बिहार में बाढ़ से तबाही पर जितना लिखा-दिखाया जाए कम है। लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं। सैंकड़ो बह गए हैं। लाखों फंसे हैं। दाने दाने को मोहताज़ हैं। सही में राहत पहुंचाने की बजाए राज्य और केन्द्र की राजनीति जारी है। हालात पर जितना रोया जाए, बयानबाज़ी को जितना दुत्कारा जाए, व्यवस्था के कान में जूं नहीं रेंगती। सरकारी मदद से दूर लोगों का आसरा अब सिर्फ ऊपर वाले का है। इसे तहसीन मुनव्वर चार पंक्तियों में कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं-
कई दिन से हैं भूखे लोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
ये जीवन बन गया है रोग
अब तो ख़ैर हो मौला,
नज़र जिस सिम्ट भी उठती है
पानी है तबाही है
हर एक घर में है फैला सोग
अब तो ख़ैर हो मौला!
Saturday, August 30, 2008
Tuesday, August 26, 2008
जम्हूरियत की मज़बूती या सिर्फ सत्ता की लड़ाई?
परवेज़ मुशर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं बीता कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़ गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां पहले भी भिड़तीं रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है। लेकिन अवाम की ज़रुरत और उसके सपनों से दूर राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरियां होती हैं। यही मजबूरी नवाज़ के पीएमएल एन और ज़रदारी की पीपीपी की भी है। दोनों एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां रहीं हैं और एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ कर सत्ता तक पहुंचती रही हैं। मुशर्रफ़ नाम की मजबूरी ने दोनों को एक किया। अकेले पार पाने में नाकाम रही इन पार्टियों ने चुनाव के बाद मिल कर सरकार बनायी। लेकिन गठबंधन सरकार बनाने के बाद भी दोनों ने अपने अपने एजेंडे पर चलने की कोशिश जारी रखा। नवाज़ को मुशर्रफ़ से अपना बदला लेना था तो ज़रदारी को पाकिस्तान की राजनीति में ख़ुद को सेट करना। अपने जनाधार के बूते नवाज़ शरीफ मुशर्रफ़ को एक पल भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे तो एनआरओ (नेशनल रिकांसिलिएशन आर्डर) के ज़रिए वापस लौटे और भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त हुए ज़रदारी मुशर्रफ़ के ख़िलाफ एक हद से बाहर जाने को तैयार नहीं थे। मुशर्रफ़ को बेनज़ीर की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाले ज़रदारी अमेरिकी दबाव में ही सही... मुशर्रफ़ को साथ लेकर चलने में ही अपनी भलाई समझने लगे थे। लेकिन उन्होने जब देखा कि आम अवाम, वक्कला (वकीलों) और अदलिया (अदालत और जजों) और सिविल सोसाइटी में हवा उनके खिलाफ बनने लगी है तो वो महाभियोग को राज़ी हुए।
ख़ैर। दबाव की रणनीति के ज़रिए और अमेरिका और सेना के मुशर्रफ़ के पीछे से हाथ खींच लेने की वजह से महाभियोग के पहले ही इस सैनिक तानाशाह से पार पा लिया गया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया। सैनिक तानाशाह के चले जाने के बाद लोकतांत्रिक ताक़तों के एकजुट रहने की किसी वजह के बचा नहीं रहने का खालीपन। अब किससे लड़ें और किसके ख़िलाफ एक रहें। साझा दुश्मन से निज़ात और साझा मंज़िल पा लेने के बाद ही वर्चस्व की आपसी लड़ाई शुरु होती है। आने वाले समय में पाकिस्तान का मुस्तकबिल कौन तय करेगा। कौन उनकी ज़रुरतों को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है और कौन उन्हें बेहतर शासन दे सकता है। अपेक्षाकृत उदारवादी और अमेरिका जैसे देशों की तरफ झुकाव रखने वाली पीपीपी के मुखिया आसिफ़ अली ज़रदारी या फिर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले मियां नवाज़ शरीफ़। चुनाव दोनों में से एक का ही होना है। और वो उसका होगा जो पाकिस्तानी अवाम के ज़्यादा क़रीब होने का संदेश देगा। जो उनकी माली हालत बेशक ना ठीक कर सके... सस्ता आटा चावल दाल बेशक मुहैय्या न करा सके... लेकिन उसके उठाए मुद्दे में साथ खड़े होने का भ्रम दे सके।
राजनीति के पुराने खिलाड़ी नवाज़ शरीफ़ को ये बेहतर पता है कि मौजूदा समय में सरकार में रहने से इसकी नाक़ाबिलियत का ठीकरा उनके सिर भी फूटता। मुद्रा स्फीति और बढ़ती महंगाई से पार पाना कोई आसान काम नहीं और ना ही कबाईली इलाक़ो में सर उठ चुके आतंकवादियों पर काबू पाना। तो डूब रहे जहाज़ पर खड़े हो कर डूबने से बेहतर है किनारे बैठ कर बचाओ-बचाओ चिल्लाना। मतलब अगर नवाज़ सरकार में रहते हुए सरकार को अपने एजेंडे पर चलते हुए न दिखा सकें तो विपक्ष में बैठ कर ख़ुद को सरकार से लड़ते हुए तो दिखा ही सकते हैं। इससे वो अवाम में पीपीपी को एक्सोपोज़ भी कर पाएंगे कि देखो जिन वायदों के साथ वो सत्ता में पहुंची उसे वो भूल चुकी है लिहाज़ा अब बारी उनकी है।
