफ को हटाने का फैसला कर अपना चेहरा बचाने की कोशिश करें। ऐसे में यदि मुशर्रफ इस सरकार को बर्खास्त करने की हिमाकत भी करते हैं तो दूबारा चुनाव की हालत में पीपीपी अपनी शहादत वाली छवि पेश कर सकती है। या फिर ज़रदारी नवाज़ शरीफ़ के सरकार से पूरी तरह समर्थन वापस ले लेने तक का इंतज़ार करें। लेकिन उसके बाद के चुनाव में पीपीपी को अवाम की तरफ से कुछ नहीं मिलने वाला। हां, तब मुशर्रफ, अमेरिका और ज़रदारी की तिकड़ी कोई नया खेल रचा पाकिस्तान में काबिज़ रहने की कोशिश कर सकते हैं। अब फैसला ज़रदारी के हाथ में है।
(12 जून के अमर उजाला में प्रकाशित)
Sunday, June 1, 2008
'हक़' की दुहाई देने वालों ने ही आखिरी हक़ छीना है
नीरज गुप्ता आईबीएन 7 से जुड़े हैं। वे अपराध से लेकर राजनीति तक... सभी विषयों पर धारदार रिपोर्टिंग करते हैं। अभी अभी वे गुर्जर आंदोलन कवर कर लौटे हैं। आरक्षण की ज़िद में गुर्जरों की एक अलग ही तस्वीर वो हमें दिखा रहे हैं...
राजस्थान में आरक्षण की आग लगी है.. गुर्जर गरज रहे हैं.. सरकार बेबस दिख रही है.. सरकार गलत है या गुर्जर- इस सवाल को लेकर अखबारों और खबरिया चैनलों पर लंबी बहस हो रही है.. लेख लिखे जा रहे हैं.. और तो और सड़क पर पान-सिगरेट के लिए निकले लोग भी वक्त बिताने के लिए इस मुद्दे पर ' निठल्ला चिंतन ' करते दिख जाते हैं.. लिहाज़ा यहां मैं इस बड़े पचड़े में नहीं पडूंगा..
गुर्जर आंदोलन की हफ्ते भर की कवरेज के दौरान मै बयाना और सिकंदरा, दोनों जगह गया.. गुर्जर आंदोलन के इन दोनों अहम पड़ावों पर रखे हैं 18 शव.. 12 बयाना में और 6 सिंकंदरा में.. पुलिस और गुर्जरों के बीच हुई झड़प में मारे गए थे वो लोग.. ज़िद है कि जब तक आरक्षण नहीं मिलेगा तब तक शवों को दाग नहीं मिलेगा.. मक्खियां भिनभनाती हैं उन ताबूतों पर.. अगरबत्तियों की खुशबू भी उन मक्खियों को नहीं हटा पाती.. आखिर वो ही भला क्यों हटें.. सरकार भी तो गुर्जरों को नहीं हटा पा रही.. भाषण.. नारेबाज़ी.. बहसबाज़ी और गुस्से के बीच वो ताबूत बेबस से पड़े नज़र आते हैं.. जैसे किसी ने बंधक बना रखा हो.. हिंदू धर्म के मुताबिक जब तक शव को दाग ना मिले, आत्मा को शाति नहीं मिलती.. लेकिन सरकार गुर्जरों को शांत नहीं कर पा रही और गुर्जर मरने वालों की आत्मा को..
एक ही मंज़र है वहां.. तंबू के नीचे ताबूत.. ताबूत में शव..शवों पर भिनभिनाती मक्खियां.. और उन्हीं मक्खियों के साथ आसपास जमा गुर्जर.. 24 घंटे की पेहरेदारी.. बस रोज़मर्रा के कामों के लिए घर जाना और फिर लौट आना..
वहां कुछ नहीं बदलता.. बदलती हैं तो बस शवों के इर्द-गिर्द रखी बर्फ की सिल्लियां.. वो रोज़ पिघलती हैं.. लेकिन पता नहीं कि सरकार और गुर्जरों के बीच जमी बर्फ आखिर कब पिघलेगी, और शवों को अंतिम संस्कार नसीब होगा..ये अजीब विडंबना है कि कामयाब हो या नाकाम, हर आंदोलन कुर्बानी मांगता है.. गुर्जर आंदोलन को भी अपने भविष्य का कोई पता नहीं.. लेकिन इतना साफ है कि कामयाब हो भी गए तो वो कामयाबी मौत के मातम से बड़ी नहीं होगी...
- नीरज गुप्ता
Thursday, May 15, 2008
लोकतंत्र के मुहाने से लौटता पाकिस्तान!
आख़िर वही हुआ जिसका डर था। नवाज़ शरीफ़ ने सरकार से अलग होने का फ़ैसला कर लिया। नवाज़ की पार्टी पीएमएल एन के सभी मंत्रियों ने प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा ग़िलानी को अपना इस्तीफा सौंप दिया है। (मंगलवार को सौंप रहे हैं) हालांकि सरकार गिरी नहीं है क्योंकि शरीफ ने मुद्दा आधारित समर्थन देते रहने की बात की है। लेकिन वो भी कब तक ये साफ नहीं है। अगर पीपीपी नवाज़ की मांगों को यूं ही दरकिनार करती रही तो बात आगे जा सकती है। फिलहाल मसला देश में इमरजेंसी के साथ बर्खास्त हुए जजों की बहाली का है। पिछले साल 3 नवबंर को राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने जब इमरजेंसी लगाई तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस मोहम्मद इफ्तिखार चौधरी समेत अपनी मुखालफ़त करने वाले तमाम जजों को बर्खास्त कर दिया। पीपीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाने के समय से ही नवाज़ शरीफ उन जजों की बहाली को अपनी नाक का सवाल बनाए हुए हैं। वो मुशर्रफ को भी राष्ट्रपति भवन से बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं। दरअसल नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल एन के साथ साथ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने भी मुशर्रफ विरोध को अपना चुनावी एजेंडा बनाया था। बेनज़ीर की मौत से उपजी सहानुभूति और मुशर्रफ़ के खिलाफ आवाम के गुस्से के बूते वो सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी।
बातचीत के लंबे दौर और मड़ी बैठक में हुए समझौते के नवाज़ शरीफ ने पीपीपी को समर्थन देने और सरकार में शामिल होने का ऐलान किया। इसी चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी के तहत बर्खास्त जजों की बहाली एक महीने के भीतर करने नवाज़ ने शर्त रखी थी। वो भी संसद में अध्यादेश के ज़रिए। लेकिन गठबंधन सरकार के पास दो तिहाई बहुमत नहीं है। पीपीपी इसी को आधार बना कर अध्यादेश लाने से इंकार करती रही है। हालांकि इसके पीछे असल वजह अमेरिका का दबाव है। अमेरिका वॉर ऑन टेरर के अपने सहयोगी और काबालयली इलाके में सैन्य कार्रवाई की इजाज़त देने वाले मुशर्रफ को नहीं खोना चाहती। इसलिए उसने पीपीपी पर पूरा दबाव बनाया हुआ है कि वो मुशर्रफ के साथ चले। उन्हें हटाने की कोशिश ना करे। ये दबाव इसलिए भी कारगर हो पा रहा है क्योंकि ये अमेरिका ही था जिसने बेनज़ीर और मुशर्रफ के बीच सुलह करा कर बेनज़ीर के पाकिस्तान वापिस लौटने का रास्ता साफ किया था। बेनज़ीर और मुशर्रफ के बीच का नेशनल रिकांसिलियेशन एलायंस इसलिए परवान नहीं चढ़ पाया क्योंकि मुशर्रफ 58-2बी को छोड़ने को तैयार नहीं हुए। फिर बेनज़ीर की हत्या हो गई। चुनावी परिदृश्य में ज़रदारी आए। मुशर्रफ के खिलाफ लड़ कर पीपीपी सत्ता तक तो पहुंच गई लेकिन वो उस हालात से बाहर नहीं निकल पायी है जो अमेरिका ने तय कर रखे हैं। लिहाज़ा प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी को मुशर्रफ के साथ करार तक करना पड़ा है कि वे ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था’ की मज़बूती के हक़ में आपस में नहीं टकराएंगे।
नवाज़ शरीफ को ऐसी ही बातें नागवार लग रही हैं। वे उस मुशर्रफ को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे जिसने उन्हें न सिर्फ गद्दी से उतारा बल्कि दस साल तक पाकिस्तान से भी बाहर रखा। लेकिन मुशर्रफ को हटाने का उनका कोई भी दबाव अभी तक काम नहीं आया है। उल्टा ज़रदारी ने एक बयान में यहां तक कह दिया कि जिन जजों को बर्खास्त किया गया ‘वे निजी स्वार्थ साधने में लगे थे... राष्ट्रहित में नहीं’। पुराने जजों की बहाली को लेकर ज़रदारी को भी ये डर है कि उनके खिलाफ भ्रष्ट्राचार के मुकद्दमे फिर ना खुल जाएं। इमरजेंसी लगाने के बाद मुशर्रफ ने पीसीओ यानि प्रोविजिनल कॉस्टीट्यूशनल आर्डर के तहत जिन जजों को नियुक्त किया, उन्हीं जजों ने ज़रदारी के खिलाफ मुकद्दमे हटाने के आदेश दिए। ये नेशनल रिकांसिलियेशन एलायंस की उन शर्तों में से एक था जिससे पीपीपी नेता को फायदा पहुंचना था। वही हुआ भी। तो पीपीपी और मुशर्रफ के बीच इस तरह का जो ‘वर्किंग रिलेशन’ बना उससे नवाज़ शरीफ ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। कहां तो वो मुशर्रफ को बाहर देखना चाह रहे थे और कहां वो उनका बाल भी बांका नहीं कर पा रहे। साथ ही, वे पाकिस्तानी शासन-सत्ता को अमेरिकी सरपरस्ती से निकालना चाह रहे हैं। अमेरिका उन्हें पसंद नहीं और वे अमेरिका को। पाकिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति के खिलाफ और अपनी दक्षिणपंथी कट्टर छवि के साथ खड़े नवाज़ शरीफ के सामने जो रास्ता बच गया है उन्होने उसी पर चलने का फैसला किया है। नवाज़ शरीफ के इस कदम के बाद पीपीपी ने हालांकि ये कहा है कि वह आने वाले दिनों में संवैधानिक प्रावधानों के तहत जजों की बहाली के लिए प्रस्ताव लाएगी। लेकिन ऐसा कह कर पीपीपी अपनी सरकार के लिए समय ख़रीदती नज़र आ रही है।
नवाज़ शरीफ ने कैबिनेट से अपने मंत्रियों को हटा तो लिया है लेकिन ये भी साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी विपक्ष में नहीं बैठेगी। मतलब उनके समर्थन से सरकार चलती रहेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि शरीफ को अभी सरकार गिराने का फायदा नज़र नहीं आ रहा। सत्ता में पीपीपी और मुशर्रफ दोनो हैं और ऐसे में चुनाव में उन्हें जबर्दस्त धांधली की आशंका होगी। इसलिए उन्होने पहला कदम उठाया है। सरकार से बाहर निकल कर वो अपना वोटरों को तैयार कर रहे हैं। ऐसे संदेश के साथ कि देखो पीपीपी अपने वायदे से मुकर गई। तानाशाह मुशर्रफ से समझौता कर बैठी। इसलिए अब उन्हें मौक़ा दिया जाए। पाकिस्तान की मीडिया, वकील और बुद्धिजीवी वर्ग से समर्थन हासिल करने की शरीफ की कोशिश रंग ला सकती है। ये सभी पीपीपी के अभियान को समर्थन देते रहे हैं। लेकिन मुशर्रफ और बर्खास्त जजों को लेकर पीपीपी के रुख़ से इन सबों का काफी हद तक मोहभंग हुआ है।
हालांकि ज़रदारी इस सच्चाई को समझते हैं कि पाकिस्तान में सरकार अवाम के वोट से नहीं, ताकत की ओट से चलती है। पाकिस्तानी सेना और अमेरिका दोनों ही मुशर्रफ के साथ हैं। ऐसे में ज़रदारी अगर अवाम के जज़्बात को समझते भी हो तो उसके लिए अपनी सरकार की क़ीमत अदा नहीं करना चाहते। सवाल है कि अब आगे क्या होगा। नवाज़ शरीफ अगर सरकार से समर्थन भी वापस ले लेते हैं तो दो-तीन सूरतेहाल पैदा होती हैं। पहला कि पीपीपी मौजूदा गठबंधन के दूसरे दलों के साथ साथ पीएमएल क्यू यानि मुशर्रफ की काफ लीग के सांसदों के साथ सरकार बचाने की कोशिश करे। हालांकि ज़रदारी ने साफ किया है कि वे किसी भी हाल में काफ लीग के साथ नहीं जाएंगे। लेकिन जिस मुशर्रफ और अमेरिका के सामने वो इतने विवश हो गए हैं कि नवाज़ शरीफ और अवाम की इच्छा का गला घोंट दिया हो वो सरकार बचाने के लिए इस हद तक भी चले जाएं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
