Friday, June 27, 2008

नवाज़ के सामने की मुश्किलें

"मुशर्रफ़ के शिकस्ते-फाश के लिए ज़रुरी हुआ तो पीपीपी के साथ मिल कर भी सरकार बनाएंगे”… बेनज़ीर की हत्या के बाद लाहौर के रायविंड स्थित अपने आवास पर नवाज़ शरीफ ने मुझसे यही कहा था। मिलीजुली सरकार की बात उन्होने पहली बार की थी लेकिन गठबंधन की राजनीति का आगाज़ करने के बाद भी मियां नवाज़ शरीफ अपने मक़सद में अब तक क़ामयाब नहीं हो पाए हैं। उल्टे लाहौर हाईकोर्ट ने उप-चुनाव में खड़े होने के अयोग्य ठहरा कर उनकी राजनीतिक मुश्कलें और बढ़ा दी हैं। हालांकि पीपीपी सरकार ने अपने नाराज़ सहयोगी को राहत पहुंचाने की कोशिश के तहत चुनाव आयोग को निर्देश दे दिए कि उप-चुनाव की तारीख़ टाल दी जाए। नवाज़ शरीफ संसदीय चुनाव लड़ पाएगें या नहीं अब ये फैसला सुप्रीम कोर्ट में है जहां पीसीओ के तहत बहाल जज बैठे हैं। यानि इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने जिन जजों की नियुक्ति की वे जज। नवाज़ शरीफ लगातार मांग करते रहे हैं कि पीसीओ के पहले के जजों की बहाली की जाए जिनमें चीफ जस्टिस इफ्तिख़ार मोहम्मद चौधरी भी शामिल है। मुशर्रफ और उनके तानाशाही फैसलों की मुखालफत करने वाले इन जजों की बहाली का एक मतलब होता है पीसीओ के तहत बहाल जजों को हटाना। और इस तरह से देखें तो सुप्रीम कोर्ट से भी नवाज़ शरीफ को चुनाव लड़ने के मामले में ज़्यादा राहत की उम्मीद नहीं होगी।

मुशर्रफ ने जब नवाज़ शरीफ का तख़्ता पलट मुल्क की बागडोर अपने हाथ में ली तो उन्होने नवाज़ शरीफ को क़ैद की बजाय निर्वासित कर दिया। इन शर्तों के साथ कि वो दस साल तक देश वापस नहीं लौटेंगे और चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें। अमेरिका के दबाव में बेनज़ीर की वापसी के बाद सऊदी अरब ने भी मुशर्रफ पर दबाव डाला और इस तरह से नवाज़ शरीफ की वापसी तक़रीबन आठ साल बाद संभव हो पायी। लेकिन चुनाव लड़ने का मामला कानूनी दांव पेंच में फंसा हुआ है। नई सरकार मुशर्रफ को हटाने का अपना वादा अभी तक पूरा नहीं कर पायी है और इस मुद्दे पर सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे दिला कर नवाज़ शरीफ ने दूरगामी राजनीतिक चाल चली है। इससे वो उन लोगों को अपने साथ कर पाने में क़ामयाब रहे हैं जो पहले इसी मुद्दे पर पीपीपी के साथ थे। कहने के मतलब कि उनका वोट बैंक दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है। हालांकि नवाज़ शरीफ को लगता है कि अभी दूबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो पीपीपी सरकार को बाहर से समर्थन जारी रखे हुए हैं। जिस दिन उन्होने समर्थन खींचा सरकार की बुनियाद हिल जाएगी। ऐसी सूरत में नवाज़ शरीफ अपनी पार्टी पीएमएल एन को बड़ी क़ामयाबी की ओर ले तो जा सकते हैं लेकिन संसद के भीतर खुद उसका नेतृत्व नहीं कर सकते। कहते हैं कि दुश्मनी के हथियार दोस्ती के समय ही इकठ्ठे किए जाते हैं। आज के दोस्त नवाज़ कल को अगर चुनाव मैदान में पीपीपी को ललकारते हैं... और जो कि आज न कल होगा ही... तो ऐसे में पीपीपी के पास बेहतर विकल्प यही है कि वो नवाज़ शरीफ की चुनावी उम्मीदवारी की संभावना को लटकता छोड़ कर ही रखे। मुशर्रफ के साथ उनका बने उनके ‘वर्किंग रिलेशन’ को भी यही मुफ़ीद बैठता है।

