tag:blogger.com,1999:blog-52350007926458205942024-03-06T10:18:40.164+05:30Valley of Truthसीधी चढ़ाई, सरपट ढलानउमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.comBlogger168125tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-75955727606904269852011-04-04T22:26:00.009+05:302011-04-04T23:41:17.761+05:30सेमी-फ़ाइनल के लिए लाहौर पहुंची दो भारतीय टीमें<strong>संसद स</strong><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjv8TyIiEFZjH8NLQ4Cz8u9ejr9z2Q11T5vrJ6B8gN3UOYcA_43wmMlSN_juLqkjMRsJpTpC_zo8bfreYdHzRZOV7lSAyZ4xSUNXrDw-IIqd_fdg79Y5n-7iMbg-LwOajy8E5kXVk89yhY/s1600/umas+lahore+fort.bmp"><strong><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 131px; FLOAT: left; HEIGHT: 97px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5591786784892902946" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjv8TyIiEFZjH8NLQ4Cz8u9ejr9z2Q11T5vrJ6B8gN3UOYcA_43wmMlSN_juLqkjMRsJpTpC_zo8bfreYdHzRZOV7lSAyZ4xSUNXrDw-IIqd_fdg79Y5n-7iMbg-LwOajy8E5kXVk89yhY/s320/umas+lahore+fort.bmp" /></strong></a><strong>त्र</strong> के आखिरी दिन ख़्याल आया कि रिपोर्टर के तौर पर ख़बरों की दुनिया में बने रहने के लिए अब क्या किया जाए है। तभी भारत पाकिस्तान सेमीफ़ाइनल को लेकर बने रोमांच ने नेरे दिमाग के एंटेना को खड़ा कर दिया। पाकिस्तान उच्चायोग फोन मिला कर भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त जनाब शाहिद मलिक के इंटरव्यू की दरख़्वास्त की। उधर से पेशकश की गई कि मैच के दिन पाकिस्तान में होना चाहते हैं तो फौरन बताएं। <br /><div></div><br /><div></div><br /><div>दिमाग में तुरंत 'बेहतर टीवी' का ख्याल कौंध गया। फिक्स्ड फ्रेम का एक इंटरव्यू दिमाग से ओझल हो गया। उसकी जगह जोश से लहराए जाते झंडे और असंख्य दीवाने क्रिकेट प्रेमियों से भरी तस्वीरें ज़ेहन में उतर आयीं। मैं संसद भवन से निकल मिनटों में पाकिस्तान उच्चायोग में था। दफ्तर को इतिल्ला दे चुका था। वीज़ा के लिए पासपोर्ट और चार तस्वीरों के साथ दो सहयोगी रास्ते में थे। </div><br /><div></div><br /><div>वीज़ा सुनिश्चित हो चुका था। जा कर क्या क्या किया जा सकता है विचार इस पर चल रहा था। सवाल ये भी उठ रहा था कि मैच मोहाली में है तो लाहौर में जाने से क्या फ़ायदा। सुरक्षा की चौकस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार डीएम से लेकर दोनों मुल्कों के पीएम तक सभी मोहली में ही मिलेगें। मेरी दलील थी कि मैच अगर लाहौर में होता तो क्या दिल्ली में कुछ नहीं होता? कोई स्टोरी नहीं होती? क्रिकेट अगर जुनून है तो वो मनमोहन और गिलानी की वजह से नहीं... करोड़ों दीवानों की वजह से। ये दोनों तो शर्म अल शेख से लेकर होनोलूलू तक कहीं भी मिल सकते हैं। मोहाली में मिल रहे तो क्रिकेट की वजह से। और मैदान में उतरने वाले सिर्फ 22 खिलाड़ियों की वजह से नहीं बल्कि मैदान के बाहर... स्टेडिय, गली, नुक्कड़ बाज़ारों और घरों में बैठे क्रिकेट के दीवानों की वजह से। जिसका एक बड़ा हिस्सा सरहद पार भी रहता है। दोनों उन तक पहुंचना चाहते थे। मैं भी। वे मोहाली के रास्ते तो में लाहौर के। </div><br /><div></div><br /><div>इस तरह मेरी एक और पाकिस्तान यात्रा का प्रारब्ध लिखा जा चुका था। कई और मीडिया संस्थान भी कोशिश में लगे थे। भारत पाकिस्तान सेमीफ़ाइनल को जंगी बता जोश को उत्तेजना के चरम पर ले जाने के लिए शायद ये एक ज़रुरी और नायाब रास्ता था। सरहद पार उतारे गए अपने रिपोर्टर्स सेनापति के ज़रिए ये काम बखूबी हो सकता था। डर भी इसी बात की थी। </div><br /><div></div><br /><div>पाकिस्तान से की गई पुरानी 'उत्तेजनाहीन' रिपोर्टिंग की वजह से मेरा पास मौक़ा था कि मैं अपनी तरह के कुछ भारतीय टीवीकारों के नाम बताउं। प्रतिस्पर्धा की बात को परे रख कर मैंने अपने दो साथी पत्रकारों के नाम उनसे पूछे बग़ैर पाकिस्तान उच्चायोग में आगे बढ़ा दिया। फिर उन्हें सूचित किया कि जाना चाहते हैं तो अपने अपने दफ्तर से बात कर लें। दरअसल उत्तेजनावादी पत्रकारिता के मौजूदा दौर में भी इन दोनों की परिपक्वता मुझे भाती है। कृपया इसे सर्टिफिकेट के तौर पर ना लें... इसे मेरा ज़ेहनी फितुर समझें। इनमें से एक की बात कतिपय वजहों से आगे नहीं बढ़ सकी। दूसरे ने अदम्य लालसा और जुझारुपन दिखाया। शर्त क्रिकेट को क्रिकेट के तौर पर कवर करने की थी। ऐसी शर्तों को मानने और इसकी गारंटी लेने में मुझे कोई परहेज़ नहीं। लाहौर के मैदान में मुझे भी एक प्रतिस्पर्धी चाहिए था। मैच की रिपोर्टिंग के लिए बेशक ये ज़रुरी नहीं था लेकिन 'रिपोर्टिंग के मैच' का भी अपना मज़ा है। सो भारत से कम से कम दो टीमों का जाना तय हो गया। समस्या हवाई टिकट की आ रही थी। </div><br /><div></div><br /><div>जारी... </div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-12604444852893733522010-12-28T14:44:00.006+05:302010-12-31T12:01:27.433+05:30बीजेपी वालों, जोशी जी का दर्द समझो!पीएसी के सामने प्रधानमंत्री को पेश होने दिया जाए या नहीं इसे लेकर बीजेपी के भीतर ही पसोपेश पैदा हो गया है। सुषमा नियमों का हवाला दे कर कह रही हैं कि प्रधानमंत्री क्या, किसी भी मंत्री की पेशी लोकलेखा समिति के सामने नहीं हो सकती। लेकिन मुरली मनोहर जोशी उचित समय पर उचित फ़ैसले की बात कर रहे हैं। आखिर क्यों?<br /><br />मुरली मनोहर जोशी बीजेपी की अंदरुनी राजनीति में बहुत पहले हाशिए पर धकेल दिए गए। वे इस समय पीएसी यानि लोकलेखा समिति के मुखिया हैं। पीएसी अपने तौर पर 2जी घोटाले की जांच में जुटी है। बीजेपी जेपीसी की मांग कर रही है। मतलब पीएसी के मुखिया के तौर जोशी जी की क्षमता और महत्व को नकार रही है। लगता है बीजेपी को अपनी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता पर भरोसा नहीं!<br /><br />कांग्रेस जेपीसी की मांग पर विपक्ष और कुछ साथी दलों की एकजुटता को तोड़ने में नाकाम रही है। प्रधानमंत्री ने पीएसी के सामने पेश होने की चिठ्ठी लिख कर बेशक एनडीए और यूपीए के कई साथी दलों का भरोसा न जीत पाए हों, जोशी जी के अहम को तो जीत ही लिया है। जोशी जी को भी लंबे समय बाद टीवी और अख़बारों की सुर्खियां मिली हैं। वो अपनी पार्टी की वजह से नहीं। पार्टी ने तो उनके श्रीनगर एकता यात्रा तक में उनको सुर्खियां नहीं बटोरने दी। अब सुर्खियां मिली हैं तो पीए की पेशकश की वजह से। अगर वो पीएम की पेशी की पेशकश को आज ठुकरा देते हैं तो वो तुरंत फोकस से हट जाएंगे। लिहाज़ा वो सही समय का इंतज़ार करेंगे। यानि चुप रह कर ये देखेंगे कि सरकार जेपीसी के लिए तैयार होती दिख रही है या नहीं या फिर बीजेपी समेत जेपीसी समर्थक पार्टियों के हमले की धार कब कुंद पड़ती है।<br /><br />अभी की हालत में जोशी जी के दोनों हाथ लड्डू हैं। पीएम पेशी के लिए रिक्वेस्ट कर रहे हैं। बीजेपी पीएम की रिक्वेस्ट जल्द टर्न डाउन करवाने के लिए छटपटा रही है। बहुत बढ़ चुकी उम्र और ख़ासतौर पर अपनी ही पार्टी में घट चुकी राजनीतिक उपादेयता जोशी के लिए पीएम की पेशकश दिल्ली की इस सर्द में नज़ले खांसी की दवा जोशीना साबित हो रही है। बेशक उनकी महत्वाकांक्षा पर पार्टी का दबाव या फिर नियम भारी पड़े और प्रधानमंत्री उनके सामने औपचारिक रूप से पेश न हो पाएं, लेकिन जांच के सिलसिले पीएम से अनौपचारिक बातचीत से भी जोशी जी की महत्ता साबित होगी।<br /><br />बीजेपी की सुषमा जी जैसी नेताओं, और थोड़ा ऊपर उठे तो आडवाणी जी, को समझ में आना चाहिए कि पार्टी में सबके अहम को साथ लेकर चलने का कितना फायदा होगा। सिर्फ वरिष्ठता के हवाले से पीएसी के चेयरमैन का पद ही अहम तो संतुष्टि देने के लिए काफी नहीं होता।<br /><br />कांग्रेस के रणनीतिकार जेपीसी के घेरे से निकलने में बेशक नकारे साबित हुए हों लेकिन पीएम की ताज़ा पेशकश ने अभी कांग्रेस का हाथ, कुछ समय के लिए ही सही, ऊपर कर दिया है। अब उनको तलाश बीजेपी के अलावे जेपीसी मांग करने वाला दूसरी पार्टियों में भी जोशी जैसी हस्तियों की होगी।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-67213514318684533922010-04-25T01:07:00.003+05:302010-04-25T01:15:19.104+05:30पाकिस्तान उस इलाक़े का दौरा जहां तालिबान नें जड़ें जमायीं...अभी कुछ घंटे पहले पाकिस्तान से लौटा हूं। यूं तो ये मेरा चौथा दौरा था लेकिन कई लिहाज़ से ये अद्वितीय था। बाजौर के उस इलाक़े में जाना जो हाल तक तालिबान ने अपना गढ़ बना रखा हो...उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-14149235752539839572010-03-25T02:37:00.000+05:302010-03-25T02:40:34.188+05:30<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiKCLqKB-XwBu-mVD2onp9rgAohZDOxmrQBleiv1Qzbq0P_lAaND8DMMTNJOsTGr2SzVNq9zQ-rnumLzpv18c95rew4c9dIoSWasqEdhFIGZmqq6J639Q0fwM0x2qXSvJqbH_2_zJuR0Q/s1600/043.JPG"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 320px; DISPLAY: block; HEIGHT: 240px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5452310405941423234" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiKCLqKB-XwBu-mVD2onp9rgAohZDOxmrQBleiv1Qzbq0P_lAaND8DMMTNJOsTGr2SzVNq9zQ-rnumLzpv18c95rew4c9dIoSWasqEdhFIGZmqq6J639Q0fwM0x2qXSvJqbH_2_zJuR0Q/s320/043.JPG" /></a><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwYM0NGe8xMuCc1HXYtA5pkmHmlLc2yg_Qm8XLBm3sSFOnx-TAp22yxlVyYPkQxTtbLT5nUI-eU2bSRS8LLEKCVajPo6zX3C28OWJ1-6sqssvbyBiCw6xs_0kXUaylhqhyBIIVNb-ClYA/s1600/035.JPG"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 240px; DISPLAY: block; HEIGHT: 320px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5452310402058280994" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwYM0NGe8xMuCc1HXYtA5pkmHmlLc2yg_Qm8XLBm3sSFOnx-TAp22yxlVyYPkQxTtbLT5nUI-eU2bSRS8LLEKCVajPo6zX3C28OWJ1-6sqssvbyBiCw6xs_0kXUaylhqhyBIIVNb-ClYA/s320/035.JPG" /></a><br /><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhi9lV_mNq7hIhQh3IpPU68idK95VaPpbnZnhyiLTeHaUAPHBO-R8vvps11jGbM-eHrMUgdS9oe6UIg6tj5OYLTRfjg1EK7W1-96DkWoRgBQiEPfo5gzKOyAkZnSBjFnw-k5FQdTrZHz9c/s1600/034.JPG"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 320px; DISPLAY: block; HEIGHT: 240px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5452310396329664498" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhi9lV_mNq7hIhQh3IpPU68idK95VaPpbnZnhyiLTeHaUAPHBO-R8vvps11jGbM-eHrMUgdS9oe6UIg6tj5OYLTRfjg1EK7W1-96DkWoRgBQiEPfo5gzKOyAkZnSBjFnw-k5FQdTrZHz9c/s320/034.JPG" /></a><br /><br /><br /><div></div></div></div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-66683147442696288452009-09-30T04:14:00.002+05:302010-03-25T02:25:35.796+05:30अकेला शख्स और अमेरिकाइन दिनों अमेरिका के दौरे पर हूँ. फिलहाल वॉशिंग्टन में हूँ. अमेरिका पूरी दुनिया को परमाणु हथियार ख़त्म करने की सीख देने मैं लगा है. लेकिन ठीक व्हाइट हाउस के सामने १२ साल से धरने पर बैठा शख्स खुद अमेरिका को चुनौती दे रहा है... परमाणु हथियार ख़त्म करने को कह रहा है. दुनिया का सबसे मज़बूत कहा जाने वाला प्रशासन चाह कर भी उस शख्स को हटा नहीं पाया है. दिलचस्प सच्चाई है.... इस तरह की छोटी बड़ी काफ़ी बातें बताने को है. वक़्त नहीं मिल पा रहा. तस्वीरों के साथ जल्द की कुछ बेहतर पेश करने की कोशिश करूँगा. शुक्रियाउमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-58984242640231534982009-08-27T13:13:00.004+05:302009-08-27T13:21:58.667+05:30पाक मंदिर पर रिपोर्ट : पीछे की कहानी<strong>पाकिस्तान</strong> से रिपोर्टिंग अपने आप में चुनौती का काम है। भारत और पाकिस्तान के बीच हमेशा जो एक शक का माहौल रहता है उसके मद्देनज़र दोनों देशों के पत्रकारों की चुनौती और बढ़ जाती है। पाकिस्तान जा कर ज़मीन से रिपोर्टिंग करने के मुझे अब तक तीन मौक़े मिले हैं। ये तीनों ही मौक़े पाकिस्तान की इतिहास के अहम पड़ाव रहे हैं... इमरजेंसी, बेनज़ीर की हत्या और आम चुनाव।<br />पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों की हालत पर मेरी इस रिपोर्ट की अहमियत इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि इसे मैंने तमाम मुश्किलातों के बीच तैयार की है।<br /><br />1- स्थानीय वीज़ा के बिना<br /><br />2- ख़ुद कैमरा चलाते हुए<br /><br />3- कठिन पहाड़ी रास्ता और<br /><br />4- पाकिस्तान में इमरजेंसी के हालात<br /><br />पाकिस्तान जाने वाले भारतीय नागरिकों को वहां के हर ज़िले के लिहाज़ से वीज़ा लेना होता है। मतलब अगर वीज़ा लाहौर का है तो आप सिर्फ लाहौर जाएगे... आस पास के भी किसी और इलाक़े में नहीं। मेरे पास सिर्फ लाहौर का वीज़ा था जबकि कटासराज, नंदना का किला, मकलोड का विष्णु मंदिर झेलम और चकवाल ज़िले में आते हैं। ये सभी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के सुदूरवर्ती इलाक़े हैं। यहां तक मेरा पहुंच पाना इसलिए संभव हो पाया क्योंकि में साउध एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन (साफ्मा) के पत्रकारों के एक डेलिगेशन में शामिल था।<br /><br />इस पूरी रिपोर्टिंग के दौरान कैमरे से पूरी शूटिंग मैने ख़ुद की। पीस-टू-कैमरा कई बार कैमरे को दीवार या फिर किसी पत्थर पर रख कर करना पड़ा। जो कुछ भी रास्ते में मिलता मैं उसे कैमरे में उतारता गया। सबसे ज़्यादा मुश्किल पेश आयी नंदना फोर्ट के रास्ते में। 5 घंटे की ट्रेकिंग। कोई पगडंडी भी नहीं... जिधर चल पड़ो उधर से ही रास्ता निकालने जैसी हालत। कंटीली झाड़ियां , पहाड़ पर कभी खड़ी चढाई तो कभी सीधी ढ़लान, रास्ता भटक जाना, पीने के पानी का ख़त्म हो जाना और दल के कई साथियों का बीमार पड़ जाना। ये सभी बातें इस रिपोर्ट में शामिल हैं।<br /><br />3 नवबंर को, इस शूट के बीच में ही पाकिस्तान में जेनरल मुशर्रफ़ ने इमरजेंसी लगा दी। इससे सुरक्षा के हालात और ख़राब हो गए। भारतीय नागरिक होने की वजह से मेरे पाकिस्तानी साथी मुझे लेकर काफ़ी चिंतित हो गए... लेकिन सबों ने मेरे काम में पूरा सहयोग दिया और मेरा हौसला बनाए रखा।<br /><br />इन हालातों के बीच तैयार इस रिपोर्ट में मैंने कटासराज, मकलोड और नंदना मंदिर के भूत और वर्तमान के बारे में बताने की कोशिश की है। स्थानीय गाइड सलमान राशिद साहब के अलावा दल में शामिल पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, नेपाल जैसे देशों से आए पत्रकार साथियों के ऑन-द-स्पॉट कमेंट्स हैं।<br /><br />एक ऐसे समय में जब पाकिस्तान में सिर्फ टेरेरिज़्म की बात होती है... मैंने टूरिज़्म की बात कर ये जताने की कोशिश की है कि अगर इस मुल्क के अंदरुनी हालात पर क़ाबू पा लिया गया तो ये न सिर्फ एक बेहतरीन टूरिस्ट डेस्टीनेशन बन सकता है... बल्कि बड़ी तादाद में हिंदू तीर्थ यात्रियों को भी अपनी ओर खींच सकता है।<br /><br />मेरी इस रिपोर्ट को एनडीटीवी इंडिया पर पहली बार 29 जून 2008 को रात साढ़े नौ बजे प्रसारित किया गया।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-57594186894790591202009-05-05T23:19:00.003+05:302009-05-05T23:25:06.318+05:30kabul day 1kabul pahunch chuka hun. yahaan se devnagree main blog update karne main kuchh samasyaa hai... comp-net janit. isliye aaj kee pooree baat baad main. yahaan dilli kee garmee se raahat hai. sham 5pm (local time) 19 degree tha... night main to 16 ke aaspaas mehsoos ho rahaa hai... :)<div><br /></div><div>farid usee garm joshee se mila jaise wo pakistan main mila karta tha... </div><div><br /></div><div>jaaree</div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-84678103736145639572009-05-05T00:17:00.005+05:302009-05-05T01:03:17.369+05:30पाकिस्तान, तालिबान... अफ़गानिस्तानआज अफ़गानिस्तान निकल रहा हूं। मक़सद वहां की ज़मीनी हालात को देखना और दिखाना है। एक ऐसे माहौल में जब चारों तरफ तालिबान को लेकर शोर शराबा है... आख़िर उस मुल्क़ में क्या हो रहा है जहां वो (तालिबान) पैदा हुआ, पला-बढ़ा और फिर उसकी विषबेल अपने माली (अमेरिका) को ही लपेटने में जुट गई। अमेरिकी और नाटो फोर्स के दबाव में तालिबान ने अफ़गानिस्तान से लगे पाकिस्तानी इलाक़े का रुख़ तो कर लिया है लेकिन पुरानी ज़मीन से भी उनके पैर पूरी तरह से उखड़े नहीं हैं। कोशिश होगी काबुल की ताज़ा कहानी बताने की।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-56087102326426126102009-04-26T01:58:00.003+05:302009-04-26T02:11:42.208+05:30सारे लेखक हो गए... पाठक कौन बचा?