दूसरी सूरतेहाल तब बनती है अगर मौजूदा सरकार गिर जाती है। सरकार बनाने की नवाज़ शरीफ की किसी कोशिश को राष्ट्रपति मुशर्रफ परवान चढ़ने नहीं देगें। दो प्रमुख राजनीतिक दलों के झगड़े का फायदा उठा कर मुशर्रफ चुनी हुई सरकार पर पूरी तरह हावी हो जाएंगे। पाकिस्तान उसी हालात में पहुंच जाएगा जहां से उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अपनी लड़ाई शुरु की थी। इतनी जल्दी दुबारा चुनाव होने की गुंजाइश कम नज़र आती है। और अगर चुनाव होते भी है तो मुशर्रफ की व्यवस्था अवाम के तमाम सहयोग के बाद भी नवाज़ शरीफ को सत्ता तक पहुंचने देगी इस पर शक बना रहेगा। यानि एक सच्चे लोकतंत्र के लिए पाकिस्तान की जद्दोज़हद और लंबी खिंचने वाली है।
बातचीत के लंबे दौर और मड़ी बैठक में हुए समझौते के नवाज़ शरीफ ने पीपीपी को समर्थन देने और सरकार में शामिल होने का ऐलान किया। इसी चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी के तहत बर्खास्त जजों की बहाली एक महीने के भीतर करने नवाज़ ने शर्त रखी थी। वो भी संसद में अध्यादेश के ज़रिए। लेकिन गठबंधन सरकार के पास दो तिहाई बहुमत नहीं है। पीपीपी इसी को आधार बना कर अध्यादेश लाने से इंकार करती रही है। हालांकि इसके पीछे असल वजह अमेरिका का दबाव है। अमेरिका वॉर ऑन टेरर के अपने सहयोगी और काबालयली इलाके में सैन्य कार्रवाई की इजाज़त देने वाले मुशर्रफ को नहीं खोना चाहती। इसलिए उसने पीपीपी पर पूरा दबाव बनाया हुआ है कि वो मुशर्रफ के साथ चले। उन्हें हटाने की कोशिश ना करे। ये दबाव इसलिए भी कारगर हो पा रहा है क्योंकि ये अमेरिका ही था जिसने बेनज़ीर और मुशर्रफ के बीच सुलह करा कर बेनज़ीर के पाकिस्तान वापिस लौटने का रास्ता साफ किया था। बेनज़ीर और मुशर्रफ के बीच का नेशनल रिकांसिलियेशन एलायंस इसलिए परवान नहीं चढ़ पाया क्योंकि मुशर्रफ 58-2बी को छोड़ने को तैयार नहीं हुए। फिर बेनज़ीर की हत्या हो गई। चुनावी परिदृश्य में ज़रदारी आए। मुशर्रफ के खिलाफ लड़ कर पीपीपी सत्ता तक तो पहुंच गई लेकिन वो उस हालात से बाहर नहीं निकल पायी है जो अमेरिका ने तय कर रखे हैं। लिहाज़ा प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी को मुशर्रफ के साथ करार तक करना पड़ा है कि वे ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था’ की मज़बूती के हक़ में आपस में नहीं टकराएंगे।
नवाज़ शरीफ को ऐसी ही बातें नागवार लग रही हैं। वे उस मुशर्रफ को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे जिसने उन्हें न सिर्फ गद्दी से उतारा बल्कि दस साल तक पाकिस्तान से भी बाहर रखा। लेकिन मुशर्रफ को हटाने का उनका कोई भी दबाव अभी तक काम नहीं आया है। उल्टा ज़रदारी ने एक बयान में यहां तक कह दिया कि जिन जजों को बर्खास्त किया गया ‘वे निजी स्वार्थ साधने में लगे थे... राष्ट्रहित में नहीं’। पुराने जजों की बहाली को लेकर ज़रदारी को भी ये डर है कि उनके खिलाफ भ्रष्ट्राचार के मुकद्दमे फिर ना खुल जाएं। इमरजेंसी लगाने के बाद मुशर्रफ ने पीसीओ यानि प्रोविजिनल कॉस्टीट्यूशनल आर्डर के तहत जिन जजों को नियुक्त किया, उन्हीं जजों ने ज़रदारी के खिलाफ मुकद्दमे हटाने के आदेश दिए। ये नेशनल रिकांसिलियेशन एलायंस की उन शर्तों में से एक था जिससे पीपीपी नेता को फायदा पहुंचना था। वही हुआ भी। तो पीपीपी और मुशर्रफ के बीच इस तरह का जो ‘वर्किंग रिलेशन’ बना उससे नवाज़ शरीफ ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। कहां तो वो मुशर्रफ को बाहर देखना चाह रहे थे और कहां वो उनका बाल भी बांका नहीं कर पा रहे। साथ ही, वे पाकिस्तानी शासन-सत्ता को अमेरिकी सरपरस्ती से निकालना चाह रहे हैं। अमेरिका उन्हें पसंद नहीं और वे अमेरिका को। पाकिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति के खिलाफ और अपनी दक्षिणपंथी कट्टर छवि के साथ खड़े नवाज़ शरीफ के सामने जो रास्ता बच गया है उन्होने उसी पर चलने का फैसला किया है। नवाज़ शरीफ के इस कदम के बाद पीपीपी ने हालांकि ये कहा है कि वह आने वाले दिनों में संवैधानिक प्रावधानों के तहत जजों की बहाली के लिए प्रस्ताव लाएगी। लेकिन ऐसा कह कर पीपीपी अपनी सरकार के लिए समय ख़रीदती नज़र आ रही है।
नवाज़ शरीफ ने कैबिनेट से अपने मंत्रियों को हटा तो लिया है लेकिन ये भी साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी विपक्ष में नहीं बैठेगी। मतलब उनके समर्थन से सरकार चलती रहेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि शरीफ को अभी सरकार गिराने का फायदा नज़र नहीं आ रहा। सत्ता में पीपीपी और मुशर्रफ दोनो हैं और ऐसे में चुनाव में उन्हें जबर्दस्त धांधली की आशंका होगी। इसलिए उन्होने पहला कदम उठाया है। सरकार से बाहर निकल कर वो अपना वोटरों को तैयार कर रहे हैं। ऐसे संदेश के साथ कि देखो पीपीपी अपने वायदे से मुकर गई। तानाशाह मुशर्रफ से समझौता कर बैठी। इसलिए अब उन्हें मौक़ा दिया जाए। पाकिस्तान की मीडिया, वकील और बुद्धिजीवी वर्ग से समर्थन हासिल करने की शरीफ की कोशिश रंग ला सकती है। ये सभी पीपीपी के अभियान को समर्थन देते रहे हैं। लेकिन मुशर्रफ और बर्खास्त जजों को लेकर पीपीपी के रुख़ से इन सबों का काफी हद तक मोहभंग हुआ है।
हालांकि ज़रदारी इस सच्चाई को समझते हैं कि पाकिस्तान में सरकार अवाम के वोट से नहीं, ताकत की ओट से चलती है। पाकिस्तानी सेना और अमेरिका दोनों ही मुशर्रफ के साथ हैं। ऐसे में ज़रदारी अगर अवाम के जज़्बात को समझते भी हो तो उसके लिए अपनी सरकार की क़ीमत अदा नहीं करना चाहते। सवाल है कि अब आगे क्या होगा। नवाज़ शरीफ अगर सरकार से समर्थन भी वापस ले लेते हैं तो दो-तीन सूरतेहाल पैदा होती हैं। पहला कि पीपीपी मौजूदा गठबंधन के दूसरे दलों के साथ साथ पीएमएल क्यू यानि मुशर्रफ की काफ लीग के सांसदों के साथ सरकार बचाने की कोशिश करे। हालांकि ज़रदारी ने साफ किया है कि वे किसी भी हाल में काफ लीग के साथ नहीं जाएंगे। लेकिन जिस मुशर्रफ और अमेरिका के सामने वो इतने विवश हो गए हैं कि नवाज़ शरीफ और अवाम की इच्छा का गला घोंट दिया हो वो सरकार बचाने के लिए इस हद तक भी चले जाएं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
दूसरी सूरतेहाल तब बनती है अगर मौजूदा सरकार गिर जाती है। सरकार बनाने की नवाज़ शरीफ की किसी कोशिश को राष्ट्रपति मुशर्रफ परवान चढ़ने नहीं देगें। दो प्रमुख राजनीतिक दलों के झगड़े का फायदा उठा कर मुशर्रफ चुनी हुई सरकार पर पूरी तरह हावी हो जाएंगे। पाकिस्तान उसी हालात में पहुंच जाएगा जहां से उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अपनी लड़ाई शुरु की थी। इतनी जल्दी दुबारा चुनाव होने की गुंजाइश कम नज़र आती है। और अगर चुनाव होते भी है तो मुशर्रफ की व्यवस्था अवाम के तमाम सहयोग के बाद भी नवाज़ शरीफ को सत्ता तक पहुंचने देगी इस पर शक बना रहेगा। यानि एक सच्चे लोकतंत्र के लिए पाकिस्तान की जद्दोज़हद और लंबी खिंचने वाली है।
( अमर उजाला के 15मई 2008 के अंक में प्रकाशित)
Sunday, May 11, 2008
पाकिस्तान में हिन्दी न्यूज़ चैनल!
आपको कुछ हैरानी हो सकती है। पर ये सच है। अब पाकिस्तान में भी देखा जा सकता है एनडीटीवी इंडिया। इसके लिए एनडीटीवी ख़बर डॉट कॉम की टीम को बधाई!
हुआ कुछ यूं कि शनिवार को मैंने श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ विदेशी मित्रों को ईमेल कर दिया कि वे एनडीटीवी इंडिया पर साढ़े नौ बजे पोखरण टेस्ट पर रिपोर्ट देखें... www.ndtvkhabar.com पर। बदले में पेशावर से मेरे दोस्त हमजा का जो मेल आया है उसे यहां कट पेस्ट कर रहा हूं...
HI BROTHER,IT WAS NICE TO SEE UR SPECIAL REPORT ON SUCH INFORMATIVE TOPIC. REALLY IT WAS NICE ONE. I ADMIRE UR EFFORTS AND I HOPE THAT IT MUST HAVE TAKEN ALOT OF TIME. IF I GET THE CD OF IT THEN IT WILL BE VERY MUCH GOOD SO THAT I CAN SHOW IT TO MY STUDENTS BUT I M SURE THAT THERE WILL DIFFICULTY IN SENDING IT BACK TO PAKISTAN.KEEP ENJOYING AND SAY MY SALAM TO ALL THERE.TAKE CARE AND ALL THE BEST. SAY MY SALAM TO UR FAMILY.
YOUR BROTHERAMIR HAMZA BANGASHLECTURER JOURNALISM AND MASS COMMUNICATION DEPTTPESHAWAR UNIVERSITY...
आपको जानकारी होगी कि पाकिस्तान ने भारतीय न्यूज़ चैनलों पर पाबंदी है। लेकिन एनडीटीवीखबर.कॉम की वजह से ये संभव हो पाया कि वहां भी एनडीटीवी देखा जा सकता है। इसके लिए एनडीटीवीखबर.कॉम को एक बार फिर बधाई!
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
हुआ कुछ यूं कि शनिवार को मैंने श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ विदेशी मित्रों को ईमेल कर दिया कि वे एनडीटीवी इंडिया पर साढ़े नौ बजे पोखरण टेस्ट पर रिपोर्ट देखें... www.ndtvkhabar.com पर। बदले में पेशावर से मेरे दोस्त हमजा का जो मेल आया है उसे यहां कट पेस्ट कर रहा हूं...
HI BROTHER,IT WAS NICE TO SEE UR SPECIAL REPORT ON SUCH INFORMATIVE TOPIC. REALLY IT WAS NICE ONE. I ADMIRE UR EFFORTS AND I HOPE THAT IT MUST HAVE TAKEN ALOT OF TIME. IF I GET THE CD OF IT THEN IT WILL BE VERY MUCH GOOD SO THAT I CAN SHOW IT TO MY STUDENTS BUT I M SURE THAT THERE WILL DIFFICULTY IN SENDING IT BACK TO PAKISTAN.KEEP ENJOYING AND SAY MY SALAM TO ALL THERE.TAKE CARE AND ALL THE BEST. SAY MY SALAM TO UR FAMILY.