इधर एक दिलचस्प बात ये हुई है कि पहली बार अमेरिका की तरफ से ये कहा गया है कि मुशर्रफ ने अपने आठ साल के शासनकाल में ‘कई ग़लतियां’ की हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कॉडालिज़ा राइस ने एक इंटरव्यू में ये बात कहते हुए हालांकि ये जोड़ दिया कि आतंक के खिलाफ की लड़ाई में मुशर्रफ बेहतरीन सहयोगी रहे हैं। लिहाज़ा मुशर्रफ की ग़लतियों वाले रायस के बयान से मुशर्रफ की कमज़ोर पड़ती हालत से का अंदाज़ा न भी लगाएं तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि अमेरिकी भी पाकिस्तान में करवट लेती राजनीतिक व्यवस्था को देख और महसूस कर रहा है। वो झटके से मुशर्रफ का हाथ नहीं छोड़ सकता लेकिन अमेरिका की पाकिस्तान में दिलचस्पी मुशर्रफ के अस्तित्व से कहीं आगे तक जाती है। एक तरफ लोकतंत्र का हिमायती बन वो दूसरी तरफ पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार को एक तानाशाह के साथ चलते रहने के लिए लंबे समय तक दबाव नहीं डाल सकता। हो सकता है कि वो मुशर्रफ का साथ तभी तक दे जब तक वे नई सरकार से पाकिस्तान में अपनी मनमाफिक सुविधाएं और पैठ हासिल न कर ले। घरेलु राजनीति का दबाव अगर ज़रदारी को बाध्य करता है कि वो मुशर्रफ को हटाएं... तो वो मुशर्रफ को समर्थन वाली अमेरिकी मंशा के खिलाफ खड़ा होने की बजाय अमेरिका के साथ मुशर्रफ के खिलाफ खड़ा होना पसंद करेंगे। लेकिन यहां भी पेंच नवाज़ शरीफ को लेकर है जो अमेरिका के कहे मुताबिक चलने को कभी तैयार नहीं होगें। कुल मिला कर पाकिस्तान की उलझी राजनीति का सिरा सुलझाने, मुश्किलों से पार पाने और असल जम्हूरियत लाने में नवाज़ शरीफ को अभी लंबा वक्त लगेगा.

Wednesday, June 25, 2008

क्या श्रीनगर में लड़कियां नहीं रहतीं!

अगर आप फेसबुक नामके सामाजिक बंधन या संगठन(?) को जानते हैं तो आप ये भी जानते होगें कि किसी के होमटाऊन के रुप में अंकित शहर पर क्लिक कर आप उस शहर के उन तमाम लोगों तक पहुंच सकते हैं जिन्होंने अपने फेसबुक प्रोफ़ाईल में ईमानदारी से इस शहर का नाम लिखा हो। फेसबुक पर बने अपने एक ऐसे ही मेरे मित्र के होमटाऊन के ज़रिए जब मैंने उन बाक़ी शौकिनों सामाजिक प्राणियों को जानने की कोशिश की, जो इस ख़ूबसूरत शहर को अपना होमटाऊन कहते हैं, तो तक़रीबन 500 लोगों की सूची मेरे सामने आयी। इनमें रॉयटर्स के अनुभवी कैमरामैन फयाज़ काबली भी मिले... जिनके साथ मैंने 2000-02 में ख़ूब काम किया और जिनके साथ वो ख़ौफनाक यादें भी जुड़ीं हैं जब आदूश होटेल की चहारदीवारी के साथ किए गए आतंकी विस्फोट में एच टी के छायाकार प्रदीप भाटिया जी की जान गई (फ़याज़ इसके चश्मदीदों में एक रहे और ख़ुशकिस्मती से ज़िंदा भी क्योंकि वो भी वहीं फोटोग्राफी कर रहे थे).... और आसिम उमर जैसे नौजवान भी जिनको मैं बिल्कुल ही नहीं जानता....