<strong>महीने</strong> बाद ब्लॉग पर आया हूं। देख रहा हूं सभी लिख रहे हैं। किसी के दिल में तो किसी के दिमाग में एक विचार है। किसी के पास अनुभव है तो किसी के पास अपना कोई ख़्याल। अच्छी बात है। होने भी चाहिए। पर देखा कि कोई किसी को पढ़ नहीं रहा। न अनुभव की कद्र है ना ख़्याल पर भरोसा। ब्लॉगवाणी के हिट्स के हिसाब से बता रहा हूं। घंटों पहले की पोस्ट पर रीडर ज़ीरो हैं... पसंद की तो बात ही मत पूछिए। नापसंद का कोई कॉलम नहीं है। याद है मझे दो साल पहले का वो वक्त। छोटी से छोटी बात लिख देने पर भी एकाध पाठक तो आ ही जाते थे। फिर अब क्या हुआ। क्या अपना पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा या किसी और का लिखना!उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-67635712952359069362009-03-08T23:15:00.003+05:302009-03-08T23:38:06.179+05:30मुशर्रफ़ से मुलाक़ातपाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ भारत में हैं। व्यक्तिगत दौरे पर। मेरा उनसे आज एक बार फिर आमना सामना हुआ। संक्षिप्त बात हुई। मैंने उनसे कहा कि जब आपने पाकिस्तान में इमरजेंसी लगाई तब मैं वहीं था... आपके इस क़दम से पाकिस्तान का बुद्धिजीवी वर्ग बहुत गुस्से में था। अब आप अलग रोल में हैं। पर पाकिस्तान में कोई बदलाव नज़र नहीं आ रहा।<br />मुशर्रफ़ ने मेरी पंक्तियों का क्या मतलब निकाला मुझे नहीं पता... पर एक पूरी नज़र देखा। मैंने अपना कार्ड आगे बढा दिया। ये कहते हुए कि मौक़ा मिला तो फिर आना चाहूंगा। उन्होने कहा... "स्योर"।<br /><br />मुशर्रफ़ उस कॉनट्रैक्ट से बंधे थे जिसमें उन्हें किसी से भी कुछ बात करने की मनाही थी। एक मीडिया ग्रुप के अलावा। सो वे अपनी तरफ से कम से कम बोले। अब राष्ट्रपति नहीं हैं... पर कमांडो जैसी अनुशासन का पालन अब भी कर रहे हैं। नहीं तो बताते कि आख़िर जिस वजह से उनके ख़िलाफ पाकिस्तान में मुहिम चलायी गई वो वजहें अब भी क़ायम हैं। ज़रदारी बतौर राष्ट्रपति उन्हीं अधिकारों को छोड़ने को तैयार नहीं जिन्होने जेनरल मुशर्रफ को मुशर्रफ़ के तौर पर ब्रांड कर दिया। पर फिलहाल वे ख़ामोशी में ही बेहतरी समझ रहे हैं। शायद किसी बेहतर कल के इंतज़ार में।<br /><br />आगे भी और बात होगी।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-91784618332060161272008-12-31T19:31:00.002+05:302008-12-31T19:34:56.281+05:30शुभकामनाएं!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM_idMgby4iFZPQRAKMi16lXCnHLPkxvhfXBUXCoHuC_Aah0I5CxXymbsIfJOahnwkuNUOvUieZPZP_owkrJro9pyFSwbjMCO4zczQ5Au5JwwI16k8AK60e2vAJytkPwBT35cLvBgVpAo/s1600-h/051.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5285954723245317826" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 240px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM_idMgby4iFZPQRAKMi16lXCnHLPkxvhfXBUXCoHuC_Aah0I5CxXymbsIfJOahnwkuNUOvUieZPZP_owkrJro9pyFSwbjMCO4zczQ5Au5JwwI16k8AK60e2vAJytkPwBT35cLvBgVpAo/s320/051.JPG" border="0" /></a><br /><div>जाते साल को सलाम... नया साल 2009 आप सबों को एक नए क्षितिज पर ले जाए... शुभकामनाएं....</div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-46026726046130210992008-11-27T00:32:00.003+05:302008-11-27T00:40:55.343+05:30मुंबई पर हमला<strong>मुंबई</strong> पर फिर हमला हुआ है। हम तैयार हैं कब तैनाती हो जाए...<br /><br />पर कई बातें ज़ेहन में आती हैं। कुछ ही घंटों के अंदर...<br /><br />सरकार कहेगी, हम निंदा करते हैं... पूरी तरह जांच की जाएगी... दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी... किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।<br /><br />पुलिस कहेगी... पहली बार समुद्री रास्ते से आए आंतकी। नया मोडस आपरेंडी।<br />(हालांकि हमारे एनएसए पहले ही इसके बारे में चेता चुके हैं। पर शायद वो चेते नहीं)<br /><br />विपक्ष कहेगा, ये सरकार की विफलता है। वो हिंदू आतंकवाद का झूठा ख़ौफ दिखा रही है... असल में ख़तरा जेहादी आतंकवाद का है। हम आए तो पलट देंगे तस्वीर... ।<br /><br />अख़बार टीवीओं पर ख़बर आएगी... पटरी पर लौटी ज़िंदगी। मुंबई की ज़िंदादिली...<br /><br />फिर सब कुछ पटरी पर लौट आएगा... अगली वारदात तक.... और कोई चारा भी तो नहीं।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-74874722639352962722008-11-07T22:41:00.004+05:302008-11-07T22:54:54.995+05:30अमेरिका का नेशनल फ्लैग मेड इन चाईना...!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuxzem7QKm-zGdv67ylYcwqJcLagrc0qs0YpxmzNkezHEczrps_rBS9jB-l1Eo_O9nUAmjvoeHUuEDu6X2oY0S5L9qG2AffPLqRYYv2rViQI24sdWA61QW_AmdQX6_0Cotj4rXv_zuKLY/s1600-h/019.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5265967228796767090" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuxzem7QKm-zGdv67ylYcwqJcLagrc0qs0YpxmzNkezHEczrps_rBS9jB-l1Eo_O9nUAmjvoeHUuEDu6X2oY0S5L9qG2AffPLqRYYv2rViQI24sdWA61QW_AmdQX6_0Cotj4rXv_zuKLY/s320/019.JPG" border="0" /></a><br /><div>ऐसा शायद हम तिरंगे के साथ नहीं कर सकते। ये तिरंगे का अपमान माना जाएगा। ये अमेरिका में ही संभव है। इन तस्वीरों को ग़ौर से देखिए। ये अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज है। लेकिन बना कहां है? मेड इन चाईना! जी हां। ये तस्वीर 5 नवबंर की हैं। नई दिल्ली स्थित अमेरिकन इंफोर्मेशन सेंटर की जहां ओबामा की जीत का जश्न मनाया जा रहा था। पॉलीथीन के बने सैकड़ों झंडे लगाए गए थे। सब पर मेड इन चाईना का ऐसा ही मार्का लगा था। अपना राष्ट्रीय ध्वज चीन में बनवाने के पीछे की वजह साफ है। मानव श्रम की उपलब्धता से लेकर प्रदूषण निरोधी नीति तक... कई कारणों से अमेरिका जैसे विकसित देश को नहीं लगता कि ऐसे छोटे-छोटे कामों में अपना वक्त और ताक़त ख़र्च करें। सस्ता माल चीन से उठा लेते हैं। चाहे राष्ट्रीय ध्वज ही क्यों न हो!</div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-41983046879829235472008-11-05T22:17:00.004+05:302008-11-05T22:44:13.810+05:30टीवी रिपोर्टरों की खींचतान में गए ओबामा!ये दो तस्वीरें हैं अमेरिकन इंफॉरमेशन सेंटर नई दिल्ली की जहां आज चुनाव नतीजों के लिए ख़ास इंतज़ाम किए गए थे। ओबामा की जीत के बाद कई चैनलों के रिपोर्टर ओबामा की इस आदमकद कटआउट के साथ पीटीसी करने के चक्कर में आपसी खींचतान में लग गए। नतीजा... अमेरिकी दूतावास की एक महिला अधिकारी ओबामा को उठा ले गई। हां... इसके पहले दिल्ली के एक नामी महिला कॉलेज की लड़कियों ने ओबामा के इस बुत के साथ ख़ूब तस्वीरें खिंचवाईं।<br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDjelUirKMjqqCjyb6r7bQ7HqLko36AiFLuZpl2tT3QT2oDBvlBe57d6P73iHJa-F7BJMYuop0Hs58wB7PvxXcMPsCinvx_zTpfJxZlk8vng4OGCuEyHr3IdspC7cWq4OtP0qiDh80b6g/s1600-h/009.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5265217551332655042" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDjelUirKMjqqCjyb6r7bQ7HqLko36AiFLuZpl2tT3QT2oDBvlBe57d6P73iHJa-F7BJMYuop0Hs58wB7PvxXcMPsCinvx_zTpfJxZlk8vng4OGCuEyHr3IdspC7cWq4OtP0qiDh80b6g/s320/009.JPG" border="0" /></a><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVQb8apmW7vrJ7cFBz1OBCWgrI378uXaTVlASsZ1VfbRuLpNOrxl0bWicUx9S7A25l9l2Z6LsC41vG6uSnfqVRT6W6zLGKBmno4nFM5yHl948LTWUkO6BAi3GkhjpaFdUkhmU5_637e6s/s1600-h/008.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5265216801849622002" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVQb8apmW7vrJ7cFBz1OBCWgrI378uXaTVlASsZ1VfbRuLpNOrxl0bWicUx9S7A25l9l2Z6LsC41vG6uSnfqVRT6W6zLGKBmno4nFM5yHl948LTWUkO6BAi3GkhjpaFdUkhmU5_637e6s/s320/008.JPG" border="0" /></a><br /><br /><div></div></div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-4868632824345637312008-09-01T14:54:00.003+05:302008-09-01T15:05:27.015+05:30हमारा बिगड़ा मुकद्दर है... क्या किया जाए<strong><span style="font-size:180%;">बिहार का मंज़र</span></strong><br /><strong><em></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">हमारा बिगड़ा मुकद्दर है </span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">क्या किया जाए</span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">हमारे घर में समंदर है </span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">क्या किया जाए</span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">है भूख प्यास की शिद्दत </span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">हमारे चेहरों पे</span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">ये अब बिहार का मंज़र है </span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:130%;">क्या किया जाए!