YOUR BROTHERAMIR HAMZA BANGASHLECTURER JOURNALISM AND MASS COMMUNICATION DEPTTPESHAWAR UNIVERSITY...
आपको जानकारी होगी कि पाकिस्तान ने भारतीय न्यूज़ चैनलों पर पाबंदी है। लेकिन एनडीटीवीखबर.कॉम की वजह से ये संभव हो पाया कि वहां भी एनडीटीवी देखा जा सकता है। इसके लिए एनडीटीवीखबर.कॉम को एक बार फिर बधाई!
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
Saturday, May 10, 2008
सिर्फ एनडीटीवी इंडिया पर
पोखरण-2 के दस साल हो चुके... इस एनडीटीवी इंडिया की एक रिपोर्ट... कैसे हुआ ये सब संभव और क्या फ़ायदा हुआ देश को। भारतीय समयनुसार आज रात साढ़े नौ बजे...
इंटरनेट के ज़रिए एनडीटीवी इंडिया लाइव देखने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें।
http://www.ndtvkhabar.com/
शुक्रिया
इंटरनेट के ज़रिए एनडीटीवी इंडिया लाइव देखने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें।
http://www.ndtvkhabar.com/
शुक्रिया
Thursday, April 24, 2008
बहुत ख़ूब अबरार भाई... अच्छा लिखा है
मेरी अधूरी कविता को पूरी करने की गुज़ारिश को अबरार अहमद ने कुछ इस तरह लिया। अबरार की ये कोशिश मेरे लिए काफी मायने रखती है। सोचिए... एक ऐसी कविता जिसकी शुरुआती पंक्ति मैंने लिखी हो... आगे की अबरार ने... और उससे भी आगे की किसी और ने... तो कैसी सामूहिक कविता होगी... हर किसी के जानने समझने की दुनिया के हिसाब से सोच, परिकल्पना, दर्शन, अभिलाषा... आदि सामने आएगी। खैर अबरार की पंक्तियां महसूस करें।
अंतरिक्ष में बारात जाएगी।
मंगल से पानी आएगा।
धरती सूखती जाएगी।
और हम सब भोजन की जगह टैबलेट खा रहे होंगे।
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा।
इंसान की नजरों का पानी सूख चुका होगा।
बाप बेटे से तो बेटा बाप से उब चुका होगा।
रात उजली तो दिन अंधियारे की गर्त में होगा।
आदमी का चेहरा कई पर्त में होगा।
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा...
अंतरिक्ष में बारात जाएगी।
मंगल से पानी आएगा।
धरती सूखती जाएगी।
और हम सब भोजन की जगह टैबलेट खा रहे होंगे।
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा।
इंसान की नजरों का पानी सूख चुका होगा।
बाप बेटे से तो बेटा बाप से उब चुका होगा।
रात उजली तो दिन अंधियारे की गर्त में होगा।
आदमी का चेहरा कई पर्त में होगा।
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा...
Wednesday, April 23, 2008
इन पंक्तियों को आप पूरा करें...
ऐ कवि,
जिस क्षण तू ये कविता लिख रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा
घर की ही बात लो तो
कई चित्र उभरते हैं
तुम्हारे धरोहर औऱ संस्कार
ऐसे टूट बिखरते हैं
कि कहीं कोई अपना अपनो से कट रहा होगा
बाप की ज़मीन का टुकड़ा बेटों में बंट रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा...
ये पंक्तियां मैने अपने कॉलेज के दिनों में लिखी। कम से कम दो पन्नों पर। इनमें ओजोन परत में बड़े हो रहे छेद पर भी लिखा...
पर्यावरण का प्रश्न अधिकार के बाहर है
खुद किया गया विनाश प्रतिकार के बाहर है
तू फ्रिज़ का पानी पी इधर... सो रहा होगा
ओजोन परत का छेद उधर... बड़ा हो रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा...
मेरी डायरी के ये पन्ने गुम गए। कई साल से ढूंढ़ रहा हूं। नहीं मिल रहे। लेकिन अगर आप इन पंक्तियों को आगे बढ़ा पाएं तो शायद तसल्ली मिले।
जिस क्षण तू ये कविता लिख रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा
घर की ही बात लो तो
कई चित्र उभरते हैं
तुम्हारे धरोहर औऱ संस्कार
ऐसे टूट बिखरते हैं
कि कहीं कोई अपना अपनो से कट रहा होगा
बाप की ज़मीन का टुकड़ा बेटों में बंट रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा...
ये पंक्तियां मैने अपने कॉलेज के दिनों में लिखी। कम से कम दो पन्नों पर। इनमें ओजोन परत में बड़े हो रहे छेद पर भी लिखा...
पर्यावरण का प्रश्न अधिकार के बाहर है
खुद किया गया विनाश प्रतिकार के बाहर है
तू फ्रिज़ का पानी पी इधर... सो रहा होगा
ओजोन परत का छेद उधर... बड़ा हो रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा...
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा...
मेरी डायरी के ये पन्ने गुम गए। कई साल से ढूंढ़ रहा हूं। नहीं मिल रहे। लेकिन अगर आप इन पंक्तियों को आगे बढ़ा पाएं तो शायद तसल्ली मिले।
Friday, April 18, 2008
पिता के छोड़ जाने पर बेटे की कलम से
Dear Friends,
I lost my father, a noted Urdu Journalist Shri Parwana Rudaulvi on 12 th April 2008. He never compromised on journalistic principles through out his life. He was 74. A true soldier of pen he wrote several books, articles and commentaries for AIR.
He had equal command over English and Urdu languages. He was a very good translator, an encyclopedia. I never saw him using dictionary for translations. He was awarded Dalmia award for National integration.Urdu Academy, Delhi also awarded him for his journalistic career. He was also awarded by UP Urdu Academy for his short stories collection JONK.
Urdu press all over India and Hindi Press in and around Lucknow, Faizabad, Barabanki have given wider coverages to untimely death of a such a rare soul. Daily Rashtriya Sahara Urdu brought out special supplement to pay homage to Shri Parwana Rudaulvi on 14th April 2008. We are receiving condolence messages from all over India and from unknown persons telling us how our father touched their heart with his good deed and writings. Urdu Newspapers are reporting about condolence meetings being held almost every day at places like Saharan Pur, Muradabad, Rampur, Deoband, Rudauli etc. Several literary and social organizations have sent their condolence messages to share our pain.
ON THURSDAY 17Th APRIL AT 5 PM , Naidunia National Forum is organizing a condolence meeting at GHALIB ACADEMY, Nizamuddin,New Delhi.
To know more about Shri Parwana Rudaulvi you can click following link on Rudauli on line
http://www.rudaulionline.com/parwanarudaulvi.htm
and on you tube on the following link.
http://www.youtube.com/watch?v=9XWkSYr6Tcg
Thanks for sharing our pain. Thank you Tehseen Munawer
I lost my father, a noted Urdu Journalist Shri Parwana Rudaulvi on 12 th April 2008. He never compromised on journalistic principles through out his life. He was 74. A true soldier of pen he wrote several books, articles and commentaries for AIR.
He had equal command over English and Urdu languages. He was a very good translator, an encyclopedia. I never saw him using dictionary for translations. He was awarded Dalmia award for National integration.Urdu Academy, Delhi also awarded him for his journalistic career. He was also awarded by UP Urdu Academy for his short stories collection JONK.
Urdu press all over India and Hindi Press in and around Lucknow, Faizabad, Barabanki have given wider coverages to untimely death of a such a rare soul. Daily Rashtriya Sahara Urdu brought out special supplement to pay homage to Shri Parwana Rudaulvi on 14th April 2008. We are receiving condolence messages from all over India and from unknown persons telling us how our father touched their heart with his good deed and writings. Urdu Newspapers are reporting about condolence meetings being held almost every day at places like Saharan Pur, Muradabad, Rampur, Deoband, Rudauli etc. Several literary and social organizations have sent their condolence messages to share our pain.
ON THURSDAY 17Th APRIL AT 5 PM , Naidunia National Forum is organizing a condolence meeting at GHALIB ACADEMY, Nizamuddin,New Delhi.
To know more about Shri Parwana Rudaulvi you can click following link on Rudauli on line
http://www.rudaulionline.com/parwanarudaulvi.htm
and on you tube on the following link.
http://www.youtube.com/watch?v=9XWkSYr6Tcg
Thanks for sharing our pain. Thank you Tehseen Munawer
Wednesday, April 16, 2008
20 farm suicides in three days in Vidarbha!
Despite the central government's unprecedented Rs.600 billion ($15 billion) loan waiver, farm suicides continue unabated in Vidarbha with as many as 20 of them reported from different districts of the region in the last 72 hours.
While the latest, of a 65-year-old farmer, was reported from village Kondala in eastern Vidarbha's Chandrapur district Saturday, 18 of the 20 suicides occurred in the region's western part, comprising Yavatmal, Amravati, Buldana, Akola and Washim districts.The Kondala farmer, Rambhau Kale, who jumped in a well Friday midnight, had taken Rs.95,000 in loans from two banks - the district cooperative bank and land development bank, besides some amounts borrowed from relatives, his family sources said.
'Besides being worried about the loan, the old man was also depressed because of his ill health and mounting medical bills,' Vidarbha Jan Andolan Samiti (VJAS) president Kishor Tiwari told IANS, quoting Rambhau's son Vitthal. Returning from a private hospital in the sub-district headquarter of Warora Friday morning, Rambhau reportedly told his son that he would 'die in debt'. Rambhau owned 10 acres of arid land and, therefore, was not eligible for the loan waiver, which is applicable only to farmers owning up to five acres. 'The optimism expressed by political leaders in the state including Chief Minister Vilasrao Deshmukh that the five-acre cap would be raised to 15 acres for the un-irrigated regions to cover farmers like him apparently didn't boost Rambhau's morale', Tiwari said.
Another of Vidarbha's baffling suicides was that of Babanrao Jeughale of village Varvand in Buldana district who Friday jumped onto a burning haystack. Son of a former moneylender, the 48-year-old Jeughale had sold four acres of land two years ago to raise money for his daughter's marriage.'Babanrao's second daughter is now marriageable and the prospect of having to sell off another chunk of land for her wedding had left him dejected,' his younger brother Dattatray told reporters. With a bank loan of over Rs.40,000, the farmer had yet another worry - of raising money to pay donation for his HSC-pass third daughter's admission to a D Ed (Diploma in Education) college or terminating her education, Dattatray said.
The 20 suicides, reported between Friday and Sunday, have taken the toll in Vidarbha since the announcement of the union budget to 116 and since Jan 1 this year to 282, the VJAS leader told IANS. Tiwari said, the loan waiver, even after raising the five-acre land holding cap, would not by itself end the complex agrarian crisis. 'Farmers, particularly the cotton cultivators in Vidarbha, must get remunerative prices for their produce. Also, a regulatory mechanism to reduce their input costs must be devised,' he said. Indo Asian News Service Nagpur, Maharashtra, India, 2008-04-13 20:45:02 (IndiaPRwire.com)
While the latest, of a 65-year-old farmer, was reported from village Kondala in eastern Vidarbha's Chandrapur district Saturday, 18 of the 20 suicides occurred in the region's western part, comprising Yavatmal, Amravati, Buldana, Akola and Washim districts.The Kondala farmer, Rambhau Kale, who jumped in a well Friday midnight, had taken Rs.95,000 in loans from two banks - the district cooperative bank and land development bank, besides some amounts borrowed from relatives, his family sources said.
'Besides being worried about the loan, the old man was also depressed because of his ill health and mounting medical bills,' Vidarbha Jan Andolan Samiti (VJAS) president Kishor Tiwari told IANS, quoting Rambhau's son Vitthal. Returning from a private hospital in the sub-district headquarter of Warora Friday morning, Rambhau reportedly told his son that he would 'die in debt'. Rambhau owned 10 acres of arid land and, therefore, was not eligible for the loan waiver, which is applicable only to farmers owning up to five acres. 'The optimism expressed by political leaders in the state including Chief Minister Vilasrao Deshmukh that the five-acre cap would be raised to 15 acres for the un-irrigated regions to cover farmers like him apparently didn't boost Rambhau's morale', Tiwari said.
Another of Vidarbha's baffling suicides was that of Babanrao Jeughale of village Varvand in Buldana district who Friday jumped onto a burning haystack. Son of a former moneylender, the 48-year-old Jeughale had sold four acres of land two years ago to raise money for his daughter's marriage.'Babanrao's second daughter is now marriageable and the prospect of having to sell off another chunk of land for her wedding had left him dejected,' his younger brother Dattatray told reporters. With a bank loan of over Rs.40,000, the farmer had yet another worry - of raising money to pay donation for his HSC-pass third daughter's admission to a D Ed (Diploma in Education) college or terminating her education, Dattatray said.