लेकिन हैरत की बात है कि यहां किसी भी ऐसी लड़की का प्रोफ़ाईल नहीं मिला जो अपना होमटाऊन श्रीनगर बताती हो! ऐसा कैसे हो सकता है! क्या इस ख़ूबसूरत शहर में रहने वाली कोई भी ऐसी नहीं है जिसे फेसबुक के बारे में पता ना हो... या उन में से किसी ने अपना प्रोफ़ाइल यहां ना बनाया हो... ! दोनों ही बातें मुश्किल लगती हैं। इंटरनेट कैफे की भरमार वाले इस शहर में ज़रूर दो चार पांच तो ऐसी होगीं ही जिन्हें इंटरनेट सामाजिकता के ऐसे बंधन में अपने बांधने की इच्छा होगी। मेरा होमटाऊन मधुबनी है जो 'बिहार में भी बहुत पिछड़ा' माना जाता है। यहां के क़रीब तीस प्रोफाइल में आपको पांच-सात लड़कियां तो मिल ही जाएंगी... लेकिन श्रीनगर में नहीं!

अब या तो ये इस शहर (या इस राज्य) के माहौल की मजबूरी है... या फिर आतंकी ख़तरों से जूझ रहे इस शहर से अपनी पहचान जोड़े बिना बाक़ी दुनिया से जुड़ने की ललक... ऐसी कोई भी नहीं मिलेगी आपको जो फेसबुक पर स्वीकार रही हो कि हां वो श्रीनगर से हैं। यहां की दर्जनों ऐसी लड़कियां होगीं जो फेसबुक पर होंगी। लेकिन होमटाऊन के रुप में श्रीनगर शहर नहीं डालने के पीछे ज़रूर 'दुखतराने मिल्लत' जैसी कट्टरपंथी संगठनों का डर होगा... जिसकी नज़र में लड़कियों/महिलाओं का ब्यूटी पार्लर तक जाना गुनाह है... या फिर लश्करे जब्बार जैसे किसी आतंकी संगठन का... जिन्होने गोनी खान मार्केट के एक पार्लर में बुर्का नहीं पहनने वाली और एक महिला की टांग में गोली मार दी थी...! पर इतना तो तय है फेसबुक पर श्रीनगर की ख़वातीनों के नहीं होने का मतलब ये नहीं कि श्रीनगर में लड़कियां होती ही नहीं!

Wednesday, June 11, 2008

सॉरी, साईं बाबा की बाइट मिस हो गई!

साईं बाबा बोल रहे थे। साक्षात। भक्त जनों को संबोधित कर रहे थे। वो दीवार से टिक कर खड़े थे। उनके दो सहयोगी उनके साथ थे। इस फ्रेम में थ्री-शॉट था। सिर्फ बाबा बोल रहे थे। बाक़ी दोनों खामोश थे। शरीर में कोई हरकत भी नहीं हो रही थी। साईं बाबा के भी सिर्फ होठ हिल रहे थे। बाक़ी पूरा फ्रेम फिक्स था। किसी चैनल का गन-माइक भी नज़र नहीं आ रहा था। ना ही बाबा के कुरते से झांकता लेपल माइक ही। पर बाबा बोल रहे थे। शायद कैमरा माइक पर। एक बाइट टाइट-फ्रेम में भी थी। अस्सी साल पहले तब टेक्नोलॉजी इतनी विकसित नहीं हुई थी। ना ही टीवी पत्रकारिता इस मुकाम पर पहुंची थी। तब बाइट लेने वाले को शायद साई बाबा की बाइट की अहमियत भी नहीं पता होगी। कोई स्ट्रिंगर टाईप रहा होगा। बाबा मिल गए तो ले लिया होगा। बिना किसी चैनल आइडी के। किस मीडिया हाउस के के काम आ जाए पता नहीं। सो आरकाइब कर लिया होगा।


अस्सी साल बाद ये टेप बाहर आया। इन अस्सी सालों में दुनिया ने बहुत तरक्की की। ख़ास तौर पर पिछले कुछ सालों में इंडिया में टीवी ने पत्रकारिता में कई झंडे गाड़े हैं। ख़बर को नीरस और उबाऊ होने से बचाया है। जितनी तरक्की प्रसारण तकनीकी में हुई है उससे कहीं ज़्यादा इन तकनीकी वरदानों को निर्देशित करने वालों का मानसिक परिष्करण हुआ है। यही वजह है कि अस्सी साल से धूल खा रहा साईं बाबा की बाइट वाला टेप बाहर निकल पाया। इंवेस्टिगेटिव कैटेगरी की पत्रकारिता भी इसे कह सकते हैं। इसी खोजबीन के बूते भक्त बाबा को बोलते हुए देख-सुन पाए। ये अलग बात है कि पहले इसे दिखा कर श्रद्धा और सबुरी से भरे दर्शकों का ध्यान खींचा। फिर थोड़ी देर बाद में इस टेप को ग़लत बताने लगे। अच्छा हुआ जल्द पता चल गया। नहीं तो कई दूसरे चैनलों के रिपोर्टरों की तो बस वाट लगने वाली थी। उनसे पूछा जाता कि तुम्हारे पुरखे क्या कर रहे थे जब बाबा बाईट दे रहे थे। वो वहां क्यों नहीं थे। क्या उनका पुश्तैनी पेशा कुछ और था... तो तुम इस पेशे में क्या कर रहे हो। जाओ। जहां से भी बाबा की बाईट लेकर आओ। नहीं तो दफा हो जाओ।