दोनों दलों के इस तरह से अलग होने को पाकिस्तान ही नई नवेली जम्हूरियत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा। इससे लोकतंत्र विरोधी उन ताक़तों को मज़बूती मिलने की आशंका बढ़ गई है जो मौक़े की तलाश में रहती हैं। हालांकि पाकिस्तान की सेना ने राजनीति से ख़ुद को दूर रखने का फैसला किया है और अमेरिका भी पाकिस्तान में लोकतंत्र के अपने प्रयोग को इतनी जल्दी ख़त्म नहीं करना चाहेगा। फिर भी सरकार अगर कमज़ोर और अल्पमत की हो तो आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इस सब बातों के बीच नवाज़ और ज़रदारी के अलग होने का एक सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। मुशर्रफ़ के बाद उनकी समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है और उसके ज़्यादातर सदस्य अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। ज़ाहिर है कि संसद में कोई मज़बूत विपक्ष बचा नहीं रहा जो कि मज़बूत लोकतंत्र के लिए ज़रुरी है। ऐसे में पाकिस्तान की दो सबसे बड़ी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टी को देर सबेर एक दूसरे के खिलाफ़ आना ही था। सो वे आ आ गए हैं। ये अलग बात है कि समय से पहले आ गए हैं। लेकिन नवाज़ शरीफ जानते हैं कि अभी पाकिस्तान में दुबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो विपक्ष में बैठने की बात करके भी पीपीपी की सरकार को गिराने की बात फिलहाल नहीं कर रहे। हालांकि उनसे बतौर विपक्षी पार्टी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा करना बेमानी होगी, लेकिन वो चाहेंगे कि सरकार तब तक चलती रहे जब तक वो उसे अवाम में लताड़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते रहें। अभी उनकी पार्टी का जनाधार सिर्फ पंजाब में है। लेकिन जिस दिन पीपीपी की तरह पीएमएल एन का भी जनाधार बाक़ी के तीनों राज्यों में भी होता दिखेगा, वो चुनाव में जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे। और ऐसा करते हुए वो सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते नहीं बल्कि जम्हूरियत को मज़बूत करते भी दिखेंगें।
ख़ैर। दबाव की रणनीति के ज़रिए और अमेरिका और सेना के मुशर्रफ़ के पीछे से हाथ खींच लेने की वजह से महाभियोग के पहले ही इस सैनिक तानाशाह से पार पा लिया गया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया। सैनिक तानाशाह के चले जाने के बाद लोकतांत्रिक ताक़तों के एकजुट रहने की किसी वजह के बचा नहीं रहने का खालीपन। अब किससे लड़ें और किसके ख़िलाफ एक रहें। साझा दुश्मन से निज़ात और साझा मंज़िल पा लेने के बाद ही वर्चस्व की आपसी लड़ाई शुरु होती है। आने वाले समय में पाकिस्तान का मुस्तकबिल कौन तय करेगा। कौन उनकी ज़रुरतों को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है और कौन उन्हें बेहतर शासन दे सकता है। अपेक्षाकृत उदारवादी और अमेरिका जैसे देशों की तरफ झुकाव रखने वाली पीपीपी के मुखिया आसिफ़ अली ज़रदारी या फिर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले मियां नवाज़ शरीफ़। चुनाव दोनों में से एक का ही होना है। और वो उसका होगा जो पाकिस्तानी अवाम के ज़्यादा क़रीब होने का संदेश देगा। जो उनकी माली हालत बेशक ना ठीक कर सके... सस्ता आटा चावल दाल बेशक मुहैय्या न करा सके... लेकिन उसके उठाए मुद्दे में साथ खड़े होने का भ्रम दे सके।
राजनीति के पुराने खिलाड़ी नवाज़ शरीफ़ को ये बेहतर पता है कि मौजूदा समय में सरकार में रहने से इसकी नाक़ाबिलियत का ठीकरा उनके सिर भी फूटता। मुद्रा स्फीति और बढ़ती महंगाई से पार पाना कोई आसान काम नहीं और ना ही कबाईली इलाक़ो में सर उठ चुके आतंकवादियों पर काबू पाना। तो डूब रहे जहाज़ पर खड़े हो कर डूबने से बेहतर है किनारे बैठ कर बचाओ-बचाओ चिल्लाना। मतलब अगर नवाज़ सरकार में रहते हुए सरकार को अपने एजेंडे पर चलते हुए न दिखा सकें तो विपक्ष में बैठ कर ख़ुद को सरकार से लड़ते हुए तो दिखा ही सकते हैं। इससे वो अवाम में पीपीपी को एक्सोपोज़ भी कर पाएंगे कि देखो जिन वायदों के साथ वो सत्ता में पहुंची उसे वो भूल चुकी है लिहाज़ा अब बारी उनकी है।
मामला चीफ जस्टिस इफ्तिख़ार मोहम्मद चौधरी की बर्खास्तगी और इसके ख़िलाफ वकीलों के आन्दोलन से शुरु हुआ था जो इमरजेंसी के समय और जजों की बर्खास्तगी और वकीलों पर पाबंदी तक गया। इस आंदोलन ने मुशर्रफ़ के खिलाफ अवाम के गुस्से को एक नया आकार और विस्तार दिया। दोनों ही दलों ने इसका फ़ायदा फरवरी के चुनाव में उठाया। पीपीपी सबसे बड़ी तो पीएमएल एन दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी। लेकिन पीपीपी ने इन जजों की बहाली में जितनी देरी की, नवाज़ के लिए राजनीतिक ज़मीन उतनी ही तैयार होती गई। वो वक्कला-अदलिया और प्रेस और सिविल सोसाईटी के जो लोग पहले पीपीपी के साथ थे वो सभी नवाज़ के साथ आते चले गए। इससे ज़रदारी के भीतर राजनीतिक असुरक्षा का भाव और घर करता चला गया। वो जजों तो बहाल कर देते तो इसका सेहरा नवाज़ के सर तो बंधता ही, मुशर्रफ़ के फैसलों को गैरकानूनी ठहराने की स्थिति में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मामले खुलने का भी अंदेशा बढ़ता। इसलिए उन्होने राष्ट्रपति बनने के बाद ही जजों की बहाली की शर्त रख दी। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पीपीपी का होने से नवाज़ की राजनीतिक पकड़ कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए नवाज़ उन्होने राष्ट्रपति पद के लिए ज़रदारी के खिलाफ सईद उल जमा सिद्दीकी को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना दिया है।