The 20 suicides, reported between Friday and Sunday, have taken the toll in Vidarbha since the announcement of the union budget to 116 and since Jan 1 this year to 282, the VJAS leader told IANS. Tiwari said, the loan waiver, even after raising the five-acre land holding cap, would not by itself end the complex agrarian crisis. 'Farmers, particularly the cotton cultivators in Vidarbha, must get remunerative prices for their produce. Also, a regulatory mechanism to reduce their input costs must be devised,' he said. Indo Asian News Service Nagpur, Maharashtra, India, 2008-04-13 20:45:02 (IndiaPRwire.com)
Friday, April 11, 2008
मज़बूती से टिके मुशर्रफ़
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने नवनिर्वाचित संसद के संयुक्त अधिवेशन की जगह सिर्फ नेशनल एसेंबली का सत्र बुलाया और इस तरह खुद को संसद के सामने अभिभाषण से दूर रखा। कई हलकों में इसका मतलब मुशर्रफ की लगातार कमज़ोर होती स्थिति से लगाया जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान में चुनाव के बाद से अब तक के कई तथ्य ऐसे हैं जो इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि मुशर्रफ अभी भी न सिर्फ मज़बूती के साथ अपने पद पर टिके हैं बल्कि अपनी कई शर्तें भी मनवाने में कामयाब रहे हैं। बीते फरवरी जैसे जैसे पाकिस्तान में चुनाव के ट्रेंड और नतीज़े सामने आ रहे थे तभी से मुशर्रफ़ की स्थिति को लेकर तरह तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। मैं उस समय रावलपिंडी और इस्लामाबाद के अलग अलग इलाक़ों में चुनाव से जुड़ी सूचनाएं जुटा रहा था। जब चुनाव के नतीज़े पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पीएमएल नवाज़ के हक़ में बढ़ रहे थे तभी दिल्ली से एक फोन आया। एक जानकार ने सूचना देने के अंदाज़ में पूछा कि सुना है मुशर्रफ देश छोड़ कर भागने वाले हैं। उसके लिए एक हवाई जहाज़ तैयार खड़ा है जो उन्हें टर्की ले जाएगा। मैंने छूटते ही कहा कि मुशर्रफ कहीं नहीं जा रहे। चुनाव के नतीजे जो भी हों, मुशर्रफ़ की संवैधानिक स्थिति देश के राष्ट्रपति की है। उस राष्ट्रपति की जिनके पास पाकिस्तान के संविधान की धारा 58 2बी के तहत किसी भी चुनी हुई संसद को कभी भी भंग कर देने का अधिकार है। वो राष्ट्रपति जो लंबे समय तक सेना प्रमुख की वर्दी में रहा और फिर देश में इमरजेंसी लगाने के बाद वर्दी उतारी और सिविलियन प्रेसीडेंट के तौर पर अपने को पेश कर दिया। सबसे बड़ी बात की मुशर्रफ अमेरिका के चहेते हैं और कई कारणों से अमेरिका मुशर्रफ के पीछे खड़ा है। ऐसे में मुशर्रफ की पार्टी बेशक बुरी तरह हार रही हो लेकिन इसका मुशर्रफ की व्यक्तिगत सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। आखिरकार अब तक हो भी वही रहा है।
बेनज़ीर की हत्या के बाद और चुनाव के पहले जब मैंने नवाज़ शरीफ से पूछा था कि क्या वे पीपीपी के साथ मिल कर चुनाव बना सकते हैं तो उनका जवाब था कि मुशर्रफ को शिकस्ते फाश करने के लिए अगर ऐसा ज़रुरी हुआ तो वो ऐसा ज़रुर करेंगे। तमाम रस्सकशी के बाद पीएमएल एन ने पीपीपी के साथ मिल कर सरकार बनायी। अवामी नेशनल पार्टी जैसी कुछ पार्टियां भी साथ आयीं। नवाज़ की पार्टी से मंत्री बने सांसदों को उसी मुशर्रफ ने शपथ दिलायी जिसे नवाज़ शरीफ आज भी गैर संवैधानिक राष्ट्रपति करार देने से नहीं चूकते। ज़ाहिर है नवाज़ शरीफ जैसे मंजे राजनीतिज्ञ के पास भी फिलवक्त मुशर्रफ का कोई काट नहीं है। वे मजबूरी में ही सही उन्हें राष्ट्रपति की भूमिका में स्वीकारना पड़ा है। बयानबाज़ी वो कुछ भी करते रहें। इस मामले में स्व. बेनज़ीर भुट्टो के पति और पीपीपी के सह अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी नवाज़ शरीफ से बीस साबित हो रहे हैं। मुशर्रफ ने चुनाव के आ रहे नतीजों के दौरान ही कहा कि वो नई सरकार के साथ कामकाज़ी रिश्ते बना कर चलने को तैयार हैं। हालांकि ये मुशर्रफ का भी मजबूरी भरा बयान था क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं बचा। लेकिन अव्वल तो मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति और फिर अमेरिका के दबाव ने ज़रदारी को भी समझौतावादी रुख अपनाने को बाध्य कर दिया। वो टकराव का रास्ता अपना बेनज़ीर के अमेरिकी दोस्तों का कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे और ना ही मुशर्रफ के हाथों पीपीपी की अगुवाई वाली सरकार को गिराना। लिहाज़ा उन्होने उल्टा नवाज़ शरीफ को ही मना लिया कि वो मुशर्रफ के 'शिकस्ते फाश' यानि जड़ से ख़त्म करने की ज़िद फिलहाल छोड़ दें। वही हुआ। नवनिर्वाचित सरकार के मुखिया यूसुफ रज़ा गिलानी ने भी मुशर्रफ के साथ चलने की बात दोहराई। बेशक स्पीकर फहमीदा मिर्ज़ा महाभियोग लाने जैसे बात करती नज़र आती हों, लेकिन सरकार चलती रहे इसके लिए ज़रूरी है कि मुशर्रफ के साथ 'वर्किंग रिलेशनशिप' बनाए रखा जाए।
फिलहाल पाकिस्तान में कई चीज़ें एक साथ चल रही हैं। मुशर्रफ विरोधी जजों की रिहाई तो कर दी गई लेकिन उन्हें बहाल नहीं किया गया। एक ख़बर आयी कि पीपीपी चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी को छोड़ कर बाक़ी सभी जजों की बहाली को तैयार है। इफ्तिखार को दरकिनार करने की ज़रदारी की कोशिश के पीछे एक वजह और है। मुशर्रफ ने 1973 के संविधान को ताक पर रख कर जिस प्रोविजिनल कांस्टीच्यूशनल आर्डर यानि पीसीओ के तहत जजों की बहाली की उन्ही के सौजन्य से ज़रदारी और बेनज़ीर को भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्ति मिली। तो अगर इफ्तिखार चौधरी ने दुबारा चीफ जस्टिस की कुर्सी संभाला तो पीसीओ के तहत लिए गए तमाम फैसलों के साथ साथ ये फैसला भी सवालों के घेरे में आ सकता है। इसलिए 3 नवबंर की इमरजेंसी के पहले के चीफ जस्टिस न सिर्फ मुशर्रफ बल्कि ज़रदारी के लिए भी ख़तरे की घंटी साबित हो सकते हैं। लेकिन चौधरी इफ्तिखार को बहाल नहीं करने का मतलब होगा नवाज़ शरीफ ने ज़रदारी के साथ जो चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी साइन किया है उसका सीधा सीधा उल्लंघन। ऐसे में नवाज़ की पार्टी को अपना चेहरा बचाने के लिए सरकार से निकलना पड़ सकता है। ऐसे में पीपीपी एमक्यूएम के साथ रिश्ते मज़बूत कर और मुशर्रफ की काफ़ लीग के क़रीब चार दर्जन सांसदों को साथ लेकर वैकल्पिक रणनीति बनाने की तरफ जा सकती है। बेशक सिंध सूबे में एमक्यूएम के साथ पीपीपी को मिलकर सरकार बनानी पड़ी हो। लेकिन पीपीपी का एक खेमा एमक्यूएम को कराची में अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का दोषी मानती है और वे एमक्यूएम को राष्ट्रीय सरकार में शामिल करने के बिल्कुल खिलाफ है। ऐसे में पार्टी की टूट की बात भी कही जा रही है। हालांकि ऐसा होने की संभावना काफी कम है। इसके पीछे वजह ये है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मखदूम अमीन फहीम, शाह महमूद कुरैशी और चौधरी अहमद मुख्तार जैसे नामों को उछाल इनके आपस में खींचतान पैदा करने के बाद ज़रदारी ने बड़ी होशियारी से यूसुफ रज़ा गिलानी को प्रधानमंत्री बनवा दिया। इससे असंतुष्ट का कोई बड़ा गुट नहीं बचा बल्कि वो छोटे छोटे गुट में बंट गए। इस बीच ज़रदारी के हैदराबाद के भरोसेमंद सांसद ने ज़रदारी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा की बात फैला कर एक तरह पार्टी के भीतर और बाहर की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की। ज़रदारी के नेशनल एसेंबली में चुन कर आ जाने के बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर एक बार फिर खींचतान की आशंका अभी ख़त्म नहीं हुई है।
इन सब बातों के बीच एक बात जो नहीं बदली प्रतीत होती है वो है पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ की स्थिति। मुशर्रफ़ ने हाल के अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि अगर वे अपने पद से हटे तो अमेरिका पाकिस्तान के कबाईली इलाक़े पर हमला कर देगा। उनका कहना है कि अमेरिका उन्हीं की वजह से पाकिस्तान में सीधे उतरने से रुका हुआ है। नहीं तो तालिबान और अलक़ायदा जैसी ताक़तों से निपटने के लिए वो अपनी फौज़ पाकिस्तान में उतारने तनिक भी देर नहीं लगाएगा। मुशर्रफ का ये बयान अमेरिका के खिलाफ नहीं है। बल्कि नई नई आयी जम्हूरियत के उन नुमाइंदों के खिलाफ है जो मुशर्रफ का ताज़ छीनने की मंशा पाले हुए हैं। हो सकता है कि ये बयान अमेरिकी शह पर ही दिया गया हो ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।
बेनज़ीर की हत्या के बाद और चुनाव के पहले जब मैंने नवाज़ शरीफ से पूछा था कि क्या वे पीपीपी के साथ मिल कर चुनाव बना सकते हैं तो उनका जवाब था कि मुशर्रफ को शिकस्ते फाश करने के लिए अगर ऐसा ज़रुरी हुआ तो वो ऐसा ज़रुर करेंगे। तमाम रस्सकशी के बाद पीएमएल एन ने पीपीपी के साथ मिल कर सरकार बनायी। अवामी नेशनल पार्टी जैसी कुछ पार्टियां भी साथ आयीं। नवाज़ की पार्टी से मंत्री बने सांसदों को उसी मुशर्रफ ने शपथ दिलायी जिसे नवाज़ शरीफ आज भी गैर संवैधानिक राष्ट्रपति करार देने से नहीं चूकते। ज़ाहिर है नवाज़ शरीफ जैसे मंजे राजनीतिज्ञ के पास भी फिलवक्त मुशर्रफ का कोई काट नहीं है। वे मजबूरी में ही सही उन्हें राष्ट्रपति की भूमिका में स्वीकारना पड़ा है। बयानबाज़ी वो कुछ भी करते रहें। इस मामले में स्व. बेनज़ीर भुट्टो के पति और पीपीपी के सह अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी नवाज़ शरीफ से बीस साबित हो रहे हैं। मुशर्रफ ने चुनाव के आ रहे नतीजों के दौरान ही कहा कि वो नई सरकार के साथ कामकाज़ी रिश्ते बना कर चलने को तैयार हैं। हालांकि ये मुशर्रफ का भी मजबूरी भरा बयान था क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं बचा। लेकिन अव्वल तो मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति और फिर अमेरिका के दबाव ने ज़रदारी को भी समझौतावादी रुख अपनाने को बाध्य कर दिया। वो टकराव का रास्ता अपना बेनज़ीर के अमेरिकी दोस्तों का कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे और ना ही मुशर्रफ के हाथों पीपीपी की अगुवाई वाली सरकार को गिराना। लिहाज़ा उन्होने उल्टा नवाज़ शरीफ को ही मना लिया कि वो मुशर्रफ के 'शिकस्ते फाश' यानि जड़ से ख़त्म करने की ज़िद फिलहाल छोड़ दें। वही हुआ। नवनिर्वाचित सरकार के मुखिया यूसुफ रज़ा गिलानी ने भी मुशर्रफ के साथ चलने की बात दोहराई। बेशक स्पीकर फहमीदा मिर्ज़ा महाभियोग लाने जैसे बात करती नज़र आती हों, लेकिन सरकार चलती रहे इसके लिए ज़रूरी है कि मुशर्रफ के साथ 'वर्किंग रिलेशनशिप' बनाए रखा जाए।