हालांकि ट्रांसफर टेक्नीलॉजी ने तेज़ी से अपनी जगह बना ली है। मेरे जैसे कई रिपोर्टर अब कई बार एक टेप लेकर शूट पर निकल पड़ते हैं। कैमरे की चिंता नहीं होती। अपने श्रमजीवी पत्रकार मित्र मंडली में कम से कम दो तो ऐसे मिल ही जाते हैं कि एक के कैमरे में टेप डाल दूसरे से ट्रांसफर ले लें। झंझट तब होता है जब किसी के सिंगल माइक पर बाइट हो। लेकिन बाबा की बाइट में ये समस्या भी नहीं थी। कोई आईडी थी ही नहीं। सो किसी को भी आराम से ट्रांसफर मिल जाता। वैसे भी ये आस्था को बेचने का मामला था। सो कोई एक्सक्लुसिव होने का भ्रम नहीं दे सकता था। जो जिस हिसाब से चलाना चाहते... चला सकते थे। चलाया भी। इस ख़बर से जैसे खेल सकते थे... खेला भी। ये तो अच्छा हुआ कि जिस मार्फिंग को उच्च पदस्थ पत्रकारों की पारखी नज़र नहीं पकड़ पायी उसे कंम्प्यूटर तकनीकी के कुछ जानकारों ने पकड़ा। फिर संपादकीय फैसले और एंकरों के प्रभावशाली हावभावों के ज़रिए आस्थावान दर्शको को बताया कि वो इस चक्कर में ना पड़ें। ना ही अपनी आस्था पर कोई चोट लगा महसूस करें। ये कोई अस्सी साल पहले रिकार्ड की गई साई बाबा की बाइट नहीं। कम्प्यूटर की कलाकारी का कमाल है। मिल गया तो दिखा दिया। जब रामायण काल में पुष्पक विमान सर्विस में था... तो 1920 के दशक में कैमरा-बाइट का होना इतनी अजीब बात भी तो नहीं!

Tuesday, June 10, 2008

ज़रदारी को दिखने लगी है ज़मीन

नवाज़ शरीफ के एक कदम ने आसिफ अली ज़रदारी को ज़मीन पर ला खड़ा किया है। अब वे राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ के खिलाफ महाभियोग लाने की बात करने लगे हैं। इसके लिए उन्होने अपनी पार्टी के नेताओं को तैयार रहने को कहा है। महाभियोग के मसौदे को अंतिम रुप दिया जा रहा है। ये वही ज़रदारी हैं जो राष्ट्रपति के साथ वर्किंग रिलेशन को बुरा नहीं मानते थे। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह अध्यक्ष ज़रदारी का इशारा पा कर ही प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने मुशर्रफ के साथ कामकाज़ी रिश्ते का समझौता किया था। आखिर पार्टी के स्टैंड में इस बदलाव की वजह साफ है। नवाज़ शरीफ का सरकार से अलग होना और अवाम के बीच घूम घूम कर अपनी बात कहना।

पीपीपी अब तक मुशर्रफ के साथ नहीं तो उसके पीछे भी पड़ी नज़र नहीं आ रही थी। चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर चुनकर आने के बाद पार्टी नेताओं को अपनी सरकार बनाने और उसे बचाए रखने की चिंता थी। ऐसे में आठ साल से मज़बूती से टिके मुशर्रफ से वो झगड़ा मोल नहीं लेना चाहती थी। पीएमएल एन नेता नवाज़ शरीफ़ जब जब जनता से किए गए वायदे को निभाने और मुशर्रफ तो तत्काल हटाने की मांग करते है तो ज़रदारी उन्हें व्यवहारिक होने की सलाह देते रहे हैं। ज़रदारी के दिमाग में सरकार जाने का डर तो था ही... मुशर्रफ से साथ अमेरिका का खड़ा रहना भी मुशर्रफ को हटाने की राह में बाधा रहा है। यहां तक कि आपातकाल के समय बर्खास्त किए गए जजों की बहाली भी अब तक लटकी हुई है। इन हालातों के बीच जब नवाज़ शरीफ़ ने सरकार से अपने सभी नौ मंत्रियों के इस्तीफे दिलवा दिए तो पीपीपी को पहला झटका लगा। लेकिन वो उससे भी संभलने और वैकल्पिक रास्ते तलाशने में लगी रही है। लेकिन इस बीच नवाज़ शरीफ ने जिस तरह की राजनीति शुरु कर दी है उससे ज़रदारी के कान खड़े हो गए है।