दोनों दलों के इस तरह से अलग होने को पाकिस्तान ही नई नवेली जम्हूरियत के लिए अच्छा नहीं माना जा रहा। इससे लोकतंत्र विरोधी उन ताक़तों को मज़बूती मिलने की आशंका बढ़ गई है जो मौक़े की तलाश में रहती हैं। हालांकि पाकिस्तान की सेना ने राजनीति से ख़ुद को दूर रखने का फैसला किया है और अमेरिका भी पाकिस्तान में लोकतंत्र के अपने प्रयोग को इतनी जल्दी ख़त्म नहीं करना चाहेगा। फिर भी सरकार अगर कमज़ोर और अल्पमत की हो तो आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इस सब बातों के बीच नवाज़ और ज़रदारी के अलग होने का एक सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। मुशर्रफ़ के बाद उनकी समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है और उसके ज़्यादातर सदस्य अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। ज़ाहिर है कि संसद में कोई मज़बूत विपक्ष बचा नहीं रहा जो कि मज़बूत लोकतंत्र के लिए ज़रुरी है। ऐसे में पाकिस्तान की दो सबसे बड़ी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टी को देर सबेर एक दूसरे के खिलाफ़ आना ही था। सो वे आ आ गए हैं। ये अलग बात है कि समय से पहले आ गए हैं। लेकिन नवाज़ शरीफ जानते हैं कि अभी पाकिस्तान में दुबारा चुनाव का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए वो विपक्ष में बैठने की बात करके भी पीपीपी की सरकार को गिराने की बात फिलहाल नहीं कर रहे। हालांकि उनसे बतौर विपक्षी पार्टी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा करना बेमानी होगी, लेकिन वो चाहेंगे कि सरकार तब तक चलती रहे जब तक वो उसे अवाम में लताड़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते रहें। अभी उनकी पार्टी का जनाधार सिर्फ पंजाब में है। लेकिन जिस दिन पीपीपी की तरह पीएमएल एन का भी जनाधार बाक़ी के तीनों राज्यों में भी होता दिखेगा, वो चुनाव में जाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे। और ऐसा करते हुए वो सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते नहीं बल्कि जम्हूरियत को मज़बूत करते भी दिखेंगें।
Monday, August 25, 2008
भिड़ गए नवाज़ और ज़रदारी
परवेज़ मुशर्रफ़ को गए अभी हफ़्ता भी नहीं हुआ है कि नवाज़ शरीफ़ और ज़रदारी आपस में भिड़ गए। चुनावी राजनीति में दोनों की पार्टियां भिड़तीं पहले भी रही हैं लेकिन जिस मक़सद से वे एक हुईं थी वो अभी आधा अधूरा ही हासिल हुआ है। ऐसे में ये वक्त उनके लिए कुछ क़दम और साथ चलने का था। नौ साल की सैनिक तानाशाही के बाद पाकिस्तान अभी अभी उसे मुक्त हुआ है। लोकतंत्र की नई कोंपल यहां फूटी है और ये वक्त उसके पलने-बढ़ने और मज़बूत होने का है। लोकतंत्र की हिमायती ताक़तों ने अपना बहुत कुछ खोकर इस कोंपल को पूरे पेड़ में तब्दील होने का सपना पाल रखा है।
...जारी
...जारी
Thursday, August 21, 2008
अब दिखेगी नवाज़ और ज़रदारी की टक्कर
परवेज़ मुशर्रफ़ के इस्तीफे के बाद पाकिस्तान में सियासत ने एक नई करवट ली है। मुशर्रफ़ के जाने को यहां जम्हूरियत की मज़बूती की तरफ एक और बढ़ा क़दम माना जा रहा है। ये बात सही है कि मुशर्रफ़ ने लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ने की कोशिश में सैन्य तख़्ता पलट से लेकर ईमरजेंसी लगाने तक कई काम किए। चीफ जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी जैसे जजों को बर्ख़ास्त किया और अदालतों की आज़ादी को घेरे रखा। पाकिस्तान इलेक्ट्रानिक मीडिया रेगुलेशन एक्ट (पैमरा) और प्रेस एंड पब्लिसिटी रेगुलेशन आर्डिनेंस के ज़रिए मीडिया को भी बांधे रखा। लेकिन मुशर्रफ़ के जाने के साथ ये सारे सवाल बेशक पीछे छूट गए हैं। लेकिन पाकिस्तान की जम्हूरियत की मज़बूती के लिए कुछ और सवाल बचे हुए हैं।
सबसे बड़ा सवाल है कि नए हालात में मियां नवाज़ शरीफ और आसिफ़ अली ज़रदारी कब तक साथ खड़े रह पाएंगे? ये सवाल अचानक उठ नहीं खड़ा है। ये तब भी था जब ये साथ खड़े हुए थे। लेकिन मुशर्रफ़ से लड़ाई की शोर में ये दबा हुआ था। दोनों साथ आए ही थे मुशर्रफ़ को हटाने के लिए। तो जब इनके साझा दुश्मन मुशर्रफ़ सियासी परिदृष्य से हट गए हैं तो ज़ाहिर सी बात है इनके बीच एकता का साझा बहाना भी ख़त्म हो गया है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़, पाकिस्तान की ये दो मुख्य पार्टियां पहले एक दूसरे के खिलाफ लड़ती और संसद तक पहुंचती रही हैं। परवेज़ मुशर्रफ ने इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के सुप्रीम नेताओं से जम कर दुश्मनी की। नतीज़ा दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है की तर्ज़ पर इन दोनों पार्टियों के नेता साथ आने को मज़बूर हुए। यूं तो 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान' की इन दोनों पार्टियों की विचारधारा में कोई मौलिक विभेद मुश्किल है। लेकिन ये तो साफ़ है कि नवाज़ शरीफ राइटविंग पॉलिटिक्स यानि दश्रिणपंथी राजनीतिक में भरोसा करते हैं और अपेक्षाकृत कट्टरवादी चेहरा माने जाते हैं। वे पाकिस्तान में अमेरिकी दख़ल की मुख़ालफत करते रहते हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व में अपेक्षाकृत उदारवादी नीति वाली पार्टी का रहा है। इसका झुकाव हमेशा पश्चिमी देशों, ख़ासतौर से अमेरिका की तरफ रहा है। बेनज़ीर के पार्टी की कमान संभालने वाले आसिफ़ अली ज़रदारी की यूं तो अभी कोई ठोस राजनीतिक छवि नहीं बन पायी है। वे बस बेनज़ीर की विरासत को आगे ले जाने की कोशिश में जुटे हैं और पार्टी को पुरानी नीति से अलग नहीं ले जा सकते। इसके लिए उनकी अपनी मज़बूरियां भी हैं।