फिलहाल पाकिस्तान में कई चीज़ें एक साथ चल रही हैं। मुशर्रफ विरोधी जजों की रिहाई तो कर दी गई लेकिन उन्हें बहाल नहीं किया गया। एक ख़बर आयी कि पीपीपी चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी को छोड़ कर बाक़ी सभी जजों की बहाली को तैयार है। इफ्तिखार को दरकिनार करने की ज़रदारी की कोशिश के पीछे एक वजह और है। मुशर्रफ ने 1973 के संविधान को ताक पर रख कर जिस प्रोविजिनल कांस्टीच्यूशनल आर्डर यानि पीसीओ के तहत जजों की बहाली की उन्ही के सौजन्य से ज़रदारी और बेनज़ीर को भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्ति मिली। तो अगर इफ्तिखार चौधरी ने दुबारा चीफ जस्टिस की कुर्सी संभाला तो पीसीओ के तहत लिए गए तमाम फैसलों के साथ साथ ये फैसला भी सवालों के घेरे में आ सकता है। इसलिए 3 नवबंर की इमरजेंसी के पहले के चीफ जस्टिस न सिर्फ मुशर्रफ बल्कि ज़रदारी के लिए भी ख़तरे की घंटी साबित हो सकते हैं। लेकिन चौधरी इफ्तिखार को बहाल नहीं करने का मतलब होगा नवाज़ शरीफ ने ज़रदारी के साथ जो चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी साइन किया है उसका सीधा सीधा उल्लंघन। ऐसे में नवाज़ की पार्टी को अपना चेहरा बचाने के लिए सरकार से निकलना पड़ सकता है। ऐसे में पीपीपी एमक्यूएम के साथ रिश्ते मज़बूत कर और मुशर्रफ की काफ़ लीग के क़रीब चार दर्जन सांसदों को साथ लेकर वैकल्पिक रणनीति बनाने की तरफ जा सकती है। बेशक सिंध सूबे में एमक्यूएम के साथ पीपीपी को मिलकर सरकार बनानी पड़ी हो। लेकिन पीपीपी का एक खेमा एमक्यूएम को कराची में अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का दोषी मानती है और वे एमक्यूएम को राष्ट्रीय सरकार में शामिल करने के बिल्कुल खिलाफ है। ऐसे में पार्टी की टूट की बात भी कही जा रही है। हालांकि ऐसा होने की संभावना काफी कम है। इसके पीछे वजह ये है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मखदूम अमीन फहीम, शाह महमूद कुरैशी और चौधरी अहमद मुख्तार जैसे नामों को उछाल इनके आपस में खींचतान पैदा करने के बाद ज़रदारी ने बड़ी होशियारी से यूसुफ रज़ा गिलानी को प्रधानमंत्री बनवा दिया। इससे असंतुष्ट का कोई बड़ा गुट नहीं बचा बल्कि वो छोटे छोटे गुट में बंट गए। इस बीच ज़रदारी के हैदराबाद के भरोसेमंद सांसद ने ज़रदारी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा की बात फैला कर एक तरह पार्टी के भीतर और बाहर की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की। ज़रदारी के नेशनल एसेंबली में चुन कर आ जाने के बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर एक बार फिर खींचतान की आशंका अभी ख़त्म नहीं हुई है।
इन सब बातों के बीच एक बात जो नहीं बदली प्रतीत होती है वो है पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ की स्थिति। मुशर्रफ़ ने हाल के अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि अगर वे अपने पद से हटे तो अमेरिका पाकिस्तान के कबाईली इलाक़े पर हमला कर देगा। उनका कहना है कि अमेरिका उन्हीं की वजह से पाकिस्तान में सीधे उतरने से रुका हुआ है। नहीं तो तालिबान और अलक़ायदा जैसी ताक़तों से निपटने के लिए वो अपनी फौज़ पाकिस्तान में उतारने तनिक भी देर नहीं लगाएगा। मुशर्रफ का ये बयान अमेरिका के खिलाफ नहीं है। बल्कि नई नई आयी जम्हूरियत के उन नुमाइंदों के खिलाफ है जो मुशर्रफ का ताज़ छीनने की मंशा पाले हुए हैं। हो सकता है कि ये बयान अमेरिकी शह पर ही दिया गया हो ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।
Tuesday, April 8, 2008
'ज़मीन-ए-हिंद में क़ाबिल बिहार वाले हैं...'
'ज़मीन-ए-हिंद में क़ाबिल बिहार वाले हैं...' ये मेरा कहना नहीं है... ब्लू लाइन बस से लेकर होली के त्योहार तक पर... मुशर्रफ की हार से लेकर ऑस्ट्रेलिया की हेकड़ी तक पर... ऐसी ही कई और पंक्तियां हैं जो आप देख सकते हैं नीचे की लिंक पर क्लिक करके... तहसीन मुनव्वर की कलम से...
http://www.youtube.com/watch?v=EiICOywMEpo
शुक्रिया
http://www.youtube.com/watch?v=EiICOywMEpo
शुक्रिया
Tuesday, April 1, 2008
It's a mail from Pakistan...Must read it & be mindful!
Dear All,
BE CAREFUL
Military intelligence has information that terrorists have devised a new method of targeting and exploding bombs.
Example - You park your vehicle in a public area and go away to attend to your job. Some one can plant a bomb in your vehicle connected with GPS system and track your movements/whereabouts and activate the bomb when you are passing or close to the desired target area.
Hence it is best for us to be vigilant at all times as this could be a possibility which the terrorists will look at.
This works same as a Tracking Device works, that we normally use to secure our vehicles. A Sms is sent on the SIM installed on that device, and upon receiving the sms, the device sends back the Latitude and Longitude of its current location. The terrorist can easily use google earth or his own built-in maps to figure out the location of the vehicle.
The difference here is, that another sms can be send to the device, instructing it to activate the bomb. and it works. The bad side of this is unknowingly you can be carrying a bomb with you and if you are stopped at a check point you will become an innocent victim and it goes without saying what trouble you will have to go through thereafter.
Please be mindful of such possibilities.
Forward this to your loved ones please, so that we all can stop the acts of these evil minds who are busy in bringing a bad name to our nation. It’s a very high-tech kind of thing but its better to have our eyes n ears open as its believed that recent bomb blast at Islamabad was conducted by using the same method. During the period of 15th March till 31st March, Liberty Market Lahore, Fortress Stadium and DHA…
from
s.basheer
BE CAREFUL
Military intelligence has information that terrorists have devised a new method of targeting and exploding bombs.
Example - You park your vehicle in a public area and go away to attend to your job. Some one can plant a bomb in your vehicle connected with GPS system and track your movements/whereabouts and activate the bomb when you are passing or close to the desired target area.
Hence it is best for us to be vigilant at all times as this could be a possibility which the terrorists will look at.
This works same as a Tracking Device works, that we normally use to secure our vehicles. A Sms is sent on the SIM installed on that device, and upon receiving the sms, the device sends back the Latitude and Longitude of its current location. The terrorist can easily use google earth or his own built-in maps to figure out the location of the vehicle.
The difference here is, that another sms can be send to the device, instructing it to activate the bomb. and it works. The bad side of this is unknowingly you can be carrying a bomb with you and if you are stopped at a check point you will become an innocent victim and it goes without saying what trouble you will have to go through thereafter.
Please be mindful of such possibilities.
Forward this to your loved ones please, so that we all can stop the acts of these evil minds who are busy in bringing a bad name to our nation. It’s a very high-tech kind of thing but its better to have our eyes n ears open as its believed that recent bomb blast at Islamabad was conducted by using the same method. During the period of 15th March till 31st March, Liberty Market Lahore, Fortress Stadium and DHA…
from
s.basheer
Monday, March 31, 2008
एक ब्लॉगर की आखिरी पोस्ट
ब्लॉगर साथी अजय रोहिला का साथ छूट चुका है। अजय के ब्लॉग चौपाल http://nairaahe.blogspot.com/ पर ये आखिरी पोस्ट है। ये अजय की संवेदनशीलता दर्शाती है। चौपाल पर आकर अजय को श्रद्धांजलि दें।
Monday, February 18, 2008
मौत..... दयालुता के साथ
यह बीबीसी की हैडलाइन स्टोरी है..... अग्रेज वाकई में बड़े नमॆदिल और दयालु प्रवॆति के होते है........अमरीका के कृषि विभाग (यूएसडीए) ने क़रीब साढ़े छह करोड़ किलो गोश्त वापस लौटाने का आदेश दिया है. देश के इतिहास में मांस की वापसी का यह सबसे बड़ा आदेश है. ह्यूमन सोसायटी ऑफ़ अमेरिका के एक वीडियो शॉट के प्रकाश में आने के बाद संयंत्र के कामकाज को रुकवा दिया गया है.
किसी अमेरिकी चैनल पर एक वीडियो में दिखाया गया है कि कैसे बीमार और कमज़ोर पशुओं को संयंत्र के कर्मचारी बाँधते हैं, मारते हैं, विद्युत करंट लगाते हैं और तेज दबाव से उन पर पानी डालते हैं। संयंत्र के दो पूर्व कर्मचारियों पर शुक्रवार को पशुओं के साथ क्रूरता करने का आरोप लगाया गया जिसकी जाँच अभी जारी है
क्रप्या इस लाइन को थोड़ा तसल्ली से पढ़े....कंपनी का कहना है कि वह यह सुनिश्चित करने के लिए अब कार्रवाई कर रही है ताकि सभी कर्मचारी पशुओं के साथ दयालुता के साथ पेश आएं.(पढ़े दयालुता से मारा जाए)साला ...जब किसी को मौत देनी ही है तो इसमें दयालुता दिखाकर कौन सा हथिनी की.....पर भाला मार देगे... उन बेजुबानों को आखिरकार मिलनी तो मौत ही है.... क्या कहते है
Posted by अजय रोहिला at 11:39 AM 4 comments Links to this post
Monday, February 18, 2008
मौत..... दयालुता के साथ
यह बीबीसी की हैडलाइन स्टोरी है..... अग्रेज वाकई में बड़े नमॆदिल और दयालु प्रवॆति के होते है........अमरीका के कृषि विभाग (यूएसडीए) ने क़रीब साढ़े छह करोड़ किलो गोश्त वापस लौटाने का आदेश दिया है. देश के इतिहास में मांस की वापसी का यह सबसे बड़ा आदेश है. ह्यूमन सोसायटी ऑफ़ अमेरिका के एक वीडियो शॉट के प्रकाश में आने के बाद संयंत्र के कामकाज को रुकवा दिया गया है.
किसी अमेरिकी चैनल पर एक वीडियो में दिखाया गया है कि कैसे बीमार और कमज़ोर पशुओं को संयंत्र के कर्मचारी बाँधते हैं, मारते हैं, विद्युत करंट लगाते हैं और तेज दबाव से उन पर पानी डालते हैं। संयंत्र के दो पूर्व कर्मचारियों पर शुक्रवार को पशुओं के साथ क्रूरता करने का आरोप लगाया गया जिसकी जाँच अभी जारी है
क्रप्या इस लाइन को थोड़ा तसल्ली से पढ़े....कंपनी का कहना है कि वह यह सुनिश्चित करने के लिए अब कार्रवाई कर रही है ताकि सभी कर्मचारी पशुओं के साथ दयालुता के साथ पेश आएं.(पढ़े दयालुता से मारा जाए)साला ...जब किसी को मौत देनी ही है तो इसमें दयालुता दिखाकर कौन सा हथिनी की.....पर भाला मार देगे... उन बेजुबानों को आखिरकार मिलनी तो मौत ही है.... क्या कहते है
Posted by अजय रोहिला at 11:39 AM 4 comments Links to this post
अजय रोहिला का यूं चले जाना
आप में से कई अजय को जानते होंगे। एक सक्रिय ब्लॉगर और पाठक। सटीक टिप्पणीकार। अचानक पता चला कि होली के दिन वो हमारे बीच नहीं रहा। ब्रेन हैमरेज का शिकार हो गया। अजय से मैं कभी व्यक्तिगत तौर पर नहीं मिला। लेकिन अजय के बड़े भाई संजय रोहिला और मैंने जम्मू और कश्मीर में लंबा वक्त बिताया है। अजय अक्सर उन तस्वीरों के बारे में पूछा करता था जो हमने साथ खींचे थे। अब बस सिर्फ अफसोस है। इतनी कम उम्र में ऐसे जाना। पीछे अपनी पत्नी और गोद में एक छोटी बच्ची को छोड़ जाना। हिम्मत नहीं हो रही कुछ लिखने की। फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि चाहता हूं कि हमारे बीच के एक शख्स को हम सभी याद करें।
हमारी श्रद्धांजलि!