</span></em></strong><br /><strong><em></em></strong><br /><em><strong>-तहसीन मुनव्वर</strong> </em>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-53041230297495005432008-08-30T22:48:00.003+05:302008-09-01T14:37:08.404+05:30अब तो ख़ैर हो मौला!<strong>बिहार</strong> में बाढ़ से तबाही पर जितना लिखा-दिखाया जाए कम है। लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं। सैंकड़ो बह गए हैं। लाखों फंसे हैं। दाने दाने को मोहताज़ हैं। सही में राहत पहुंचाने की बजाए राज्य और केन्द्र की राजनीति जारी है। हालात पर जितना रोया जाए, बयानबाज़ी को जितना दुत्कारा जाए, व्यवस्था के कान में जूं नहीं रेंगती। सरकारी मदद से दूर लोगों का आसरा अब सिर्फ ऊपर वाले का है। इसे तहसीन मुनव्वर चार पंक्तियों में कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं-<br /><br /><strong><em>कई दिन से हैं भूखे लोग </em></strong><br /><strong><em>अब तो ख़ैर हो मौला,</em></strong><br /><strong><em>ये जीवन बन गया है रोग </em></strong><br /><strong><em>अब तो ख़ैर हो मौला,</em></strong><br /><strong><em>नज़र जिस सिम्ट भी उठती है</em></strong><br /><strong><em>पानी है तबाही है</em></strong><br /><strong><em>हर एक घर में है फैला सोग</em></strong><br /><strong><em>अब तो ख़ैर हो मौला!</em></strong>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-53049617796669064162008-08-26T10:40:00.002+05:302008-08-26T10:45:30.065+05:30जम्हूरियत की मज़बूती या सिर्फ सत्ता की लड़ाई?<strong>परवेज़</strong> मु<img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5238690268679026930" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_lSGh10uYiFqwPhTTpTwfIRg_LQxXH1R0z030pbv8iVHAFS7N8feipMwMghWSDyg50x-229cXGBXrZt3yfdzqNJL7slJXMoDmijdORH-2aLEhaGFHSM6O5f3XqyXQFqqJWAYyVMkFchs/s320/nawaz1.jpg" border="0" />शर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं बीता कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3SL0qXg5jXj84Xm-HOxpfKJx604TJAKTjnX_4fFBDcoJznVOxb5kz5GMq6IR03trUHojoEqSNTNs6njmaZkc15rnOg_fKifZSo3Cwm8KgMOvCJeJvkvEa9iFLulwhCMAAXnRbYtq0KzU/s1600-h/zardari.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5238690467794996770" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3SL0qXg5jXj84Xm-HOxpfKJx604TJAKTjnX_4fFBDcoJznVOxb5kz5GMq6IR03trUHojoEqSNTNs6njmaZkc15rnOg_fKifZSo3Cwm8KgMOvCJeJvkvEa9iFLulwhCMAAXnRbYtq0KzU/s320/zardari.jpg" border="0" /></a> गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां पहले भी भिड़तीं रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है। लेकिन अवाम की ज़रुरत और उसके सपनों से दूर राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरियां होती हैं। यही मजबूरी नवाज़ के पीएमएल एन और ज़रदारी की पीपीपी की भी है। दोनों एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां रहीं हैं और एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ कर सत्ता तक पहुंचती रही हैं। मुशर्रफ़ नाम की मजबूरी ने दोनों को एक किया। अकेले पार पाने में नाकाम रही इन पार्टियों ने चुनाव के बाद मिल कर सरकार बनायी। लेकिन गठबंधन सरकार बनाने के बाद भी दोनों ने अपने अपने एजेंडे पर चलने की कोशिश जारी रखा। नवाज़ को मुशर्रफ़ से अपना बदला लेना था तो ज़रदारी को पाकिस्तान की राजनीति में ख़ुद को सेट करना। अपने जनाधार के बूते नवाज़ शरीफ मुशर्रफ़ को एक पल भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे तो एनआरओ (नेशनल रिकांसिलिएशन आर्डर) के ज़रिए वापस लौटे और भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त हुए ज़रदारी मुशर्रफ़ के ख़िलाफ एक हद से बाहर जाने को तैयार नहीं थे। मुशर्रफ़ को बेनज़ीर की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाले ज़रदारी अमेरिकी दबाव में ही सही... मुशर्रफ़ को साथ लेकर चलने में ही अपनी भलाई समझने लगे थे। लेकिन उन्होने जब देखा कि आम अवाम, वक्कला (वकीलों) और अदलिया (अदालत और जजों) और सिविल सोसाइटी में हवा उनके खिलाफ बनने लगी है तो वो महाभियोग को राज़ी हुए।<br /><br />ख़ैर। दबाव की रणनीति के ज़रिए और अमेरिका और सेना के मुशर्रफ़ के पीछे से हाथ खींच लेने की वजह से महाभियोग के पहले ही इस सैनिक तानाशाह से पार पा लिया गया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया। सैनिक तानाशाह के चले जाने के बाद लोकतांत्रिक ताक़तों के एकजुट रहने की किसी वजह के बचा नहीं रहने का खालीपन। अब किससे लड़ें और किसके ख़िलाफ एक रहें। साझा दुश्मन से निज़ात और साझा मंज़िल पा लेने के बाद ही वर्चस्व की आपसी लड़ाई शुरु होती है। आने वाले समय में पाकिस्तान का मुस्तकबिल कौन तय करेगा। कौन उनकी ज़रुरतों को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है और कौन उन्हें बेहतर शासन दे सकता है। अपेक्षाकृत उदारवादी और अमेरिका जैसे देशों की तरफ झुकाव रखने वाली पीपीपी के मुखिया आसिफ़ अली ज़रदारी या फिर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले मियां नवाज़ शरीफ़। चुनाव दोनों में से एक का ही होना है। और वो उसका होगा जो पाकिस्तानी अवाम के ज़्यादा क़रीब होने का संदेश देगा। जो उनकी माली हालत बेशक ना ठीक कर सके... सस्ता आटा चावल दाल बेशक मुहैय्या न करा सके... लेकिन उसके उठाए मुद्दे में साथ खड़े होने का भ्रम दे सके।<br /><br /><div><div><br /><strong>राजनीति के पुराने खिलाड़ी नवाज़ शरीफ़ को ये बेहतर पता है कि मौजूदा समय में सरकार में रहने से इसकी नाक़ाबिलियत का ठीकरा उनके सिर भी फूटता। मुद्रा स्फीति और बढ़ती महंगाई से पार पाना कोई आसान काम नहीं और ना ही कबाईली इलाक़ो में सर उठ चुके आतंकवादियों पर काबू पाना। तो डूब रहे जहाज़ पर खड़े हो कर डूबने से बेहतर है किनारे बैठ कर बचाओ-बचाओ चिल्लाना। मतलब अगर नवाज़ सरकार में रहते हुए सरकार को अपने एजेंडे पर चलते हुए न दिखा सकें तो विपक्ष में बैठ कर ख़ुद को सरकार से लड़ते हुए तो दिखा ही सकते हैं। इससे वो अवाम में पीपीपी को एक्सोपोज़ भी कर पाएंगे कि देखो जिन वायदों के साथ वो सत्ता में पहुंची उसे वो भूल चुकी है लिहाज़ा अब बारी उनकी है। </strong></div><br /><br /><div></div><br /><br /><div>मामला चीफ जस्टिस इफ्तिख़ार मोहम्मद चौधरी की बर्खास्तगी और इसके ख़िलाफ वकीलों के आन्दोलन से शुरु हुआ था जो इमरजेंसी के समय और जजों की बर्खास्तगी और वकीलों पर पाबंदी तक गया। इस आंदोलन ने मुशर्रफ़ के खिलाफ अवाम के गुस्से को एक नया आकार और विस्तार दिया। दोनों ही दलों ने इसका फ़ायदा फरवरी के चुनाव में उठाया। पीपीपी सबसे बड़ी तो पीएमएल एन दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी। लेकिन पीपीपी ने इन जजों की बहाली में जितनी देरी की, नवाज़ के लिए राजनीतिक ज़मीन उतनी ही तैयार होती गई। वो वक्कला-अदलिया और प्रेस और सिविल सोसाईटी के जो लोग पहले पीपीपी के साथ थे वो सभी नवाज़ के साथ आते चले गए। इससे ज़रदारी के भीतर राजनीतिक असुरक्षा का भाव और घर करता चला गया। वो जजों तो बहाल कर देते तो इसका सेहरा नवाज़ के सर तो बंधता ही, मुशर्रफ़ के फैसलों को गैरकानूनी ठहराने की स्थिति में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मामले खुलने का भी अंदेशा बढ़ता। इसलिए उन्होने राष्ट्रपति बनने के बाद ही जजों की बहाली की शर्त रख दी। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पीपीपी का होने से नवाज़ की राजनीतिक पकड़ कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए नवाज़ उन्होने राष्ट्रपति पद के लिए ज़रदारी के खिलाफ सईद उल जमा सिद्दीकी को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना दिया है।