यानि राजनीतिक पार्टी के तौर पर पीपीपी और पीएमएल क्यू की विचारधारा में जो अंतर है वो ख़त्म नहीं हो सकता। होना नहीं चाहिए। लेकिन अगर दोनों मुख्य पार्टियां एक साथ सत्ता में बैठी रहेंगी तो मज़बूत विपक्ष की भूमिका कौन निभाएगा? मुशर्रफ़ की वजह से वजूद में आयी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू) मुशर्रफ़ के जाने के साथ ही ख़त्म नहीं तो बहुत कमज़ोर तो पड़ ही गई है। उसके सांसदों के जल्द ही टूट कर अपने पुराने नेता नवाज़ शरीफ के साथ आ जाने की उम्मीद जतायी जा रही है। तो जब कोई मज़बूत विपक्ष नहीं होगा तो मज़बूत जम्हूरियत की बात बेमानी होगी। अगर पीपीपी-पीएमएल (एन) गठबंधन पर नज़र डालें तो इन दोस्ती के दिनों में भी दोनों के बीच सोच और एप्रोट का अंतर साफ दिखाई देता रहा है। इस्लामाबाद से सटे हिल स्टेशन मरी में जारी घोषणापत्र एक तरह से इन दोनों पार्टियों के बीच का या न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) था। हालांकि इसमें सारा ज़ोर मुशर्रफ़ को हटाने और बरख़ास्त जजों की बहाली पर था जो सरकार को समर्थन देने की नवाज़ शरीफ़ की शर्त और नतीज़ा था। फरवरी में चुनाव नतीजे आने के बाद भी सरकार बनने में तक़रीबन एक महीना लग गया तो वो इसलिए कि ज़रदारी नवाज़ की शर्तों को मानने को तैयार नहीं हो पा रहे थे। लेकिन नवाज़ शरीफ की लगातार ज़िद, सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे जैसे क़दम और चुनावी वादा न निभाने के चलते जनता में पीपीपी की लगातार होती फज़ीहत से पैदा हुए दबाव का ही नतीज़ा रहा कि आख़िरकार ज़रदारी को मुशर्रफ़ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा। चौतरफा दबाव की वजह से मुशर्रफ तो निकल लिए लेकिन अब गठबंधन सरकार के सामने पेंच जजों की बहाली को लेकर फंसा हुआ है। नवाज़ ने कई बार समय सीमा तय की है लेकिन बहाली को लेकर फैसला लेने में देरी हो रही है। ज़रदारी को डर है कि अगर बर्ख़ास्त जजों को बहाल किया गया तो उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मुकद्दमें फिर से खुल सकते हैं। नवाज़ शरीफ बेशक उन्हें अपनी तरफ से ऐसा नहीं होने का भरोसा दे रहे हों लेकिन ज़रदारी का डर बेवजह नहीं है।
बेशक नवाज़ ने मुशर्रफ के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ने की बात फिलहाल मान ली हो। लेकिन मुशर्रफ़ का दिया जो दर्द नवाज़ ने झेला और अदालत और वकीलों ने जो परेशानी उठायी है उसको देखते हुए ये अचरज़ की बात नहीं कि मुशर्रफ़ के खिलाफ़ देर सबेर कानूनी कार्रवाई शुरु की जाए। पुरानी अदालत बहाल होने की स्थिति में इसमें तेज़ी आ सकती है। मुशर्रफ के जाने के पुराने फैसले असंवैधानिक करार दिए जा सकते हैं। ऐसे में मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच हुआ नेशनल रिकांसिलिएशन एलायंस की जद में आ सकता है। मुशर्रफ के जिस नेशनल रिकांसिलेएशन आर्डर के ज़रिए ज़रदारी पर से भ्रष्टाचार के मामले हटाए गए उसे रद्द किया जा सकता है। ऐसे में ज़रदारी फिर से राजनीतिक तौर पर हाशिए पर धकेले जा सकते हैं। मुशर्रफ क हटाने में हुई देरी के चलते वकीलों ने ज़रदारी के खिलाफ जो मोर्चा खोल दिया उससे भी ज़रदारी सहमे हुए हैं। एतेज़ाज़ एहसन जैसे वकील नेता का उभरना भी ज़रदारी को भारी पड़ सकता है। दूसरी तरफ, नए हालात में ज़रदारी को कमज़ोर करने वाली जितनी भी बातें होगीं वो सब नवाज़ शरीफ को सत्ता के क़रीब ले जाने वाली साबित हो सकती हैं। मुशर्रफ़ के हाथों बहाल हुए मौजूदा जजों ने नवाज़ शरीफ के चुनाव लड़ने की पात्रता पर रोक लगा रखी है। पुराने जज आएंगे तो नवाज़ से ये पाबंदी हटनी तय है। नवाज़ का चुन कर संसद में आने का मतलब है ज़रदारी की तरकश से उस तीर का निकल जाना जिसके बूते वो बाद की राजनीति में नवाज़ को दबा कर रखने की कोशिश कर सकते हैं। राजनीतिक में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता ये तो धुर विरोधी रही पार्टियां पीपीपी और पीएमएल (एन) का मिल कर बनाने के फैसले से ही साफ हो गया। लेकिन इसी राजनीति में कोई स्थायी दोस्त भी नहीं होता ये ज़ाहिर होना बाक़ी है। इन दोनों पार्टियों के लिए ये स्वभाविक भी है क्योंकि ये पहले से एक दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं। आगे भी लड़ेगें। बात सिर्फ समय की है।
नवाज़ शरीफ अभी तुरंत चुनाव नहीं चाहेंगे क्योंकि इससे उनपर अपने स्वार्थ के लिए सरकार गिराने का आरोप लग सकता है और पाकिस्तान की सियासत में अभी जो कुछ भी ठीक होता नज़र आ रहा है वो फिर से ग़लत रास्ता पकड़ सकता है। नवाज़ को ये भी पता है कि फरवरी के चुनाव में उनकी पार्टी ने सिर्फ पंजाब प्रांत में उम्दा प्रदर्शन किया जबकि पीपीपी की पकड़ बाक़ी के तीन राज्यों सिंध, बलचिस्तान और एनडब्ल्यूएफपी में भी है। इसलिए जब तक नवाज़ पूरे पाकिस्तान में अपने लिए आधार नहीं बना लेते तब तक वो चुनाव नहीं चाहेंगे। लेकिन आवाम के सामने वो ज़रदारी को कमतर साबित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे। बर्ख़ास्त जजों की बहाली की ज़िद के ज़रिए वो सिविल सोसायटी और वकीलों के चहेते तो बन ही गए हैं... आने वाले दिनों में गठबंधन सरकार के होने वाले फैसलों में भी अपनी चला कर वो वोटबैंक पुख़्ता करने की कोशिश में जुटे रहेंगे। यानि दोस्ती के दिनों में दुश्मनी के हथियार जुटाते और संभालते रहेंगे।
BMW का मतलब 'बिको मत वकीलसाहब'
बीएमडब्ल्यू कार दुर्घटना मुकद्दमें में एनडीटीवी के स्टिंग ऑपरेशन पर दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आ गया है। मामले में फंसे दोनों वरिष्ठ वकील आरके आनंद और आईयू खान को दोषी पाया गया है। दोनों वकीलों से वरिष्ठ वकील होने का दर्ज़ा वापस लेने की अनुशंसा की गई है और इनकी वकालत पर चार महीने की पाबंदी भी लगा दी गई है।
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BMW मतलब Biko-Mat-Wakeelsahab!!!