हमारी श्रद्धांजलि!
Sunday, March 16, 2008
सरबजीत को फांसी और ख़बरबाज़ी
patinetsसरबजीत को 1 अप्रैल को फांसी की ख़बर पाकिस्तान के एक उर्दू अख़बार डेली एक्सप्रेस के हवाले से आयी। जब मुझे जानकारी मिली तो मैंने इसकी आधिकारिक पुष्टि चाही। कोट लखपत जेल के सुपरिटेंडेंट जावेद लतीफ को फोन घुमाया। रविवार को वे उपलब्ध नहीं थे। पाकिस्तान के इंटेरियर मिनिस्टर हमीद नवाज़ ने भी अपना फोन नहीं उठाया। लाहौर पुलिस के डिप्टी डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन अतहर खान ने इस बाबत कोई जानकारी होने से मना कर दिया। बिना आधिकारिक पुष्टि के मैं इस ख़बर को रोके हुए था। क़रीब घंटे डेढ़ घंटे बाद एक हिन्दी और एक अंग्रेज़ी चैनल पर ये ख़बर चल पड़ी। सरबजीत को एक अप्रैल को फांसी...। अजीब हैरत की स्थिति थी। उनके पास भी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं लेकिन ख़बर लपक ली गई। एंजेसी के ज़रिए जो ख़बर आयी उसमें भी आधिकारिक पुष्टि नहीं होने की बात थी।
एक चैनल ने पाकिस्तान के मानवाधिकार मंत्री अंसार बर्नी के हवाले से पट्टी चलानी शुरु की। लेकिन मेरी बात बर्नी साहब से हुई तो उन्होने भी इस ख़बर के कंफर्मेशन से मना किया। उस चैनल को ऐसा कुछ कहने से भी। कहा सोमवार 10-11 बजे तक ही कहा जा सकेगा। क्योंकि ये सिर्फ दो मुल्कों के आपसी रिश्तों का ही नहीं एक पूरे परिवार की संवेदना से जुड़ा मामला भी है। चैनलों पर ख़बर चलने के साथ ही सरबजीत के परिवार की मन स्थिति का अंदाज़ा मुझे हो रहा था।
भगवान ना करे सच हो... पर अगर फांसी की तारीख मुकर्रर हो भी गई है तो होनी अपना काम करेगा। लेकिन मेरा प्वाईंट सिर्फ इतना है कि क्या आधिकारिक पुष्टि होने तक इस ख़बर को रोका नहीं जा सकता था? क्या सरबजीत के परिवारवालों की एक और रात की नींद उड़ने से बचाया नहीं जा सकता था। सच है कि ख़बर हमने भी चलायी लेकिन इस पर फोकस करते हुए कि सरबजीत के रिहा होने की उम्मीद अभी पूरी तरह टूटी नहीं है। दया याचिका के दो मौक़े उसके पास और हैं। शायद ऊपरवाला सुन ले।
एक चैनल ने पाकिस्तान के मानवाधिकार मंत्री अंसार बर्नी के हवाले से पट्टी चलानी शुरु की। लेकिन मेरी बात बर्नी साहब से हुई तो उन्होने भी इस ख़बर के कंफर्मेशन से मना किया। उस चैनल को ऐसा कुछ कहने से भी। कहा सोमवार 10-11 बजे तक ही कहा जा सकेगा। क्योंकि ये सिर्फ दो मुल्कों के आपसी रिश्तों का ही नहीं एक पूरे परिवार की संवेदना से जुड़ा मामला भी है। चैनलों पर ख़बर चलने के साथ ही सरबजीत के परिवार की मन स्थिति का अंदाज़ा मुझे हो रहा था।
भगवान ना करे सच हो... पर अगर फांसी की तारीख मुकर्रर हो भी गई है तो होनी अपना काम करेगा। लेकिन मेरा प्वाईंट सिर्फ इतना है कि क्या आधिकारिक पुष्टि होने तक इस ख़बर को रोका नहीं जा सकता था? क्या सरबजीत के परिवारवालों की एक और रात की नींद उड़ने से बचाया नहीं जा सकता था। सच है कि ख़बर हमने भी चलायी लेकिन इस पर फोकस करते हुए कि सरबजीत के रिहा होने की उम्मीद अभी पूरी तरह टूटी नहीं है। दया याचिका के दो मौक़े उसके पास और हैं। शायद ऊपरवाला सुन ले।
जूता चोर, गद्दी छोड़, जूता-खोर
ये वैसा ही जूता है जिसे लेकर शोर मच रहा है। द्रास के पास मच्छोई ग्लेशियर पर भारतीय सेना के जवानों के लिए विंटर वार फेयर ट्रेनिंग पर डॉक्यूमेंटरी बनाते समय मुझे ये आज से सात आठ साल पहले पहनना पड़ा था। ये जूते कहां के बने हैं और इनकी कब ख़रीद हुई ये मुझे नहीं पता... पर इन जूतों में भी पैर को ठंड से तसल्ली नहीं थी। मैं दो-तीन जुराबें पहना करता था। जूते उतारते वक्त तब भी जुराबों में नमी जमी मिला करती थीं। बर्फ के तौर पर। हालांकि तब एनडीए की सरकार थी। सीएजी की रिपोर्ट अब खुलासा कर रही है कि फौज़ियों के जूतों की ख़रीददारी में घपला हुआ है। यूपीए के ज़माने में।
जूता चोर... गद्दी छोड़... जूताखोर... सोमवार को संसद में शायद यही नारा लगने वाला है। सियाचिन जैसे जमा देने वाले इलाक़ों में तैनात भारतीय सेना के जवानों के लिए ख़रीदे जा रहे जूतों में धांधली की बात सीएजी रिपोर्ट में सामने आने के बाद विपक्ष चुप नहीं बैठने वाला। ख़ासतौर पर वो एनडीए, जिसके रक्षा मंत्री रहे जॉर्ज फर्नाडिस पर ताबूत घोटाले का आरोप लगाते हुए यूपीए ने ताबूत चोर तक करार दिया था।
Sunday, March 2, 2008
चैनलों के लिए आधे घंटे का मसाला!
भारत आस्ट्रेलिया के आज के मैच के दौरान एक दर्शक नंग धरंग मैदान में घुस आया। सुरक्षाकर्मियों ने तौलिया लपेट कर उसे बाहर निकाला। इस घटना के बाद मैदान पर दर्शकों के व्यवहार के बहाने न्यूज़ चैनलों के लिए विशेष दिखाने का अच्छा मौक़ा है। देखते हैं कौन सा चैनल मैदान मारता है!
Friday, February 29, 2008
जब आईएसआई वाले पीछे पड़े
इस बार की पाकिस्तान यात्रा में एक बात जो सबसे ज़्यादा एविडेंट रही वो थी हमारा लगातार पीछा किया जाना। पहले दो दिन तो मैंने नोटिस नहीं किया लेकिन चुनाव के दिन यानि 18 फरवरी की शाम तक साफ नज़र आने लगा। एक कार लगातार हमारे पीछे थी। यहां तक कि शाम को जब हम शाम को पीपीपी के सीनेटर अनवर बेग का घर ढूंढ़ रहे थे तो वो कार पीछे आकर लगी। हमें जल्दी थी क्योंकि इंटरव्यू निपटा कर लाईव के लिए पहुंचना था। पीछे से आवाज़ आयी कहां जाना है। मैंने कहा अनवर बेग के घर। तो आवाज़ आयी हमसे पूछें ना। ख़ैर उन्होने ने बता ये कि ये घर है। हम वापस आए तो वो फिर पीछे थे। हमें ज़हूर प्लाज़ा पहुंचना था। मुझे पता था सो पहुंच गया। पीछे वही कार। मुझसे नहीं रहा गया। मैं उतर कर उनके पास गया। कहा बस आधे पौने घंटे की बात है। फिर हम भी फ्री आप भी फ्री। अचंभे से वे बोले। अच्छा। मैंने कहा। बिल्कुल। उन्होने ने पूछा उसके बाद आप कहां जाएंगे। मैंने कहा होटल। और आप भी जाकर आराम करें। ख़ैर। लाईव के बाद मैं वापस लौटा तो वे अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थे। मैंने कहा चलें। तो वे बातचीत पर उतर आए। हिन्दुस्तानियों और पाकिस्तानियों को लेकर दोनों मुल्कों मे शक सुबहों को लेकर कई बातें हुईं। पांच मिनट में ही। फिर मैंने कहा कि आप कभी हिन्दुस्तान आएं तो ये मेरा कार्ड है और फोन नंबर। मेरे घर ठहरें। शर्त एक ही है कि साफ मंशा से आएं। जैसे मैं आया हूं। हमेशा आपके साथ रहूंगा। कोई आपको हाथ नहीं लगाएगा जैसे आप हमें नहीं लगा पा रहे।
वे वापस होटल तक आए। लेकिन उसके बाद कभी पीछे नहीं आए। हमारे ड्राईवर का नंबर ले लिया था उन्होने। हर घंटे उसे फोन किया करते थे। हमारे बारे में पूछने के लिए। लेकिन पीछे नहीं पड़े फिर। एक रात इस्लामाबाद में हम क़रीब सुबह तीन बजे लौटे। फुल दारू पी के। ड्राईवर को भी नहीं पता था कि कहां से लौट रहे हैं। अगले दिन होटल हॉली डे इन के रिसेप्शन पर वे बैठे मिले। मैंने कहा पीछे आने की ज़रूरत नहीं। साथ हमारी कार में ही चलें। उन्होने कहा ज़रुरत नहीं। खाली इतना बता दें रात कहां थे। मैंने कहा सरमत मंज़ूर साहब के यहां। उन्होने कहा ओके। आप जाएं। हमें पीछे आने की ज़रुरत नहीं। उन्होने जो नहीं कहा शायद वो ये कि आपके पीछे आकर भी हमें कुछ नया नहीं मिलने वाला क्योंकि आप जहां जाते हैं खुद ही बता देते हैं।
वे वापस होटल तक आए। लेकिन उसके बाद कभी पीछे नहीं आए। हमारे ड्राईवर का नंबर ले लिया था उन्होने। हर घंटे उसे फोन किया करते थे। हमारे बारे में पूछने के लिए। लेकिन पीछे नहीं पड़े फिर। एक रात इस्लामाबाद में हम क़रीब सुबह तीन बजे लौटे। फुल दारू पी के। ड्राईवर को भी नहीं पता था कि कहां से लौट रहे हैं। अगले दिन होटल हॉली डे इन के रिसेप्शन पर वे बैठे मिले। मैंने कहा पीछे आने की ज़रूरत नहीं। साथ हमारी कार में ही चलें। उन्होने कहा ज़रुरत नहीं। खाली इतना बता दें रात कहां थे। मैंने कहा सरमत मंज़ूर साहब के यहां। उन्होने कहा ओके। आप जाएं। हमें पीछे आने की ज़रुरत नहीं। उन्होने जो नहीं कहा शायद वो ये कि आपके पीछे आकर भी हमें कुछ नया नहीं मिलने वाला क्योंकि आप जहां जाते हैं खुद ही बता देते हैं।
Saturday, February 23, 2008
एक तरफ जनादेश, दूसरी तरफ ज़रदारी
(अमर उजाला, सोमवार 25 फरवरी के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
चुनाव नतीजे आने के बाद पाकिस्तान में तुरंत सरकार बन जानी चाहिए थी। ख़ासतौर पर तब जब पीएमएल एन और पीपीपी चुनाव के पहले से ही साथ चलने की बात करते रहे हैं। अब जबकि 272 जेनरल सीटों वाली नेशनल एसेंबली में पीपीपी 87 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी और पीएमएल एन 67 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है तो फिर इन्हें मिल कर सरकार बनाने में देरी क्यों हो रही है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के राजनीतिक परिदृश्य में ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है।
चुनाव के पहले मुशर्रफ को पानी पी पी कर कोसने में पीपीपी को फायदा था। हालांकि बेनज़ीर मुशर्रफ के साथ समझौते के तहत ही पाकिस्तान लौटीं थी और चुनाव में शिरकत कर रही थी। लेकिन चुनाव में धांधली और संविधान की धारा 58 2बी के सवाल पर मुशर्रफ से उनका समझौता अंतिम रुप नहीं ले पा रहा था। इसी बीच बेनज़ीर की हत्या हो गई। पीपीपी ने मुशर्रफ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। मुशर्रफ समर्थक सत्तारुढ पार्टी पीएमएल क्यू के कई नेताओं पर इल्ज़ाम लगाया और हत्या के लिए सरकार में बैठे लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया। लेकिन पार्टी चुनाव से हटी नहीं। बेनज़ीर की हत्या से उपजी सहानूभुति का फायदा मिलने की उसे उम्मीद थी और कुछ हद तक वो हुआ भी।