</div><br /><br /><div><br /><strong>दोनों दलों के इस तरह से अलग होने को पाकिस्तान ही नई नवेली जम्हूरियत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा। इससे लोकतंत्र विरोधी उन ताक़तों को मज़बूती मिलने की आशंका बढ़ गई है जो मौक़े की तलाश में रहती हैं। हालांकि पाकिस्तान की सेना ने राजनीति से ख़ुद को दूर रखने का फैसला किया है और अमेरिका भी पाकिस्तान में लोकतंत्र के अपने प्रयोग को इतनी जल्दी ख़त्म नहीं करना चाहेगा। फिर भी सरकार अगर कमज़ोर और अल्पमत की हो तो आशंकाएं बढ़ जाती हैं।</strong> </div><br /><br /><div><br />इस सब बातों के बीच नवाज़ और ज़रदारी के अलग होने का एक सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। मुशर्रफ़ के बाद उनकी समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है और उसके ज़्यादातर सदस्य अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। ज़ाहिर है कि संसद में कोई मज़बूत विपक्ष बचा नहीं रहा जो कि मज़बूत लोकतंत्र के लिए ज़रुरी है। ऐसे में पाकिस्तान की दो सबसे बड़ी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टी को देर सबेर एक दूसरे के खिलाफ़ आना ही था। सो वे आ आ गए हैं। ये अलग बात है कि समय से पहले आ गए हैं। लेकिन नवाज़ शरीफ जानते हैं कि अभी पाकिस्तान में दुबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो विपक्ष में बैठने की बात करके भी पीपीपी की सरकार को गिराने की बात फिलहाल नहीं कर रहे। हालांकि उनसे बतौर विपक्षी पार्टी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा करना बेमानी होगी, लेकिन वो चाहेंगे कि सरकार तब तक चलती रहे जब तक वो उसे अवाम में लताड़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते रहें। अभी उनकी पार्टी का जनाधार सिर्फ पंजाब में है। लेकिन जिस दिन पीपीपी की तरह पीएमएल एन का भी जनाधार बाक़ी के तीनों राज्यों में भी होता दिखेगा, वो चुनाव में जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे। और ऐसा करते हुए वो सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते नहीं बल्कि जम्हूरियत को मज़बूत करते भी दिखेंगें। </div></div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-90145279230920002782008-08-25T23:43:00.004+05:302008-08-25T23:58:12.825+05:30भिड़ गए नवाज़ और ज़रदारी<strong>परवेज़</strong> मुशर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं हुआ है कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़ गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां भिड़तीं पहले भी रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है।<br /><br /><em>...जारी</em>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-46658327100947610512008-08-21T15:57:00.003+05:302008-08-21T16:03:19.883+05:30अब दिखेगी नवाज़ और ज़रदारी की टक्कर<strong>परवेज़</strong> मुशर्रफ़ के इस्ती<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoaeT2r8b47fwc22j8bHFpw809WVbG2D-ARlF2V93MYJVijxar68idHb6czI19xEKPwlFB-Eokvxu_bLWr3fOd9NmdU7uG_inqTaaWY5N6GvxNAxfhY1GWgtpULHuHo7HX-UEj3UIuBu0/s1600-h/nawaz-zardari.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5236917025011188546" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoaeT2r8b47fwc22j8bHFpw809WVbG2D-ARlF2V93MYJVijxar68idHb6czI19xEKPwlFB-Eokvxu_bLWr3fOd9NmdU7uG_inqTaaWY5N6GvxNAxfhY1GWgtpULHuHo7HX-UEj3UIuBu0/s320/nawaz-zardari.jpg" border="0" /></a>फे के बाद पाकिस्तान में सियासत ने एक नई करवट ली है। मुशर्रफ़ के जाने को यहां जम्हूरियत की मज़बूती की तरफ एक और बढ़ा क़दम माना जा रहा है। ये बात सही है कि मुशर्रफ़ ने लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ने की कोशिश में सैन्य तख़्ता पलट से लेकर ईमरजेंसी लगाने तक कई काम किए। चीफ जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी जैसे जजों को बर्ख़ास्त किया और अदालतों की आज़ादी को घेरे रखा। पाकिस्तान इलेक्ट्रानिक मीडिया रेगुलेशन एक्ट (पैमरा) और प्रेस एंड पब्लिसिटी रेगुलेशन आर्डिनेंस के ज़रिए मीडिया को भी बांधे रखा। लेकिन मुशर्रफ़ के जाने के साथ ये सारे सवाल बेशक पीछे छूट गए हैं। लेकिन पाकिस्तान की जम्हूरियत की मज़बूती के लिए कुछ और सवाल बचे हुए हैं।<br /><div></div><br /><div>सबसे बड़ा सवाल है कि नए हालात में मियां नवाज़ शरीफ और आसिफ़ अली ज़रदारी कब तक साथ खड़े रह पाएंगे? ये सवाल अचानक उठ नहीं खड़ा है। ये तब भी था जब ये साथ खड़े हुए थे। लेकिन मुशर्रफ़ से लड़ाई की शोर में ये दबा हुआ था। दोनों साथ आए ही थे मुशर्रफ़ को हटाने के लिए। तो जब इनके साझा दुश्मन मुशर्रफ़ सियासी परिदृष्य से हट गए हैं तो ज़ाहिर सी बात है इनके बीच एकता का साझा बहाना भी ख़त्म हो गया है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़, पाकिस्तान की ये दो मुख्य पार्टियां पहले एक दूसरे के खिलाफ लड़ती और संसद तक पहुंचती रही हैं। परवेज़ मुशर्रफ ने इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के सुप्रीम नेताओं से जम कर दुश्मनी की। नतीज़ा दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है की तर्ज़ पर इन दोनों पार्टियों के नेता साथ आने को मज़बूर हुए। यूं तो 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान' की इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में कोई मौलिक विभेद मुश्किल है। लेकिन ये तो साफ़ है कि नवाज़ शरीफ राइटविंग पॉलिटिक्स यानि दश्रिणपंथी राजनीतिक में भरोसा करते हैं और अपेक्षाकृत कट्टरवादी चेहरा माने जाते हैं। वे पाकिस्तान में अमेरिकी दख़ल की मुख़ालफत करते रहते हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व में अपेक्षाकृत उदारवादी नीति वाली पार्टी का रहा है। इसका झुकाव हमेशा पश्चिमी देशों, ख़ासतौर से अमेरिका की तरफ रहा है। बेनज़ीर के पार्टी की कमान संभालने वाले आसिफ़ अली ज़रदारी की यूं तो अभी कोई ठोस राजनीतिक छवि नहीं बन पायी है। वे बस बेनज़ीर की विरासत को आगे ले जाने की कोशिश में जुटे हैं और पार्टी को पुरानी नीति से अलग नहीं ले जा सकते। इसके लिए उनकी अपनी मज़बूरियां भी हैं। </div><br /><div></div><br /><div>यानि राजनीतिक पार्टी के तौर पर पीपीपी और पीएमएल क्यू की विचारधारा में जो अंतर है वो ख़त्म नहीं हो सकता। होना नहीं चाहिए। लेकिन अगर दोनों मुख्य पार्टियां एक साथ सत्ता में बैठी रहेंगी तो मज़बूत विपक्ष की भूमिका कौन निभाएगा? मुशर्रफ़ की वजह से वजूद में आयी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू) मुशर्रफ़ के जाने के साथ ही ख़त्म नहीं तो बहुत कमज़ोर तो पड़ ही गई है। उसके सांसदों के जल्द ही टूट कर अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ आ जाने की उम्मीद जतायी जा रही है। तो जब कोई मज़बूत विपक्ष नहीं होगा तो मज़बूत जम्हूरियत की बात बेमानी होगी। अगर पीपीपी-पीएमएल (एन) गठबंधन पर नज़र डालें तो इन दोस्ती के दिनों में भी दोनों के बीच सोच और एप्रोट का अंतर साफ दिखाई देता रहा है। इस्लामाबाद से सटे हिल स्टेशन मरी में जारी घोषणापत्र एक तरह से इन दोनों पार्टियों के बीच का या न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) था। हालांकि इसमें सारा ज़ोर मुशर्रफ़ को हटाने और बरख़ास्त जजों की बहाली पर था जो सरकार को समर्थन देने की नवाज़ शरीफ़ की शर्त और नतीज़ा था। फरवरी में चुनाव नतीजे आने के बाद भी सरकार बनने में तक़रीबन एक महीना लग गया तो वो इसलिए कि ज़रदारी नवाज़ की शर्तों को मानने को तैयार नहीं हो पा रहे थे। लेकिन नवाज़ शरीफ की लगातार ज़िद, सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे जैसे क़दम और चुनावी वादा न निभाने के चलते जनता में पीपीपी की लगातार होती फज़ीहत से पैदा हुए दबाव का ही नतीज़ा रहा कि आख़िरकार ज़रदारी को मुशर्रफ़ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा। चौतरफा दबाव की वजह से मुशर्रफ तो निकल लिए लेकिन अब गठबंधन सरकार के सामने पेंच जजों की बहाली को लेकर फंसा हुआ है। नवाज़ ने कई बार समय सीमा तय की है लेकिन बहाली को लेकर फैसला लेने में देरी हो रही है। ज़रदारी को डर है कि अगर बर्ख़ास्त जजों को बहाल किया गया तो उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मुकद्दमें फिर से खुल सकते हैं। नवाज़ शरीफ बेशक उन्हें अपनी तरफ से ऐसा नहीं होने का भरोसा दे रहे हों लेकिन ज़रदारी का डर बेवजह नहीं