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Monday, August 18, 2008
आख़िर गए मुशर्रफ़
मुशर्रफ को आख़िरकार इस्तीफ़ा देना पड़ा। मुख्य तौर पर तीन वजहें रहीं। नवाज़ शरीफ और ज़रदारी के नेतृत्व में राजनीतिक दलों की घेराबंदी, पाकिस्तानी सेना का चुप रहना और अमेरिका का मुशर्रफ़ से पीछे से हाथ खींच लेना। पाकिस्तान में जम्हूरियत की मज़बूती के लिए मुशर्रफ को हटाया जाना ज़रुरी माना जा रहा था। अब मुशर्रफ नहीं हैं लेकिन जम्हूरियत की चुनौतियां अब भी बरकरार है।
किसी जम्हूरियत की मज़बूती के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना ज़रुरी है। मुशर्रफ की विदाई के बाद उनकी बनाई पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है। ऐसे में मज़बूत विपक्ष की भूमिका में कोई बड़ी पार्टी नहीं बची है। दो धुरविरोधी पार्टियां पीपीपी और पीएमएल एन सत्ता में साझीदार हैं। अब जब उनका साझा दुश्मन नहीं रहा तो ऐसे में देखना होगा कि अलग अलग नीतियां लेकर चलने वाली ये दोनों पार्टिया कब तक साथ चलती हैं। इनके बीच हितों का टकराव तो होना ही है। लेकिन अभी मुल्क जिस आर्थिक बदहाली और विधि व्यवस्था की नाकामी का शिकार है उससे पार पाए बग़ैर अगर ये आपस में लड़े तो लोकतंत्र विरोधी ताक़तों को फिर मौक़ा मिल सकता है।
आतंकवाद पर क़ाबू पाते हुए और मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाते हुए अगर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के ख़िलाफ चुनाव लड़ा तो ये पाकिस्तान की नई नवेली जम्हूरियत के हित में होगा। स्वार्थ की वजह से लड़े तो जैसा था वैसे की स्थिति में पहुंचने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।
किसी जम्हूरियत की मज़बूती के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना ज़रुरी है। मुशर्रफ की विदाई के बाद उनकी बनाई पार्टी पीएमएल क्यू कमज़ोर पड़ चुकी है। ऐसे में मज़बूत विपक्ष की भूमिका में कोई बड़ी पार्टी नहीं बची है। दो धुरविरोधी पार्टियां पीपीपी और पीएमएल एन सत्ता में साझीदार हैं। अब जब उनका साझा दुश्मन नहीं रहा तो ऐसे में देखना होगा कि अलग अलग नीतियां लेकर चलने वाली ये दोनों पार्टिया कब तक साथ चलती हैं। इनके बीच हितों का टकराव तो होना ही है। लेकिन अभी मुल्क जिस आर्थिक बदहाली और विधि व्यवस्था की नाकामी का शिकार है उससे पार पाए बग़ैर अगर ये आपस में लड़े तो लोकतंत्र विरोधी ताक़तों को फिर मौक़ा मिल सकता है।
आतंकवाद पर क़ाबू पाते हुए और मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाते हुए अगर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के ख़िलाफ चुनाव लड़ा तो ये पाकिस्तान की नई नवेली जम्हूरियत के हित में होगा। स्वार्थ की वजह से लड़े तो जैसा था वैसे की स्थिति में पहुंचने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।
Thursday, August 7, 2008
मुशर्रफ़ पर महाभियोग!
मुशर्रफ को हटाने के लिए नवाज़ शरीफ का दबाव आख़िर काम आता नज़र आ रहा है। पीपीपी से आगे बातचीत का रास्ता बंद करने की धमकी के बाद सत्तारुढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी को राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान करना पड़ा है। हालांकि अभी ये साफ नहीं है कि महाभियोग कब लाया जाएगा। हो सकता है कि नवाज़ के दबाव के चलते अभी सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर इसका ऐलान किया गया हो और इस पर वास्तविक अमल में अभी वक्त लगे।
दरअसल 18 फरवरी के चुनाव नतीज़ों में मुशर्रफ की समर्थक पार्टी पीएमएल क्यू की करारी हार हुई थी। पीपीपी की सरकार नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल एन के समर्थन के बूते ही बन सकी। उसके बाद से ही नवाज़ शरीफ लगातार लोकतंत्र विरोधी मुशर्रफ को हटाने और इमरजेंसी के पहले के जजों की बहाली के लिए ज़ोर डालते रहे हैं। लेकिन चाहे वो अमेरिकी दबाव हो या सेना से दुश्मनी का डर, ज़रदारी मुशर्रफ से सीधा दो दो हाथ करने से बचते रहे। नतीजतन पीपीपी के खिलाफ पाकिस्तानी अवाम की नाराज़गी भी काफी बढ़ती गई।
अब ऐलान किया गया है कि सरकार संसद में मुशर्रफ के खिलाफ चार्जशीट पेश करेगी। आठ साल तक पाकिस्तान पर राज करने वाले राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के लिए इसे मुश्किल दिनों की शुरुआत के तौर पर देखा जा रहा है। एक रास्ता ये है कि वो खुद ही इस्तीफ़ा दे दें। वैसे संसद को भंग करने के लिए धारा 58 2बी का इस्तेमाल अभी भी मुशर्रफ के हाथ में है। अपने शासन काल में की गई ग़लतियों के चलते हाल ही में अमेरिकी आलोचना का शिकार हो चुके मुशर्रफ मौजूदा हालात में इसके इस्तेमाल की हिम्मत शायद ही कर पाएं। सरकार के सामने सवाल ये है कि वो महाभियोग के लिए ज़रुरी दो तिहाई बहुमत कैसे जुटाती है। क्या वो महाभियोग पर अवामी नेशनल पार्टी जैसे दलों का सहयोग हासिल कर पाती है, पीएमएल क्यू को तोड़ती है या फिर नवबंर में सीनेट चुनाव तक इंतज़ार करती है।
जम्मू जाग जाने का वक्त है... पार्ट 2
गतांक से आगे...