इधर नवाज़ शरीफ जो 1993 तक जिनकी बेनज़ीर से बातचीत भी नहीं होती थी... बेनज़ीर की हत्या के बाद उसे अपनी बहन करार देने लगे। चुनाव से हटे लेकिन पीपीपी के मैदान में डटे रहने के कारण अपनी पार्टी को भी चुनाव में उतार दिया। नवाज़ और ज़रदारी कई मौकों पर मिले और जम्हूरियत की जंग में साथ लड़ने की बात की। इन्हें चुनाव में धांधली की आशंका भी सताती रही। लेकिन ख़तरों के बावजूद अवाम वोट डालने निकली और चुनाव ठीक-ठाक हो गए। किसी पार्टी को उम्मीद से कुछ कम तो किसी को कुछ ज़्यादा... लेकिन अपने-अपने हिस्से की सीटें मिल गईं। चुनाव नतीजों के बाद अब पहले की भावनात्मक ऐलानों का वास्ता अब ज़मीनी हक़ीकतों से हो रहा है। इसके केन्द्र में हैं पीपीपी और उनके सह-अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी।
मुशर्रफ विरोध के सहारे सीटें बटोरने वाली पीपीपी को मुशर्रफ़ को नज़रअंदाज करना अब नामुमकिन लग रहा है। वजह कई है। नंबर एक। मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति राष्ट्रपति की है। सरकार बनाने का न्यौता उन्हीं के हाथ में है। नंबर दो। पाकिस्तान के राष्ट्रपति को ये अख्तियार है कि वो किसी चुनी हुई नेशनल एसेंबली को कभी भी भंग कर सकते हैं। संविधान की धारा 58 2बी के ज़रिए। ज़ाहिर है कि ऐसे में मुशर्रफ को नाराज़ करने वाले फैसले करना पीपीपी के लिए आसान नहीं है। मुशर्रफ कह रहे हैं कि वो नई सरकार के साथ काम करने को तैयार है। लेकिन वो नवबंर तीन के पहले की अदालत की बहाली के ज़बर्दस्त खिलाफ हैं। इमरजेंसी लगाए जाने के पहले की अदालत और चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की फिर से बहाली का मतलब होगा मुशर्रफ के खिलाफ उस मामले का फिर से खुलना जिसमें जेनरल की वर्दी पहन उनके राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की वैधता को चुनौती दी गई थी। अगर वो मामला दुबारा खुला तो मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हाथ धोना पड़ सकता है। उनके खिलाफ महाभियोग लगाने की ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी। अब ज़रदारी को डर ये है कि अगर पुरानी अदालत को बहाल करने की नवाज़ शरीफ की शर्त को उन्होंने माना तो उनकी सरकार चंद घंटों की मेहमान ना साबित हो।
महाभियोग लाने की नवाज़ की शर्त मानने पर डर ये है कि कोई भी सेना अपने पूर्व चीफ पर इस तरह का अभियोग बर्दाश्त नहीं करेगी। मुशर्रफ ने बेशक वर्दी उतार दी हो लेकिन सेना ने उन्हें सिर से उतारा नहीं है। पाकिस्तान में सरकार चलाने के लिए सेना से अच्छे संबंद ज़रुरी हैं और ज़रदारी पाकिस्तान की इस सच्चाई को समझते हुए सेना से अपने संबंध खराब नहीं करना चाहेंगे। इसलिए नवाज़ शरीफ की महाभियोग जैसी शर्त मानने में वो हिचक रहे हैं।
इसके अलावा अमेरिका का दबाव भी ज़रदारी पर काम कर रहा है। अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा सत्ता में दोनों को भागीदारी देने का फार्मूला अपनाया था। ताकि दोनों के ज़रिए पाकिस्तान और इस इलाके में अमेरिकी हित सधते रहें। बेनज़ीर बेशक ना रही हो लेकिन अमेरिका अपने लिए स्थिति में बदलाव नहीं चाहता है। उसने ‘साफ-सुथरे’ चुनाव के लिए मुशर्रफ की तारीफ की है। ये भी जता दिया है उन्हें मुशर्रफ चाहिए। बेनज़ीर की जो भूमिका अमेरिकी ने तय की थी वो चाहता है कि अब ज़रदारी उस भूमिका को आगे बढ़ाएं। ऐसे में प्रधानमंत्री पद की पेशकश ज़रदारी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को हवा दे दे तो हैरानी की बात नहीं। वैसे भी चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए मकदूम अमीन फहीम का नाम आगे करने वाले ज़रदारी अब कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री कौन होगा ये आगे तय होगा।
पीपीपी की नेतृत्व वाली नई सरकार को लेकर एक तरफ ये तमाम दबाव और आशंकाएं हैं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हैं तो दूसरी तरफ है जनादेश। जनादेश मुशर्रफ के खिलाफ है। ऐसे में ज़रदारी अमेरिका और राष्ट्रपति मुशर्रफ के दबाव में आकर पीएमल क्यू जैसी पार्टियों के साथ सरकार बनाने की कोशिश करते नज़र आते हैं तो अवाम भड़क सकती है। वकीलों का आंदोलन और ज़ोर पकड़ सकता है। नवाज़ शरीफ का कद इस हद तक बड़ा हो सकता है कि अगली किसी चुनाव की सूरत में पीपीपी हाशिए पर न चली जाए। या फिर सरकार बनाने के पहले ही पीपीपी ही ना टूट जाए क्योंकि पार्टी में प्रधानमंत्री के पद और बेनज़ीर की राजनीतिक विरासत समेत कई मुद्दों पर मतैक्य नहीं है। मौजूदा हालात की मजबूरी में एक रखे हुई है।
कुल मिला कर ज़रदारी एक ऐसी ज़मीन पर खड़े हैं जहां आगे कुंआ है तो पीछे खाई। इसलिए वो लगातार आम सहमति की सरकार बनाने का राग अलाप रहे हैं। दरअसल उन्हें पता है कि अगर वो पीएमएल क्यू या मुशर्रफ समर्थकों को किसी रुप में साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं तो नवाज़ शरीफ उनके साथ नहीं आएंगे। नवाज़ साथ आए तो उनकी साख को धक्का लगेगा। और वो सरकार से बाहर रहे तो पीपीपी इसका राजनीतिक फायदा उठा सकेगी।
पीपीपी मान चुकी है कि पार्टी लगातार मुशर्रफ से संपर्क में है। बेशक वो हवाला मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति का दे रही है। लेकिन उसकी नज़र पीएमल क्यू के सांसदों पर भी है। वो चाहती है कि पीएमएल क्यू एक पार्टी के तौर पर उसके साथ ना आए। लेकिन चौधरी शुजात और परवेज़ इलाही जैसे नेताओं को छोड़ उसके बाकी चुने हुए सदस्य साथ आ जाएं। इसके अलावा अवामी नेशनल पार्टी के साथ पीपीपी के अच्छे संबंध रहे हैं। एएनपी के पास 9 सीटों हैं। मोहाज़िरों की पार्टी मुत्ताहिद्दा कौमी मूवमेंट यानि एमक्यूएम के पास 19 सदस्य हैं। सिंध की प्रांतीय सरकार में भागीदारी देने के बदले पीपीपी एमक्यूएम को केन्द्र में साथ ला सकती है। एमक्यूएम भी इसके लिए तैयार दिखती है। इसके अलावा 26 आज़ाद उम्मीदवार भी जीते हैं जो सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कहने का मतलब कि पीएमएल एन के बिना जो सरकार बनती है वो मुशर्रफ को तुष्ट करने वाली भी होगी और अमेरिकी का खुश करने वाली भी। फिर भी अगर ज़रदारी को नवाज़ शरीफ के साथ मिल कर ही सरकार बनाना पड़ा तो ये ज़रदारी पर जनादेश की जीत ही होगी।
(इस लेख को पढ़ने के बाद बगल के सर्वे में अपनी राय ज़रूर ज़ाहिर करें...)
चुनाव नतीजे आने के बाद पाकिस्तान में तुरंत सरकार बन जानी चाहिए थी। ख़ासतौर पर तब जब पीएमएल एन और पीपीपी चुनाव के पहले से ही साथ चलने की बात करते रहे हैं। अब जबकि 272 जेनरल सीटों वाली नेशनल एसेंबली में पीपीपी 87 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी और पीएमएल एन 67 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है तो फिर इन्हें मिल कर सरकार बनाने में देरी क्यों हो रही है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के राजनीतिक परिदृश्य में ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है।
चुनाव के पहले मुशर्रफ को पानी पी पी कर कोसने में पीपीपी को फायदा था। हालांकि बेनज़ीर मुशर्रफ के साथ समझौते के तहत ही पाकिस्तान लौटीं थी और चुनाव में शिरकत कर रही थी। लेकिन चुनाव में धांधली और संविधान की धारा 58 2बी के सवाल पर मुशर्रफ से उनका समझौता अंतिम रुप नहीं ले पा रहा था। इसी बीच बेनज़ीर की हत्या हो गई। पीपीपी ने मुशर्रफ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। मुशर्रफ समर्थक सत्तारुढ पार्टी पीएमएल क्यू के कई नेताओं पर इल्ज़ाम लगाया और हत्या के लिए सरकार में बैठे लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया। लेकिन पार्टी चुनाव से हटी नहीं। बेनज़ीर की हत्या से उपजी सहानूभुति का फायदा मिलने की उसे उम्मीद थी और कुछ हद तक वो हुआ भी।
इधर नवाज़ शरीफ जो 1993 तक जिनकी बेनज़ीर से बातचीत भी नहीं होती थी... बेनज़ीर की हत्या के बाद उसे अपनी बहन करार देने लगे। चुनाव से हटे लेकिन पीपीपी के मैदान में डटे रहने के कारण अपनी पार्टी को भी चुनाव में उतार दिया। नवाज़ और ज़रदारी कई मौकों पर मिले और जम्हूरियत की जंग में साथ लड़ने की बात की। इन्हें चुनाव में धांधली की आशंका भी सताती रही। लेकिन ख़तरों के बावजूद अवाम वोट डालने निकली और चुनाव ठीक-ठाक हो गए। किसी पार्टी को उम्मीद से कुछ कम तो किसी को कुछ ज़्यादा... लेकिन अपने-अपने हिस्से की सीटें मिल गईं। चुनाव नतीजों के बाद अब पहले की भावनात्मक ऐलानों का वास्ता अब ज़मीनी हक़ीकतों से हो रहा है। इसके केन्द्र में हैं पीपीपी और उनके सह-अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी।
मुशर्रफ विरोध के सहारे सीटें बटोरने वाली पीपीपी को मुशर्रफ़ को नज़रअंदाज करना अब नामुमकिन लग रहा है। वजह कई है। नंबर एक। मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति राष्ट्रपति की है। सरकार बनाने का न्यौता उन्हीं के हाथ में है। नंबर दो। पाकिस्तान के राष्ट्रपति को ये अख्तियार है कि वो किसी चुनी हुई नेशनल एसेंबली को कभी भी भंग कर सकते हैं। संविधान की धारा 58 2बी के ज़रिए। ज़ाहिर है कि ऐसे में मुशर्रफ को नाराज़ करने वाले फैसले करना पीपीपी के लिए आसान नहीं है। मुशर्रफ कह रहे हैं कि वो नई सरकार के साथ काम करने को तैयार है। लेकिन वो नवबंर तीन के पहले की अदालत की बहाली के ज़बर्दस्त खिलाफ हैं। इमरजेंसी लगाए जाने के पहले की अदालत और चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की फिर से बहाली का मतलब होगा मुशर्रफ के खिलाफ उस मामले का फिर से खुलना जिसमें जेनरल की वर्दी पहन उनके राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की वैधता को चुनौती दी गई थी। अगर वो मामला दुबारा खुला तो मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हाथ धोना पड़ सकता है। उनके खिलाफ महाभियोग लगाने की ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी। अब ज़रदारी को डर ये है कि अगर पुरानी अदालत को बहाल करने की नवाज़ शरीफ की शर्त को उन्होंने माना तो उनकी सरकार चंद घंटों की मेहमान ना साबित हो।