सरकार से अलग होने के बाद से नवाज़ शरीफ अवाम को ये संदेश देने में क़ामयाब साबित हो रहे कि जिन मुद्दों को लेकर आपने इस सरकार को चुना उन मुद्दों को सरकार पीछे छोड़ चुकी है। आपातकाल के पहले की अदालत की बहाली और मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से हटाना... ये दो मुद्दे पाकिस्तान की अवाम के दिल से जुड़े हैं। मुशर्रफ की आठ साल की तानाशाही में पाकिस्तान की अवाम की जिंदगी से लेकर अर्थव्यवस्था तक... सब कुछ दांव पर लग गया और उसी का नतीज़ा रहा कि अवाम ने सत्ताधारी पार्टी पीएमएल क्यू को भारी शिकस्त दी। पाकिस्तान की मीडिया और वकीलों के आंदोलन ने लोकतांत्रिक सरकार लाने में अहम भूमिका निभाई। और ये भी अब छला हुआ महसूस कर रहे हैं। तो जो ज़मीन पीपीपी ने खाली छोड़ दी है नवाज़ शरीफ़ उसे तेज़ी से भर रहे हैं। जो पहले पीपीपी के साथ थे वो सब अब नवाज़ शरीफ़ के साथ हो लिए हैं या हो रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री और कद्दावर नेता बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर भी अब शांत हो चुकी है। लोग सरकार को उसके कामकाज़ के आधार पर तौलने की तैयारी में हैं। जो गुस्सा मुशर्रफ और उसकी स्टैब्लिशमेंट यानि व्यवस्था के खिलाफ था वो अब इस गठबंधन सरकार के खिलाफ होता जा रहा है। नवाज़ शरीफ ने सरकार अलग होकर गुस्से के केन्द्र में पीपीपी और ज़रदारी को ला खड़ा किया है। ये बात ज़रदारी को समझ आने लगी है इसलिए मुशर्रफ के खिलाफ वो अपनी ज़बान फिर से तल्ख करने लगे हैं। व्यापारी से राजनेता बने ज़रदारी को अवाम की ताक़त का एहसास है। तानाशाही के तमाम हथकंडो के बाद भी जो अवाम मुशर्रफ की पार्टी के खिलाफ वोट कर सकती है वो ज़रदारी के खिलाफ भी।


पाकिस्तान में पीपीपी और पीएमएल एन, ये दो ही ऐसी राष्ट्रीय पार्टी हैं जिनका आधार पूरे देश में है। दोनो एक दूसरे की घोर प्रतिद्वंद्वी रही हैं। ये मुशर्रफ की तानाशाही से निकलने की मज़बूरी थी कि ये एक साथ आए। लेकिन देश की दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी लंबे समय तक साथ नहीं चल सकती। इससे एक का वजूद दूसरे में समाने का ख़तरा रहेगा और सैनिक तानाशाही से निकल मुल्क एक अलग राजनीतिक दलदल में फंस सकता है। लोकतंत्र के हित और उसकी मज़बूती के लिए ज़रुरी है कि दो ताकतवर राजनीतिक पार्टियों के बीच ‘लोकतांत्रिक लडाई’ होती रहे। कहने का मतलब ये कि इन दोनों दलों का आज न कल चुनाव में भिड़ना ही होगा। मुशर्रफ को न हटा पाने की मज़बूरी ने पीपीपी के जनाधार को कमज़ोर कर रही है इसमें कोई शक नहीं। नवाज़ शरीफ को पता है कि अभी चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो एक कदम चल कर अपनी तैयारियों में जुटे हुए हैं। अब चुनाव के दो सूरते हाल नज़र आ रहे हैं। या तो ज़रदारी मुशर्रफ को हटाने का फैसला कर अपना चेहरा बचाने की कोशिश करें। ऐसे में यदि मुशर्रफ इस सरकार को बर्खास्त करने की हिमाकत भी करते हैं तो दूबारा चुनाव की हालत में पीपीपी अपनी शहादत वाली छवि पेश कर सकती है। या फिर ज़रदारी नवाज़ शरीफ़ के सरकार से पूरी तरह समर्थन वापस ले लेने तक का इंतज़ार करें। लेकिन उसके बाद के चुनाव में पीपीपी को अवाम की तरफ से कुछ नहीं मिलने वाला। हां, तब मुशर्रफ, अमेरिका और ज़रदारी की तिकड़ी कोई नया खेल रचा पाकिस्तान में काबिज़ रहने की कोशिश कर सकते हैं। अब फैसला ज़रदारी के हाथ में है।
(12 जून के अमर उजाला में प्रकाशित)