है। </div><br /><div></div><br /><div>बेशक नवाज़ ने मुशर्रफ के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ने की बात फिलहाल मान ली हो। लेकिन मुशर्रफ़ का दिया जो दर्द नवाज़ ने झेला और अदालत और वकीलों ने जो परेशानी उठायी है उसको देखते हुए ये अचरज़ की बात नहीं कि मुशर्रफ़ के खिलाफ़ देर सबेर कानूनी कार्रवाई शुरु की जाए। पुरानी अदालत बहाल होने की स्थिति में इसमें तेज़ी आ सकती है। मुशर्रफ के जाने के पुराने फैसले असंवैधानिक करार दिए जा सकते हैं। ऐसे में मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच हुआ नेशनल रिकांसिलिएशन एलायंस की जद में आ सकता है। मुशर्रफ के जिस नेशनल रिकांसिलेएशन आर्डर के ज़रिए ज़रदारी पर से भ्रष्टाचार के मामले हटाए गए उसे रद्द किया जा सकता है। ऐसे में ज़रदारी फिर से राजनीतिक तौर पर हाशिए पर धकेले जा सकते हैं। मुशर्रफ क हटाने में हुई देरी के चलते वकीलों ने ज़रदारी के खिलाफ जो मोर्चा खोल दिया उससे भी ज़रदारी सहमे हुए हैं। एतेज़ाज़ एहसन जैसे वकील नेता का उभरना भी ज़रदारी को भारी पड़ सकता है। दूसरी तरफ, नए हालात में ज़रदारी को कमज़ोर करने वाली जितनी भी बातें होगीं वो सब नवाज़ शरीफ को सत्ता के क़रीब ले जाने वाली साबित हो सकती हैं। मुशर्रफ़ के हाथों बहाल हुए मौजूदा जजों ने नवाज़ शरीफ के चुनाव लड़ने की पात्रता पर रोक लगा रखी है। पुराने जज आएंगे तो नवाज़ से ये पाबंदी हटनी तय है। नवाज़ का चुन कर संसद में आने का मतलब है ज़रदारी की तरकश से उस तीर का निकल जाना जिसके बूते वो बाद की राजनीति में नवाज़ को दबा कर रखने की कोशिश कर सकते हैं। राजनीतिक में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता ये तो धुर विरोधी रही पार्टियां पीपीपी और पीएमएल (एन) का मिल कर बनाने के फैसले से ही साफ हो गया। लेकिन इसी राजनीति में कोई स्थायी दोस्त भी नहीं होता ये ज़ाहिर होना बाक़ी है। इन दोनों पार्टियों के लिए ये स्वभाविक भी है क्योंकि ये पहले से एक दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं। आगे भी लड़ेगें। बात सिर्फ समय की है। </div><br /><div></div><br /><div>नवाज़ शरीफ अभी तुरंत चुनाव नहीं चाहेंगे क्योंकि इससे उनपर अपने स्वार्थ के लिए सरकार गिराने का आरोप लग सकता है और पाकिस्तान की सियासत में अभी जो कुछ भी ठीक होता नज़र आ रहा है वो फिर से ग़लत रास्ता पकड़ सकता है। नवाज़ को ये भी पता है कि फरवरी के चुनाव में उनकी पार्टी ने सिर्फ पंजाब प्रांत में उम्दा प्रदर्शन किया जबकि पीपीपी की पकड़ बाक़ी के तीन राज्यों सिंध, बलचिस्तान और एनडब्ल्यूएफपी में भी है। इसलिए जब तक नवाज़ पूरे पाकिस्तान में अपने लिए आधार नहीं बना लेते तब तक वो चुनाव नहीं चाहेंगे। लेकिन आवाम के सामने वो ज़रदारी को कमतर साबित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे। बर्ख़ास्त जजों की बहाली की ज़िद के ज़रिए वो सिविल सोसायटी और वकीलों के चहेते तो बन ही गए हैं... आने वाले दिनों में गठबंधन सरकार के होने वाले फैसलों में भी अपनी चला कर वो वोटबैंक पुख़्ता करने की कोशिश में जुटे रहेंगे। यानि दोस्ती के दिनों में दुश्मनी के हथियार जुटाते और संभालते रहेंगे।</div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-44431979200382731372008-08-21T12:23:00.005+05:302008-08-21T12:37:12.875+05:30BMW का मतलब 'बिको मत वकीलसाहब'<strong>बीएमडब्ल्यू</strong> कार दुर्घटना मुकद्दमें में एनडीटीवी के स्टिंग ऑपरेशन पर दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आ गया है। मामले में फंसे दोनों वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को दोषी पाया गया है। दोनों वकीलों से वरिष्ठ वकील होने का दर्ज़ा वापस लेने की अनुशंसा की गई है और इनकी वकालत पर चार महीने की पाबंदी भी लगा दी गई है।<br /><br />इस पर एक पुरानी पोस्ट पढ़ने के लिए नीचे क्लिक कर सकते हैं।<br /><br /><a href="http://valleyoftruth.blogspot.com/2007/05/bmw-biko-mat-waqeel.html">BMW मतलब Biko-Mat-Wakeelsahab!!!</a>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-83821981175284574002008-08-18T22:21:00.004+05:302008-08-18T22:38:16.079+05:30आख़िर गए मुशर्रफ़<strong>मुशर्रफ</strong> को आख़िरकार इस्तीफ़ा देना पड़ा। मुख्य तौर पर तीन वजहें रहीं। नवाज़ शरीफ और ज़रदारी के नेतृत्व में राजनीतिक दलों की घेराबंदी, पाकिस्तानी सेना का चुप रहना और अमेरिका का मुशर्रफ़ से पीछे से हाथ खींच लेना। पाकिस्तान में जम्हूरियत की मज़बूती के लिए मुशर्रफ को हटाया जाना ज़रुरी माना जा रहा था। अब मुशर्रफ नहीं हैं लेकिन जम्हूरियत की चुनौतियां अब भी बरकरार है।<br /><br />किसी जम्हूरियत की मज़बूती के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना ज़रुरी है। मुशर्रफ की विदाई के बाद उनकी बनाई पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है। ऐसे में मज़बूत विपक्ष की भूमिका में कोई बड़ी पार्टी नहीं बची है। दो धुरविरोधी पार्टियां पीपीपी और पीएमएल एन सत्ता में साझीदार हैं। अब जब उनका साझा दुश्मन नहीं रहा तो ऐसे में देखना होगा कि अलग अलग नीतियां लेकर चलने वाली ये दोनों पार्टिया कब तक साथ चलती हैं। इनके बीच हितों का टकराव तो होना ही है। लेकिन अभी मुल्क जिस आर्थिक बदहाली और विधि व्यवस्था की नाकामी का शिकार है उससे पार पाए बग़ैर अगर ये आपस में लड़े तो लोकतंत्र विरोधी ताक़तों को फिर मौक़ा मिल सकता है।<br /><br />आतंकवाद पर क़ाबू पाते हुए और मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाते हुए अगर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के ख़िलाफ चुनाव लड़ा तो ये पाकिस्तान की नई नवेली जम्हूरियत के हित में होगा। स्वार्थ की वजह से लड़े तो जैसा था वैसे की स्थिति में पहुंचने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-38403369055149867842008-08-07T20:07:00.003+05:302008-08-07T20:17:17.994+05:30मुशर्रफ़ पर महाभियोग!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRQDeRW9PFX3LnjQ43VYdKREQTGkt1EeYWa096p4pLjsnipYDc-fdBjeHyTSyq4YQUeqtVsS9ztgn-xVg0YnUgiAalNjMkBsoaPcgqE8X0o1jqm2WcQIBTr1g5SRYLuL9KKcBv2FRsXfU/s1600-h/musharraf.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5231786866448336530" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRQDeRW9PFX3LnjQ43VYdKREQTGkt1EeYWa096p4pLjsnipYDc-fdBjeHyTSyq4YQUeqtVsS9ztgn-xVg0YnUgiAalNjMkBsoaPcgqE8X0o1jqm2WcQIBTr1g5SRYLuL9KKcBv2FRsXfU/s320/musharraf.jpg" border="0" /></a> <strong>मुशर्रफ </strong>को हटाने के लिए नवाज़ शरीफ का दबाव आख़िर काम आता नज़र आ रहा है। पीपीपी से आगे बातचीत का रास्ता बंद करने की धमकी के बाद सत्तारुढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी को राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा है। हालांकि अभी ये साफ नहीं है कि महाभियोग कब लाया जाएगा। हो सकता है कि नवाज़ के दबाव के चलते अभी सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर इसका ऐलान किया गया हो और इस पर वास्तविक अमल में अभी वक्त लगे।<br /><div></div><br /><div>दरअसल 18 फरवरी के चुनाव नतीज़ों में मुशर्रफ की समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू की करारी हार हुई थी। पीपीपी की सरकार नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल एन के समर्थन के बूते ही बन सकी। उसके बाद से ही नवाज़ शरीफ लगातार लोकतंत्र विरोधी मुशर्रफ को हटाने और इमरजेंसी के पहले के जजों की बहाली के लिए ज़ोर डालते रहे हैं। लेकिन चाहे वो अमेरिकी दबाव हो या सेना से दुश्मनी का डर, ज़रदारी मुशर्रफ से सीधा दो दो हाथ करने से बचते रहे। नतीजतन पीपीपी के खिलाफ पाकिस्तानी अवाम की नाराज़गी भी काफी बढ़ती गई। </div><br /><div></div><br /><div>अब ऐलान किया गया है कि सरकार संसद में मुशर्रफ के खिलाफ चार्जशीट पेश करेगी। आठ साल तक पाकिस्तान पर राज करने वाले राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के लिए इसे मुश्किल दिनों की शुरुआत के तौर पर देखा जा रहा है। एक रास्ता ये है कि वो खुद ही इस्तीफ़ा दे दें। वैसे संसद को भंग करने के लिए धारा 58 2बी का इस्तेमाल अभी भी मुशर्रफ के हाथ में है। अपने शासन काल में की गई ग़लतियों के चलते हाल ही में अमेरिकी आलोचना का शिकार हो चुके मुशर्रफ मौजूदा हालात में इसके इस्तेमाल की हिम्मत शायद ही कर पाएं। सरकार के सामने सवाल ये है कि वो महाभियोग के लिए ज़रुरी दो तिहाई बहुमत कैसे जुटाती है। क्या वो महाभियोग पर अवामी नेशनल पार्टी जैसे दलों का सहयोग हासिल कर पाती है, पीएमएल क्यू को तोड़ती है या फिर नवबंर में सीनेट चुनाव तक इंतज़ार करती है।