महाभियोग लाने की नवाज़ की शर्त मानने पर डर ये है कि कोई भी सेना अपने पूर्व चीफ पर इस तरह का अभियोग बर्दाश्त नहीं करेगी। मुशर्रफ ने बेशक वर्दी उतार दी हो लेकिन सेना ने उन्हें सिर से उतारा नहीं है। पाकिस्तान में सरकार चलाने के लिए सेना से अच्छे संबंद ज़रुरी हैं और ज़रदारी पाकिस्तान की इस सच्चाई को समझते हुए सेना से अपने संबंध खराब नहीं करना चाहेंगे। इसलिए नवाज़ शरीफ की महाभियोग जैसी शर्त मानने में वो हिचक रहे हैं।
इसके अलावा अमेरिका का दबाव भी ज़रदारी पर काम कर रहा है। अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच समझौता करा सत्ता में दोनों को भागीदारी देने का फार्मूला अपनाया था। ताकि दोनों के ज़रिए पाकिस्तान और इस इलाके में अमेरिकी हित सधते रहें। बेनज़ीर बेशक ना रही हो लेकिन अमेरिका अपने लिए स्थिति में बदलाव नहीं चाहता है। उसने ‘साफ-सुथरे’ चुनाव के लिए मुशर्रफ की तारीफ की है। ये भी जता दिया है उन्हें मुशर्रफ चाहिए। बेनज़ीर की जो भूमिका अमेरिकी ने तय की थी वो चाहता है कि अब ज़रदारी उस भूमिका को आगे बढ़ाएं। ऐसे में प्रधानमंत्री पद की पेशकश ज़रदारी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को हवा दे दे तो हैरानी की बात नहीं। वैसे भी चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए मकदूम अमीन फहीम का नाम आगे करने वाले ज़रदारी अब कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री कौन होगा ये आगे तय होगा।
पीपीपी की नेतृत्व वाली नई सरकार को लेकर एक तरफ ये तमाम दबाव और आशंकाएं हैं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हैं तो दूसरी तरफ है जनादेश। जनादेश मुशर्रफ के खिलाफ है। ऐसे में ज़रदारी अमेरिका और राष्ट्रपति मुशर्रफ के दबाव में आकर पीएमल क्यू जैसी पार्टियों के साथ सरकार बनाने की कोशिश करते नज़र आते हैं तो अवाम भड़क सकती है। वकीलों का आंदोलन और ज़ोर पकड़ सकता है। नवाज़ शरीफ का कद इस हद तक बड़ा हो सकता है कि अगली किसी चुनाव की सूरत में पीपीपी हाशिए पर न चली जाए। या फिर सरकार बनाने के पहले ही पीपीपी ही ना टूट जाए क्योंकि पार्टी में प्रधानमंत्री के पद और बेनज़ीर की राजनीतिक विरासत समेत कई मुद्दों पर मतैक्य नहीं है। मौजूदा हालात की मजबूरी में एक रखे हुई है।
कुल मिला कर ज़रदारी एक ऐसी ज़मीन पर खड़े हैं जहां आगे कुंआ है तो पीछे खाई। इसलिए वो लगातार आम सहमति की सरकार बनाने का राग अलाप रहे हैं। दरअसल उन्हें पता है कि अगर वो पीएमएल क्यू या मुशर्रफ समर्थकों को किसी रुप में साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं तो नवाज़ शरीफ उनके साथ नहीं आएंगे। नवाज़ साथ आए तो उनकी साख को धक्का लगेगा। और वो सरकार से बाहर रहे तो पीपीपी इसका राजनीतिक फायदा उठा सकेगी।
पीपीपी मान चुकी है कि पार्टी लगातार मुशर्रफ से संपर्क में है। बेशक वो हवाला मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति का दे रही है। लेकिन उसकी नज़र पीएमल क्यू के सांसदों पर भी है। वो चाहती है कि पीएमएल क्यू एक पार्टी के तौर पर उसके साथ ना आए। लेकिन चौधरी शुजात और परवेज़ इलाही जैसे नेताओं को छोड़ उसके बाकी चुने हुए सदस्य साथ आ जाएं। इसके अलावा अवामी नेशनल पार्टी के साथ पीपीपी के अच्छे संबंध रहे हैं। एएनपी के पास 9 सीटों हैं। मोहाज़िरों की पार्टी मुत्ताहिद्दा कौमी मूवमेंट यानि एमक्यूएम के पास 19 सदस्य हैं। सिंध की प्रांतीय सरकार में भागीदारी देने के बदले पीपीपी एमक्यूएम को केन्द्र में साथ ला सकती है। एमक्यूएम भी इसके लिए तैयार दिखती है। इसके अलावा 26 आज़ाद उम्मीदवार भी जीते हैं जो सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कहने का मतलब कि पीएमएल एन के बिना जो सरकार बनती है वो मुशर्रफ को तुष्ट करने वाली भी होगी और अमेरिकी का खुश करने वाली भी। फिर भी अगर ज़रदारी को नवाज़ शरीफ के साथ मिल कर ही सरकार बनाना पड़ा तो ये ज़रदारी पर जनादेश की जीत ही होगी।
(इस लेख को पढ़ने के बाद बगल के सर्वे में अपनी राय ज़रूर ज़ाहिर करें...)
Friday, February 22, 2008
नकली उमाशंकर सिंह से सावधान!
अभी अभी पता चला है कि उमाशंकर सिंह नाम का एक शख्स अखबारों में छपे मेरे लेखों को अपना बता फ़ाइलों में लिए फिर रहा है। दिल्ली में अख़बार के दफ्तरों के चक्कर लगा रहा है। नौकरी की तलाश में। ख़ासतौर पर जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर छपे पाकिस्तान मामलों पर मेरे लेखों को बेझिझक वो अपना बता रहा है। क्योंकि यहां लेख के साथ लेखक का एक पंक्ति में दिया जाने वाला परिचय नहीं होता। ख़ैर। अगर मेरे लेखों से उसकी रोज़ी रोटी का जुगाड़ हो जाता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं शायद खुशी ही होगी। लेकिन डर मेरे नाम के ग़लत इस्तेमाल का है। इसलिए सूचना यहां चिपका रहा हूं।
एक पेशे में संयोगवश एक जैसे कई नाम हो सकते हैं। हर कोई अपने फन का माहिर हो सकता है। लेकिन दूसरे का लिखा अपना बताना अपराध है। अगर आप में से किसी से उमाशंकर सिंह नाम का ये शख़्स टकराता है तो कृपया मुझे इत्तला दें। मेरा मोबाईल नंबर है 9811021470। वैसे, जैसे ही इस शख्स की तस्वीर और उसका बायोडाटा हासिल होता है, उसे मैं अपने ब्लॉग पर डालने वाला हूं।
एक पेशे में संयोगवश एक जैसे कई नाम हो सकते हैं। हर कोई अपने फन का माहिर हो सकता है। लेकिन दूसरे का लिखा अपना बताना अपराध है। अगर आप में से किसी से उमाशंकर सिंह नाम का ये शख़्स टकराता है तो कृपया मुझे इत्तला दें। मेरा मोबाईल नंबर है 9811021470। वैसे, जैसे ही इस शख्स की तस्वीर और उसका बायोडाटा हासिल होता है, उसे मैं अपने ब्लॉग पर डालने वाला हूं।
Tuesday, February 19, 2008
पाकिस्तान में नई सुबह
चार दिनों से इस्लामाबाद रावलपिंडी और लाहौर समेत पूरे पाकिस्तान में में अलग तरह की शंका आशंकाएं देखने को मिल रहीं थी. कई रातों से सोया नही. जानने समझने की कोशिश में. कल की वोटिंग के बाद रात झपकियाँ आ रही थीं. लेकिन यहाँ फ़ोन काल्स ने जगाये रखा.
पाकिस्तान में जम्हूरियत की जंग आख़िर रंग ला रही है. यहाँ की अवाम ने बदलाव के लिए वोट किया है. नतीजे से सामने आ रहे हैं. पीपीपी और पी ऍम एल नवाज़ की जीत पक्की है. मुशर्रफ के लिए मुश्किल दिनों की शुरुआत के तौर भी इसे देखा जा सकता है. नई सरकार के आने के बाद यहाँ की जनता नई हवा में साँस लेने को आतुर दिख रही है. बस कुछ ही घंटों की बात रह गयी है.
पाकिस्तान में जम्हूरियत की जंग आख़िर रंग ला रही है. यहाँ की अवाम ने बदलाव के लिए वोट किया है. नतीजे से सामने आ रहे हैं. पीपीपी और पी ऍम एल नवाज़ की जीत पक्की है. मुशर्रफ के लिए मुश्किल दिनों की शुरुआत के तौर भी इसे देखा जा सकता है. नई सरकार के आने के बाद यहाँ की जनता नई हवा में साँस लेने को आतुर दिख रही है. बस कुछ ही घंटों की बात रह गयी है.
Friday, February 15, 2008
आइए देखते हैं पाकिस्तान में जम्हूरियत की जंग
अभी पाकिस्तान निकल रहा हूं। 18 को चुनाव होने हैं। कैसे होते हैं। कौन जीतता है। बुलेट या बैलेट। आप सबों को रुबरु कराने की कोशिश करुंगा। शायद पाकिस्तान से अब मैं अपना ब्लॉग अपडेट कर पाउंगा।
शुक्रिया
शुक्रिया
Wednesday, February 13, 2008
एक सूखा गुलाब बीस का
बचपन में क्यारियां लगाया करता था। तरह तरह के फूल होते थे उन क्यारियों में। गेंदा, गुलाब, रात की रानी, अरहूल... कई फूलों के नाम भूल गया हूं। हां कई पौधे ऐसे होते थे जो सिर्फ एक सीज़न चलते थे। उस फूल में खूशबू नहीं होती थी। बस देखने में सुंदर लगता था। खुरपी लेकर मैं क्यारियों को खूब सजाया करता था। पड़ोस में रहने वाले मित्तू और टूटू और गित्तू से हमारा खूब कंपीटीशन होता था। कई बार एक दूसरे पर पौधे चुरा लेने या फूल तोड़ लेने के आरोप प्रत्यारोप भी लगते थे। ख़ासतौर पर दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा या ऐसे ही किसी अवसर पर। अलसुबह चहारदीवारी फांद कर अंदर आने की आवाज़ आती थी। दूसरे मोहल्ले के लड़के भी फूल तोड़ भाग जाते थे। जिस पर शक होता था उससे खूब लड़ाई होती थी। फिर शाम को साथ खेलने लगते थे।
फूल की कहानी इसलिए सुना रहा हूं कि आज कम से कम बीस साल बाद गुलाब फूल लेने का मन हुआ। रास्ते में कही गुज़रते हुए। फूल की दूकान पर नज़र पड़ी तो पूछा, 'कैसे दे रहे हो भैय्या गुलाब'। दूकानदार बोला, 'बीस का'। गुलाब भी सूखा सा ही था। वैसा खिला नहीं जैसा अपने बगीचे में उगाया करता था। और ये भी अजीब इत्तेफाक था कि बीस साल बाद एक गुलाब बीस का मिल रहा है। हैप्पी वैलेंनटाईन्स डे!
फूल की कहानी इसलिए सुना रहा हूं कि आज कम से कम बीस साल बाद गुलाब फूल लेने का मन हुआ। रास्ते में कही गुज़रते हुए। फूल की दूकान पर नज़र पड़ी तो पूछा, 'कैसे दे रहे हो भैय्या गुलाब'। दूकानदार बोला, 'बीस का'। गुलाब भी सूखा सा ही था। वैसा खिला नहीं जैसा अपने बगीचे में उगाया करता था। और ये भी अजीब इत्तेफाक था कि बीस साल बाद एक गुलाब बीस का मिल रहा है। हैप्पी वैलेंनटाईन्स डे!
Wednesday, February 6, 2008
चल 'भैय्या'... महाराष्ट्र चलें
लगता है कि मुंबई को गुंडा राज से निकालने के लिए वहां कूच करना ही पड़ेगा। ख़ूब सारा गेंदे का फूल लेकर... ताकि 'भैय्या' वाली फराकदिली दिखाया जा सके। राज ठाकरे तो अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है... छापामार लड़ाई... जीत गए तो ठीक है नहीं तो ज़्यादा नुक्सान नहीं होगा। लेकिन भैय्याओं के साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। वे कल भी थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे। मुंबई क्या टोरंटो में भी। जहां भी कहीं उनकी ज़रुरत होगी या जहां भी कहीं उनकी ज़रुरत पूरी होंगी। राज ठाकरे को खुजली बिहारियों या यूपीआईटों से उतनी नहीं हो रही जितनी अपने पैर के नीचे की ज़मीन खिसक जाने की वजह से हो रही है। बाला साहेब ठाकरे ने ऐसी दुलत्ती दी है कि भाई साहब की पैज़ामे की नाड़ ही सरक गई। मराठी बिहारी साथ ही रहेंगे... ये कोई राज़ की बात नहीं बता रहा... स्थापित तथ्य याद दिला रहा हूं।
Subscribe to:
Posts (Atom)