Sunday, June 1, 2008

'हक़' की दुहाई देने वालों ने ही आखिरी हक़ छीना है

नीरज गुप्ता आईबीएन 7 से जुड़े हैं। वे अपराध से लेकर राजनीति तक... सभी विषयों पर धारदार रिपोर्टिंग करते हैं। अभी अभी वे गुर्जर आंदोलन कवर कर लौटे हैं। आरक्षण की ज़िद में गुर्जरों की एक अलग ही तस्वीर वो हमें दिखा रहे हैं...

राजस्थान में आरक्षण की आग लगी है.. गुर्जर गरज रहे हैं.. सरकार बेबस दिख रही है.. सरकार गलत है या गुर्जर- इस सवाल को लेकर अखबारों और खबरिया चैनलों पर लंबी बहस हो रही है.. लेख लिखे जा रहे हैं.. और तो और सड़क पर पान-सिगरेट के लिए निकले लोग भी वक्त बिताने के लिए इस मुद्दे पर ' निठल्ला चिंतन ' करते दिख जाते हैं.. लिहाज़ा यहां मैं इस बड़े पचड़े में नहीं पडूंगा..

गुर्जर आंदोलन की हफ्ते भर की कवरेज के दौरान मै बयाना और सिकंदरा, दोनों जगह गया.. गुर्जर आंदोलन के इन दोनों अहम पड़ावों पर रखे हैं 18 शव.. 12 बयाना में और 6 सिंकंदरा में.. पुलिस और गुर्जरों के बीच हुई झड़प में मारे गए थे वो लोग.. ज़िद है कि जब तक आरक्षण नहीं मिलेगा तब तक शवों को दाग नहीं मिलेगा.. मक्खियां भिनभनाती हैं उन ताबूतों पर.. अगरबत्तियों की खुशबू भी उन मक्खियों को नहीं हटा पाती.. आखिर वो ही भला क्यों हटें.. सरकार भी तो गुर्जरों को नहीं हटा पा रही.. भाषण.. नारेबाज़ी.. बहसबाज़ी और गुस्से के बीच वो ताबूत बेबस से पड़े नज़र आते हैं.. जैसे किसी ने बंधक बना रखा हो.. हिंदू धर्म के मुताबिक जब तक शव को दाग ना मिले, आत्मा को शाति नहीं मिलती.. लेकिन सरकार गुर्जरों को शांत नहीं कर पा रही और गुर्जर मरने वालों की आत्मा को..

एक ही मंज़र है वहां.. तंबू के नीचे ताबूत.. ताबूत में शव..शवों पर भिनभिनाती मक्खियां.. और उन्हीं मक्खियों के साथ आसपास जमा गुर्जर.. 24 घंटे की पेहरेदारी.. बस रोज़मर्रा के कामों के लिए घर जाना और फिर लौट आना..

वहां कुछ नहीं बदलता.. बदलती हैं तो बस शवों के इर्द-गिर्द रखी बर्फ की सिल्लियां.. वो रोज़ पिघलती हैं.. लेकिन पता नहीं कि सरकार और गुर्जरों के बीच जमी बर्फ आखिर कब पिघलेगी, और शवों को अंतिम संस्कार नसीब होगा..ये अजीब विडंबना है कि कामयाब हो या नाकाम, हर आंदोलन कुर्बानी मांगता है.. गुर्जर आंदोलन को भी अपने भविष्य का कोई पता नहीं.. लेकिन इतना साफ है कि कामयाब हो भी गए तो वो कामयाबी मौत के मातम से बड़ी नहीं होगी...
- नीरज गुप्ता