जम्मू में कई इलाक़े में कश्मीरी बसे हैं। पंडित और मुसलमान भी। नई नई बस्तियां बसी हैं। एसबेस्टर की और महलनुमा भी। उनके बीच धार्मिक स्थल भी बने हैं। मंदिर भी और मस्ज़िद भी। तब क्यों नहीं स्यापा हुआ। अब क्यों हो रहा है। कम्युनल लाईन पर बात तब क्यों नहीं आयी। अब क्यों आ रही है।
ज़मीन वापस लेने के फैसले के पीछे अगर श्रीनगर के जनांदोलन की दुहाई दी जा रही है तो ये बात किसी से छिपी नहीं है कि कम से कम दो दशक से पूरी घाटी में आंदोलन, हिंसक या अहिंसक, किस बात के लिए हो रहे हैं। भारत से अलग होने के लिए ही ना। तो जनभावना और जनआंदोलन का ख़्याल कर क्यों नहीं खुला छोड़ देते उन्हें। मालूम है धर्मनिरपेक्षों को कि वो इलाका तो चला ही जाए... पूरा देश जूते मारेगा सो अलग। इसलिए उनको बांध के ही सही... साथ रखना है। और वोट मिलता रहे... कुर्सी बची रहे इसले लिए जनभावना की दुहाई देकर चंद अलगाववादियों को खुश रखना है। और ये अगर लोकल पॉलिटिक्स में बने रहने की चालाक रफ्फूगिरी नहीं है तो क्यों कांग्रेस और पीडीपी जैसी सभ्रांत पार्टियों के नेता ज़मीन की लड़ाई में जम्मू के साथ हो लिए हैं। पार्टी लाइन तोड़ रहे है या पार्टी ही छोड़ रहे हैं। इसलिए क्योंकि नहीं हुए तो ज़मीन सूंघ जाएंगे। जो लोकल हीट इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लोकल नेताओं को लोकल स्तर पर हो रहा है वही अगर राष्ट्रीय स्तर पर रास्ट्रीय स्तर के नेताओं को होने लगे तो शायद वो अपना चश्मा उतार फेंके।
ज़मीन देने के ख़िलाफ जब श्रीनगर में आंदोलन शुरु हुआ तो ज़िम्मेदार सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेताओं को ठहराया गया। वहां अगर ये मामला गहरा सांप्रदायिक रंग लेने से बचा तो उन टैक्सी ड्राईवरों और व्यापार करने वालों की वजह से जिनकी रोज़ी रोटी ‘टनल पार’ वालों से चलती है। क्योंकि आपने उनको आज़ादी दी नहीं है इसलिए वो इधर वालों पर आश्रित हैं। इसलिए जहां कहीं भी टनल पार वालों पर पत्थर बरसने की नौबत आयी... वो बचा ले गए... बचा ले जाते हैं। जहां पत्थर बरसे वो कैमरों की निगाह में आ नहीं पाए। अगर कोई भुक्तभोगी मिलेगा तो वही आपको बता पाएगा। क्या क्या हुआ। कैसे वापस आए। लेकिन वहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का शासन है। इसलिए सब कुछ मैनेज कर लिया गया। लेकिन अब वहीं मीरवाइज़ उमर फारुक सेब का ट्रक लेकर एलओसी क्रॉस करने की बात कर रहे हैं। मेहबूबा कहतीं है कि हमें अलग कर दो इतना ही दिक्कत है तो। क्यों भई। बीजेपी के नेता भड़काऊ हैं तो ये आगे आकर क्यों नहीं कहते कि जम्मू के भाई... इतनी सी ज़मीन के लिए इतना बवाल क्यों। ले लो। क्या इससे कश्मीर कम हो जाएगा। नहीं। कश्मीरियत उंची उठ जाएगी। पर वो ऐसा क्यों करें।
दरअसल कश्मीर किसी आज़ादी की लड़ाई का नहीं राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का शिकार रहा है। जिसका एक सिरा पाकिस्तान को खुलता है। ट्रांसफॉर्मर तो बिहार में भी फुंकते हैं। लेकिन ट्रांसफॉमर फुंकने पर भी ‘जीवे जीवे पाकिस्तान... हम क्या मांगे आज़ादी’ के नारे लगते सुने गए हैं। तो इकॉनॉमिक ब्लोकेड पर तो पाकिस्तान की गोद में बैठने डर दिखाना तो ऐसे नेताओं की फितरत का हिस्सा है। कभी इनको एक्सपोज़ करने की बात क्यों नहीं होती। नंगे पंगे को ही रगड़ कर क्यों खुद को सबसे ठीक होने की गलतफहमी पाले हुए हैं। जान लें। गुजरात हो या जम्मू और कश्मीर, धर्म के नाम पर जहां भी राजनीतिक सत्ता पर बने रहने की मंशा होगी... आज न कल ऐसी ही जलती हुई तस्वीर दिखेगी।
जम्मू जलने के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले सावधान। हिन्दुत्व का एक फ्लॉप शो देकर कुंद हो चुकी पार्टी में आप एक नई जान भर रहे हो। इस पार्टी में इतनी कूवत होती तो अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ सिर्फ बयानबाज़ी कर चुप नहीं रह जाती। जनभावना को भड़का कोई जनांदोलन का भ्रम दे पाने जैसी हालत भी पैदा कर पाती तो देश कई जगह जल रहा होता। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर बहक कर लोग बांग्लादेशियों को सीमा पर घसीटने पर आमादा हो रहे होते। राम मंदिर बनाने के लिए दुबारा से ईंट लेकर आडवाणी के पीछे हो लिए होते। लेकिन अभी सिर्फ सिर्फ जम्मू जला है तो सिर्फ एक वजह से। आपकी वजह से। क्योंकि आपने जलने की पृष्ठभूमि तैयार की। पहले ज़मीन देकर। फिर वापस लेकर।
जम्मू में कई इलाक़े में कश्मीरी बसे हैं। पंडित और मुसलमान भी। नई नई बस्तियां बसी हैं। एसबेस्टर की और महलनुमा भी। उनके बीच धार्मिक स्थल भी बने हैं। मंदिर भी और मस्ज़िद भी। तब क्यों नहीं स्यापा हुआ। अब क्यों हो रहा है। कम्युनल लाईन पर बात तब क्यों नहीं आयी। अब क्यों आ रही है।