</div>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-41921080699017301192008-08-07T11:07:00.004+05:302008-08-07T21:04:43.050+05:30जम्मू जाग जाने का वक्त है... पार्ट 2<em><strong>गतांक से आगे...</strong></em><br /><strong><em></em></strong><br />जम्मू में कई इलाक़े में कश्मीरी बसे हैं। पंडित और मुसलमान भी। नई नई बस्तियां बसी हैं। एसबेस्टर की और महलनुमा भी। उनके बीच धार्मिक स्थल भी बने हैं। मंदिर भी और मस्ज़िद भी। तब क्यों नहीं स्यापा हुआ। अब क्यों हो रहा है। कम्युनल लाईन पर बात तब क्यों नहीं आयी। अब क्यों आ रही है।<br /><br />ज़मीन वापस लेने के फैसले के पीछे अगर श्रीनगर के जनांदोलन की दुहाई दी जा रही है तो ये बात किसी से छिपी नहीं है कि कम से कम दो दशक से पूरी घाटी में आंदोलन, हिंसक या अहिंसक, किस बात के लिए हो रहे हैं। भारत से अलग होने के लिए ही ना। तो जनभावना और जनआंदोलन का ख़्याल कर क्यों नहीं खुला छोड़ देते उन्हें। मालूम है धर्मनिरपेक्षों को कि वो इलाका तो चला ही जाए... पूरा देश जूते मारेगा सो अलग। इसलिए उनको बांध के ही सही... साथ रखना है। और वोट मिलता रहे... कुर्सी बची रहे इसले लिए जनभावना की दुहाई देकर चंद अलगाववादियों को खुश रखना है। और ये अगर लोकल पॉलिटिक्स में बने रहने की चालाक रफ्फूगिरी नहीं है तो क्यों कांग्रेस और पीडीपी जैसी सभ्रांत पार्टियों के नेता ज़मीन की लड़ाई में जम्मू के साथ हो लिए हैं। पार्टी लाइन तोड़ रहे है या पार्टी ही छोड़ रहे हैं। इसलिए क्योंकि नहीं हुए तो ज़मीन सूंघ जाएंगे। जो लोकल हीट इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लोकल नेताओं को लोकल स्तर पर हो रहा है वही अगर राष्ट्रीय स्तर पर रास्ट्रीय स्तर के नेताओं को होने लगे तो शायद वो अपना चश्मा उतार फेंके।<br /><br />ज़मीन देने के ख़िलाफ जब श्रीनगर में आंदोलन शुरु हुआ तो ज़िम्मेदार सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेताओं को ठहराया गया। वहां अगर ये मामला गहरा सांप्रदायिक रंग लेने से बचा तो उन टैक्सी ड्राईवरों और व्यापार करने वालों की वजह से जिनकी रोज़ी रोटी ‘टनल पार’ वालों से चलती है। क्योंकि आपने उनको आज़ादी दी नहीं है इसलिए वो इधर वालों पर आश्रित हैं। इसलिए जहां कहीं भी टनल पार वालों पर पत्थर बरसने की नौबत आयी... वो बचा ले गए... बचा ले जाते हैं। जहां पत्थर बरसे वो कैमरों की निगाह में आ नहीं पाए। अगर कोई भुक्तभोगी मिलेगा तो वही आपको बता पाएगा। क्या क्या हुआ। कैसे वापस आए। लेकिन वहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का शासन है। इसलिए सब कुछ मैनेज कर लिया गया। लेकिन अब वहीं मीरवाइज़ उमर फारुक सेब का ट्रक लेकर एलओसी क्रॉस करने की बात कर रहे हैं। मेहबूबा कहतीं है कि हमें अलग कर दो इतना ही दिक्कत है तो। क्यों भई। बीजेपी के नेता भड़काऊ हैं तो ये आगे आकर क्यों नहीं कहते कि जम्मू के भाई... इतनी सी ज़मीन के लिए इतना बवाल क्यों। ले लो। क्या इससे कश्मीर कम हो जाएगा। नहीं। कश्मीरियत उंची उठ जाएगी। पर वो ऐसा क्यों करें।<br /><br />दरअसल कश्मीर किसी आज़ादी की लड़ाई का नहीं राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का शिकार रहा है। जिसका एक सिरा पाकिस्तान को खुलता है। ट्रांसफॉर्मर तो बिहार में भी फुंकते हैं। लेकिन ट्रांसफॉमर फुंकने पर भी ‘जीवे जीवे पाकिस्तान... हम क्या मांगे आज़ादी’ के नारे लगते सुने गए हैं। तो इकॉनॉमिक ब्लोकेड पर तो पाकिस्तान की गोद में बैठने डर दिखाना तो ऐसे नेताओं की फितरत का हिस्सा है। कभी इनको एक्सपोज़ करने की बात क्यों नहीं होती। नंगे पंगे को ही रगड़ कर क्यों खुद को सबसे ठीक होने की गलतफहमी पाले हुए हैं। जान लें। गुजरात हो या जम्मू और कश्मीर, धर्म के नाम पर जहां भी राजनीतिक सत्ता पर बने रहने की मंशा होगी... आज न कल ऐसी ही जलती हुई तस्वीर दिखेगी।<br /><br />जम्मू जलने के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले सावधान। हिन्दुत्व का एक फ्लॉप शो देकर कुंद हो चुकी पार्टी में आप एक नई जान भर रहे हो। इस पार्टी में इतनी कूवत होती तो अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ सिर्फ बयानबाज़ी कर चुप नहीं रह जाती। जनभावना को भड़का कोई जनांदोलन का भ्रम दे पाने जैसी हालत भी पैदा कर पाती तो देश कई जगह जल रहा होता। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर बहक कर लोग बांग्लादेशियों को सीमा पर घसीटने पर आमादा हो रहे होते। राम मंदिर बनाने के लिए दुबारा से ईंट लेकर आडवाणी के पीछे हो लिए होते। लेकिन अभी सिर्फ सिर्फ जम्मू जला है तो सिर्फ एक वजह से। आपकी वजह से। क्योंकि आपने जलने की पृष्ठभूमि तैयार की। पहले ज़मीन देकर। फिर वापस लेकर।उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-7213997066275576552008-08-07T02:13:00.007+05:302008-08-07T21:03:44.895+05:30जम्मू जाग जाने का वक्त है<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhesspRdiVzTpISK8rOCHhM258421whTJ_bs_NuPh-IINefkb26UrY0CSe9zYFZkOo4K3m6pAZgizlgGgvgX1WLjgOwIgucpYJXqgi46Vx42NeT1fhgCHhJWzCTEB3qVLnCRZIwKNKhIg/s1600-h/jammu+violence.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5231510393314914450" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhesspRdiVzTpISK8rOCHhM258421whTJ_bs_NuPh-IINefkb26UrY0CSe9zYFZkOo4K3m6pAZgizlgGgvgX1WLjgOwIgucpYJXqgi46Vx42NeT1fhgCHhJWzCTEB3qVLnCRZIwKNKhIg/s320/jammu+violence.jpg" border="0" /></a> <strong>जम्मू </strong>जाग जाने का वक्त है। उन लोगों के लिए जिन्होने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सालों साल से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति अपना रखी है। आपको ये लाइनें किसी बीजेपी या विश्व हिन्दू परिषद् के नेता का लग सकती हैं। लेकिन यही सच्चाई नज़र आने लगी है। ख़ास तौर पर उन लोगों को जो रोज़ टीवी पर जम्मू के लोगों को सड़क पर उतरते देख रहे हैं। जो जम्मू की महिलाओं को पहली बार उसी तरह से छाती पीटते देख रहे हैं जैसा अब तक सिर्फ कश्मीर में किसी कस्टोडियल कीलिंग के बाद देखने में आता था। जत्थे के जत्थे लोग। पुलिस, आंसू गैस और गोली से जूझते लोग। आप भी देख रहे हैं।<br /><br />जो लोग जम्मू की हालत के लिए बीजेपी जैसी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं वो कहीं ना कहीं बीजेपी की मदद करते नज़र आते हैं। एक ऐसी पार्टी जो राम मंदिर के लिए शिला पूजन करा जन भावना को भड़का अयोध्या तक ले गई... वही पार्टी जो हिन्दुत्व का झंडाबरदार बनने का वैसा ही नाटक दूबारा नहीं कर सकी। क्यों। क्योंकि उसका प्रपंच सामने आ गया। फिर वो कभी वो ताक़त नहीं पा सकी। पा सकी होती तो शायद देश में कई जगहों पर वो अपना एजेंडा चला चुकी होती... चला रही होती। गुजरात मोदी के हवाले छोड़ दें तो बाक़ी कहीं हिन्दुत्व फैक्टर बीजेपी के लिए काम करता नज़र नहीं आता। फिर जम्मू में बीजेपी फैक्टर काम कर रहा है तो क्यों।<br /><br /><br />धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने के थोथे आरोप प्रत्यारोप को अलग रख तक तथ्यात्मक तौर से देखें तो ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा ये जानने में कि जम्मू को जलाने का काम किसने किया... क्यों किया। एक ज़मीन दी गई अमरनाथ श्राईन बोर्ड को। राज्य सरकार का फैसला था। उस सरकार का जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली पार्टियों से बनी थी। कैबिनेट की मंज़ूरी से फैसला होता है। फैसले के पहले या तो किसी ने इसके दूरगामी प्रभाव की गणना नहीं की... या फिर इसके पीछे डोडा, भरदवाह, किश्तवाड़ समेत जम्मू के तमाम... और जम्मू ही क्यों, पूरे देश के हिन्दू तीर्थ यात्रियों के दिल जीतने की मंशा के तहत किया। इस फैसले के बाद जब श्रीनगर जल उठा तो इस फैसले को ग़लत मान लिया गया और बदल दिया गया। सही बात है। जनभावना के सामनों सरकारों को झुक जाना चाहिए। सो वो झुक गई। अब बारी जम्मू की थी। वो सुलगने लगा। नेताओं को लगा ये मोम के बने लोग हैं। जल्द ही पिघल जाएंगे। लेकिन गर्मी इतनी बढ़ गई कि केन्द्र सरकार तक को पसीना आ गया। किसी भी सरकार का जम्मू से ये इस तरह का पहला एक्सोपज़र है। सो समझ नहीं आ रहा क्या करें। सर्वदलीय बैठक कर लिया। चलो सब मिल के चलते हैं। बीजेपी भी चलेगी। जा के क्या करेंगे... शायद पता नहीं। हां... शांति की अपील करेगें। और लोग शांत हो जाएंगे। गोली का डर भी दिखा रहे हैं। फिर ग़लती कर रहे हैं और हिंसा के लिए ज़िम्मेदार जनता पर थोप रहे हैं।<br /><br />जम्मू वालों के तर्क को कैसे काटेंगे कि क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अगर वहां धारा 370 है तो क्या वो जम्मू में नहीं है। अगर जम्मू है तो वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड को इतना विस्तार कैसे दिया गया। इतनी सुविधाएं क्यों बनने दी गई। सिर्फ इसलिए कि श्रीनगर ने विरोध नहीं किया या फिर विरोध उनके अख़्तियार में ही नहीं था। जहां था वहां किया और फैसला बदलवा लिया। तो अब वैसी कोशिश ही जम्मू कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि वैष्णो देवी और अमरनाथ दोनों भारत में ही है। राज्य के एक इलाक़े के लोगों को आंदोलन के ज़रिए सरकार को झुकाने का हक़ है तो दूसरे इलाक़े के लोगों का ये हक़ कोई कैसे छीन सकता है। ये बहाना मत बनाइए कि ये संवेदशील मामला है। ... <em><strong>जारी</strong></em>उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5235000792645820594.post-46948602199957416912008-07-28T12:36:00.003+05:302008-07-28T12:45:04.092+05:30“...कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे...”<strong>अहमदाबाद</strong> में <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVLhgmPIjWah-Rfy4aKB-NrAUBJ05g4s7MGvGbCwFfds84PoepDfXMyqg-ivSFGcC4tNUy5DdDs6II7gf6e5Rr6u7QnepS42WmUpaciu-X6rgaLNvKSEqlbZWjDsZE_-NZ9g1B4v90r20/s1600-h/ahmedabad+victim.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5227959430736218658" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVLhgmPIjWah-Rfy4aKB-NrAUBJ05g4s7MGvGbCwFfds84PoepDfXMyqg-ivSFGcC4tNUy5DdDs6II7gf6e5Rr6u7QnepS42WmUpaciu-X6rgaLNvKSEqlbZWjDsZE_-NZ9g1B4v90r20/s320/ahmedabad+victim.jpg" border="0" /></a>धमाके की ख़बर आयी उस समय मैं 64 लोदी स्टेट में था। संसद में नोट लहराए जाने के मामले पर गठित कमिटि के चेयरमैन और वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद के सी देव के यहां। धमाका दूर अहमदाबाद में हुआ था लेकिन कुछ ही मिनटों में गूंज दिल्ली में भी सुनाई देगी इस बात का एहसास तो था ही। लिहाज़ा यहां से अपना काम समेट कहीं और चलने की प्रक्रिया में था। तभी बीजेपी दफ्तर से फोन आया। “एबी 97... जी...जी। राजीव प्रताप रुढी जी के यहां।...हां वहीं बाइट देगें...।“ ऐसे मौकों को मन झिड़क देने को करता है। लेकिन धमाकों के बाद प्रतिक्रिया लेने और देने का चलन है। सो चल पड़ा। पहुंच कर कैमरा सजाया ही था कि कहा गया पार्टी अध्यक्ष ही बाइट देगें अपने निवास पर। वहां चलें। हम मशीनी तरीके से चल पड़े। चलने के पहले नोटिस किया कि यहां कई चैनलों को लगातार मॉनीटर किया जा रहा है। दो शख्स लगातार फोन कर चैनलों को बता रहे हैं कि राजनाथ सिंह ने धमाकों की निंदा की है। कहा है देश में असुरक्षा का माहौल है। इसे चला दें। टाइम्स नाउ पर पट्टी चल पड़ी। फोन करने वाले को त्वरित संतुष्टि का अहसास हुआ... “चल गया... चल गया।“ ख़ैर ये उनका काम था सो उन्हें करना था। धमाकों के बीच प्रमुख विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष की चिंता को चैनलों के ज़रिए फैलाना था।<br />राजनाथ सिंह के घर ओबी वैन पहुंच रहे थे। छ बज कर पैंतालिस मिनट पर पहला धमाका हुआ था। बम अभी फट ही रहे थे। अभी तक सिर्फ 6 लोगों के मरने की जानकारी आयी थी। अपडेट्स लगातार आ रहे थे। लेकिन ये ज़रुरी तो नहीं कि सारा कुछ देख लेने के बाद ही नेता अपनी प्रतिक्रिया दें। मज़ाक की बात थोड़े ही है। आपको हमको भी तो इंतज़ार रहता है कि देश दुनिया को बताएं कि अमुक अमुक पार्टी के अमुक अमुक नेता क्या कर रहे हैं... क्या कह रहे हैं... जब देश में बम फट रहे हैं। सो ऐसे में पहली प्रतिक्रिया की अपनी वैल्यू है।<br /><br />10 मिनट के अंदर 16 कैमरे और 6 ओबी वैन्स पहुंच चुके थे। तभी जानकारी मिली की मामला बड़ा हो गया है। लालकृष्ण आडवाणी खुद मीडिया से बात करेंगे। वहां पहुंचें। मैंने अपने साथियों को रोका। कहा पहले यहां सुन लें फिर वहां चलेगें। कैमरे सज चुके थे। ओबी सिग्नल भी ट्रैक हो चुके थे। सो सभी ने हामी भर दी। अंदर जानकारी भेजी गई कि अगर आडवाणी जी बोल गए तो राजनाथ सिंह जी की कौन सुनेगा। बात शायद क्लिक कर गई। राजनाथ सिंह जी सवा आठ से आठ मिनट पहले ही कैमरे के सामने प्रकट हो गए। वही बातें कि जो पार्टी अक्सर करती रहती है। ...आंतकवाद की कड़े से कड़े शब्दों में निंदा और पोटा जैसे कानून की मांग। अफज़ल को फांसी पर क्यों नहीं लटकाया अब तक...। सरकार के निकम्मेपन पर विपक्ष की ये लाठी असल में पानी पर पड़ती नज़र आती है। चलिए। इनको सुन लिया। लाइव कट गया। इनका बयान ख़त्म होते होते उधर आडवाणी भी शुरु हो चुके थे। वहां से फोन पर लाइव लिए जा रहे थे। उन्होने प्रतिक्रिया देने का फैसला इतना त्वरित लिया था कि बहुतों की ओबी नहीं पहुंच पायी थी।<br /><br /><br />इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। सत्ता पक्ष का पहलू। ये भी धमाके के तुरंत बाद ही शुरु हो जाता है। मैंने अपने सहयोगी शारिक ख़ान को गृह राज्यमंत्री शकील अहमद को ट्रैक करने का अनुरोध किया था। शारिक का फोन आया कि वो कहीं मयूर विहार में बैठे हैं जहां हमें नहीं बुला सकते। हां फोनो दे सकते हैं सो मैंने ऑफिस को नंबर लिखा दिया है। शकील अहमद साहब ऑन एयर थे। हर बात पर बात करने को तैयार दूसरे गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल कानपुर में थे। कुछ चैनलों ने उनको वहीं ढूंढ निकाला। वे भी बोल रहे थे। ऐसे मौके पर राजनीति नहीं करने की अपील कर रहे थे। इस तरह का बयान कोई पहली बार सुन रहा होता तो शायद अच्छा लगता। कि देखो सत्ता में इतना उंचा उठा नेता राजनीति नहीं करने की बात कर रहा है। लेकिन ऐसा हमेशा होता है। ख़ासतौर पर जब बम बीजेपी शासित राज्य में फटा हो। सरकार की तरफ से बयान आता है कि۔..."लॉ एंड आर्डर राज्य की ज़िम्मेदारी है।... हमने उनके एक दो तीन पहले ही बता दिया था कि ऐसा कुछ होने वाला है। ये उनकी चूक है।... हम हर मदद देने को तैयार हैं।"<br /><br />अब तक कैमरा माननीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल जी के घर भी घूम चुका है। कहीं बाहर से आ रहे हैं। वो आते हैं। फटाफट बैठक करते हैं। अब मीडिया से मुख़ातिब हैं। “...किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा...।“ उनको भी पता है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनके ही कार्यकाल में कम से एक दर्जन ऐसे सीरियल ब्लास्ट्स हुए हैं। हर बार आतंकियों को पकड़ सज़ा देने का बात हुई है। एक्का दुक्का पकड़ा गया तो पकड़ा गया नहीं तो हुजी, सिमी, लश्कर जैसे संगठनों का नाम सामने रख कार्रवाई पूरी मान ली गई है। अगर नहीं मानी जाती तो शायद इन्हें एक बार और ऐसा वादा या दावा नहीं करना पड़ता जिसका खोखलापन साफ उजागर होता है।<br /><br />एक सख्त कानून की मांग करता है। मतलब कि धमाके तो होंगे ही... कहीं ना कहीं वो ये मान कर चल रहा है। उसके बाद पकड़ने और सज़ा देने के लिए कड़ा कानून चाहिए। दूसरा एफबीआई जैसी एजेंसी का झांसा दे रहा है। कई साल बनने में लग जाएगें। अभी तो सिर से उतारो। सुरक्षा के लिए हरेक के पीछे एक पुलिस वाला नहीं लगा सकते। ये हम आप सभी जानते हैं। लेकिन आंतरिक सुरक्षा के लिए ज़रुरी ख़ुफिया तंत्र को क्यों लकवा मार गया है। 17 धमाकों के पीछे लगे आतंकियों ने फोन, ईमेल या बैठकी के ज़रिए आपस में संवाद किया होगा। आपकी नज़र से ये सब क्यों छूट जाता है। क्या मुख़बिर नहीं हैं या सोर्स मनी कम पड़ गया है। कुछ बेसिक्स पर विचारिए। एक दूसरे पर दोषारोपण तो राजनीति का स्वभाविक चरित्र है। लेकिन ज़रूरी नहीं कि मामले की गंभीरता का एहसास तभी हो जब अपने घर का कोई इसका शिकार हो। तब शायद आप ये कह पाने की हालत में नहीं होगे कि…” हम कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे...”उमाशंकर सिंहhttp://www.blogger.com/profile/17580430696821338879noreply@blogger.com5