ज़मीन वापस लेने के फैसले के पीछे अगर श्रीनगर के जनांदोलन की दुहाई दी जा रही है तो ये बात किसी से छिपी नहीं है कि कम से कम दो दशक से पूरी घाटी में आंदोलन, हिंसक या अहिंसक, किस बात के लिए हो रहे हैं। भारत से अलग होने के लिए ही ना। तो जनभावना और जनआंदोलन का ख़्याल कर क्यों नहीं खुला छोड़ देते उन्हें। मालूम है धर्मनिरपेक्षों को कि वो इलाका तो चला ही जाए... पूरा देश जूते मारेगा सो अलग। इसलिए उनको बांध के ही सही... साथ रखना है। और वोट मिलता रहे... कुर्सी बची रहे इसले लिए जनभावना की दुहाई देकर चंद अलगाववादियों को खुश रखना है। और ये अगर लोकल पॉलिटिक्स में बने रहने की चालाक रफ्फूगिरी नहीं है तो क्यों कांग्रेस और पीडीपी जैसी सभ्रांत पार्टियों के नेता ज़मीन की लड़ाई में जम्मू के साथ हो लिए हैं। पार्टी लाइन तोड़ रहे है या पार्टी ही छोड़ रहे हैं। इसलिए क्योंकि नहीं हुए तो ज़मीन सूंघ जाएंगे। जो लोकल हीट इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लोकल नेताओं को लोकल स्तर पर हो रहा है वही अगर राष्ट्रीय स्तर पर रास्ट्रीय स्तर के नेताओं को होने लगे तो शायद वो अपना चश्मा उतार फेंके।
ज़मीन देने के ख़िलाफ जब श्रीनगर में आंदोलन शुरु हुआ तो ज़िम्मेदार सैय्यद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादी नेताओं को ठहराया गया। वहां अगर ये मामला गहरा सांप्रदायिक रंग लेने से बचा तो उन टैक्सी ड्राईवरों और व्यापार करने वालों की वजह से जिनकी रोज़ी रोटी ‘टनल पार’ वालों से चलती है। क्योंकि आपने उनको आज़ादी दी नहीं है इसलिए वो इधर वालों पर आश्रित हैं। इसलिए जहां कहीं भी टनल पार वालों पर पत्थर बरसने की नौबत आयी... वो बचा ले गए... बचा ले जाते हैं। जहां पत्थर बरसे वो कैमरों की निगाह में आ नहीं पाए। अगर कोई भुक्तभोगी मिलेगा तो वही आपको बता पाएगा। क्या क्या हुआ। कैसे वापस आए। लेकिन वहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का शासन है। इसलिए सब कुछ मैनेज कर लिया गया। लेकिन अब वहीं मीरवाइज़ उमर फारुक सेब का ट्रक लेकर एलओसी क्रॉस करने की बात कर रहे हैं। मेहबूबा कहतीं है कि हमें अलग कर दो इतना ही दिक्कत है तो। क्यों भई। बीजेपी के नेता भड़काऊ हैं तो ये आगे आकर क्यों नहीं कहते कि जम्मू के भाई... इतनी सी ज़मीन के लिए इतना बवाल क्यों। ले लो। क्या इससे कश्मीर कम हो जाएगा। नहीं। कश्मीरियत उंची उठ जाएगी। पर वो ऐसा क्यों करें।
दरअसल कश्मीर किसी आज़ादी की लड़ाई का नहीं राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का शिकार रहा है। जिसका एक सिरा पाकिस्तान को खुलता है। ट्रांसफॉर्मर तो बिहार में भी फुंकते हैं। लेकिन ट्रांसफॉमर फुंकने पर भी ‘जीवे जीवे पाकिस्तान... हम क्या मांगे आज़ादी’ के नारे लगते सुने गए हैं। तो इकॉनॉमिक ब्लोकेड पर तो पाकिस्तान की गोद में बैठने डर दिखाना तो ऐसे नेताओं की फितरत का हिस्सा है। कभी इनको एक्सपोज़ करने की बात क्यों नहीं होती। नंगे पंगे को ही रगड़ कर क्यों खुद को सबसे ठीक होने की गलतफहमी पाले हुए हैं। जान लें। गुजरात हो या जम्मू और कश्मीर, धर्म के नाम पर जहां भी राजनीतिक सत्ता पर बने रहने की मंशा होगी... आज न कल ऐसी ही जलती हुई तस्वीर दिखेगी।
जम्मू जलने के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराने वाले सावधान। हिन्दुत्व का एक फ्लॉप शो देकर कुंद हो चुकी पार्टी में आप एक नई जान भर रहे हो। इस पार्टी में इतनी कूवत होती तो अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ सिर्फ बयानबाज़ी कर चुप नहीं रह जाती। जनभावना को भड़का कोई जनांदोलन का भ्रम दे पाने जैसी हालत भी पैदा कर पाती तो देश कई जगह जल रहा होता। आंतरिक सुरक्षा के नाम पर बहक कर लोग बांग्लादेशियों को सीमा पर घसीटने पर आमादा हो रहे होते। राम मंदिर बनाने के लिए दुबारा से ईंट लेकर आडवाणी के पीछे हो लिए होते। लेकिन अभी सिर्फ सिर्फ जम्मू जला है तो सिर्फ एक वजह से। आपकी वजह से। क्योंकि आपने जलने की पृष्ठभूमि तैयार की। पहले ज़मीन देकर। फिर वापस लेकर।
जम्मू जाग जाने का वक्त है
जम्मू जाग जाने का वक्त है। उन लोगों के लिए जिन्होने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सालों साल से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति अपना रखी है। आपको ये लाइनें किसी बीजेपी या विश्व हिन्दू परिषद् के नेता का लग सकती हैं। लेकिन यही सच्चाई नज़र आने लगी है। ख़ास तौर पर उन लोगों को जो रोज़ टीवी पर जम्मू के लोगों को सड़क पर उतरते देख रहे हैं। जो जम्मू की महिलाओं को पहली बार उसी तरह से छाती पीटते देख रहे हैं जैसा अब तक सिर्फ कश्मीर में किसी कस्टोडियल कीलिंग के बाद देखने में आता था। जत्थे के जत्थे लोग। पुलिस, आंसू गैस और गोली से जूझते लोग। आप भी देख रहे हैं।
जो लोग जम्मू की हालत के लिए बीजेपी जैसी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं वो कहीं ना कहीं बीजेपी की मदद करते नज़र आते हैं। एक ऐसी पार्टी जो राम मंदिर के लिए शिला पूजन करा जन भावना को भड़का अयोध्या तक ले गई... वही पार्टी जो हिन्दुत्व का झंडाबरदार बनने का वैसा ही नाटक दूबारा नहीं कर सकी। क्यों। क्योंकि उसका प्रपंच सामने आ गया। फिर वो कभी वो ताक़त नहीं पा सकी। पा सकी होती तो शायद देश में कई जगहों पर वो अपना एजेंडा चला चुकी होती... चला रही होती। गुजरात मोदी के हवाले छोड़ दें तो बाक़ी कहीं हिन्दुत्व फैक्टर बीजेपी के लिए काम करता नज़र नहीं आता। फिर जम्मू में बीजेपी फैक्टर काम कर रहा है तो क्यों।
धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने के थोथे आरोप प्रत्यारोप को अलग रख तक तथ्यात्मक तौर से देखें तो ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा ये जानने में कि जम्मू को जलाने का काम किसने किया... क्यों किया। एक ज़मीन दी गई अमरनाथ श्राईन बोर्ड को। राज्य सरकार का फैसला था। उस सरकार का जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली पार्टियों से बनी थी। कैबिनेट की मंज़ूरी से फैसला होता है। फैसले के पहले या तो किसी ने इसके दूरगामी प्रभाव की गणना नहीं की... या फिर इसके पीछे डोडा, भरदवाह, किश्तवाड़ समेत जम्मू के तमाम... और जम्मू ही क्यों, पूरे देश के हिन्दू तीर्थ यात्रियों के दिल जीतने की मंशा के तहत किया। इस फैसले के बाद जब श्रीनगर जल उठा तो इस फैसले को ग़लत मान लिया गया और बदल दिया गया। सही बात है। जनभावना के सामनों सरकारों को झुक जाना चाहिए। सो वो झुक गई। अब बारी जम्मू की थी। वो सुलगने लगा। नेताओं को लगा ये मोम के बने लोग हैं। जल्द ही पिघल जाएंगे। लेकिन गर्मी इतनी बढ़ गई कि केन्द्र सरकार तक को पसीना आ गया। किसी भी सरकार का जम्मू से ये इस तरह का पहला एक्सोपज़र है। सो समझ नहीं आ रहा क्या करें। सर्वदलीय बैठक कर लिया। चलो सब मिल के चलते हैं। बीजेपी भी चलेगी। जा के क्या करेंगे... शायद पता नहीं। हां... शांति की अपील करेगें। और लोग शांत हो जाएंगे। गोली का डर भी दिखा रहे हैं। फिर ग़लती कर रहे हैं और हिंसा के लिए ज़िम्मेदार जनता पर थोप रहे हैं।
जम्मू वालों के तर्क को कैसे काटेंगे कि क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अगर वहां धारा 370 है तो क्या वो जम्मू में नहीं है। अगर जम्मू है तो वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड को इतना विस्तार कैसे दिया गया। इतनी सुविधाएं क्यों बनने दी गई। सिर्फ इसलिए कि श्रीनगर ने विरोध नहीं किया या फिर विरोध उनके अख़्तियार में ही नहीं था। जहां था वहां किया और फैसला बदलवा लिया। तो अब वैसी कोशिश ही जम्मू कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि वैष्णो देवी और अमरनाथ दोनों भारत में ही है। राज्य के एक इलाक़े के लोगों को आंदोलन के ज़रिए सरकार को झुकाने का हक़ है तो दूसरे इलाक़े के लोगों का ये हक़ कोई कैसे छीन सकता है। ये बहाना मत बनाइए कि ये संवेदशील मामला है। ... जारी
जो लोग जम्मू की हालत के लिए बीजेपी जैसी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं वो कहीं ना कहीं बीजेपी की मदद करते नज़र आते हैं। एक ऐसी पार्टी जो राम मंदिर के लिए शिला पूजन करा जन भावना को भड़का अयोध्या तक ले गई... वही पार्टी जो हिन्दुत्व का झंडाबरदार बनने का वैसा ही नाटक दूबारा नहीं कर सकी। क्यों। क्योंकि उसका प्रपंच सामने आ गया। फिर वो कभी वो ताक़त नहीं पा सकी। पा सकी होती तो शायद देश में कई जगहों पर वो अपना एजेंडा चला चुकी होती... चला रही होती। गुजरात मोदी के हवाले छोड़ दें तो बाक़ी कहीं हिन्दुत्व फैक्टर बीजेपी के लिए काम करता नज़र नहीं आता। फिर जम्मू में बीजेपी फैक्टर काम कर रहा है तो क्यों।
धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने के थोथे आरोप प्रत्यारोप को अलग रख तक तथ्यात्मक तौर से देखें तो ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा ये जानने में कि जम्मू को जलाने का काम किसने किया... क्यों किया। एक ज़मीन दी गई अमरनाथ श्राईन बोर्ड को। राज्य सरकार का फैसला था। उस सरकार का जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली पार्टियों से बनी थी। कैबिनेट की मंज़ूरी से फैसला होता है। फैसले के पहले या तो किसी ने इसके दूरगामी प्रभाव की गणना नहीं की... या फिर इसके पीछे डोडा, भरदवाह, किश्तवाड़ समेत जम्मू के तमाम... और जम्मू ही क्यों, पूरे देश के हिन्दू तीर्थ यात्रियों के दिल जीतने की मंशा के तहत किया। इस फैसले के बाद जब श्रीनगर जल उठा तो इस फैसले को ग़लत मान लिया गया और बदल दिया गया। सही बात है। जनभावना के सामनों सरकारों को झुक जाना चाहिए। सो वो झुक गई। अब बारी जम्मू की थी। वो सुलगने लगा। नेताओं को लगा ये मोम के बने लोग हैं। जल्द ही पिघल जाएंगे। लेकिन गर्मी इतनी बढ़ गई कि केन्द्र सरकार तक को पसीना आ गया। किसी भी सरकार का जम्मू से ये इस तरह का पहला एक्सोपज़र है। सो समझ नहीं आ रहा क्या करें। सर्वदलीय बैठक कर लिया। चलो सब मिल के चलते हैं। बीजेपी भी चलेगी। जा के क्या करेंगे... शायद पता नहीं। हां... शांति की अपील करेगें। और लोग शांत हो जाएंगे। गोली का डर भी दिखा रहे हैं। फिर ग़लती कर रहे हैं और हिंसा के लिए ज़िम्मेदार जनता पर थोप रहे हैं।
जम्मू वालों के तर्क को कैसे काटेंगे कि क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अगर वहां धारा 370 है तो क्या वो जम्मू में नहीं है। अगर जम्मू है तो वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड को इतना विस्तार कैसे दिया गया। इतनी सुविधाएं क्यों बनने दी गई। सिर्फ इसलिए कि श्रीनगर ने विरोध नहीं किया या फिर विरोध उनके अख़्तियार में ही नहीं था। जहां था वहां किया और फैसला बदलवा लिया। तो अब वैसी कोशिश ही जम्मू कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि वैष्णो देवी और अमरनाथ दोनों भारत में ही है। राज्य के एक इलाक़े के लोगों को आंदोलन के ज़रिए सरकार को झुकाने का हक़ है तो दूसरे इलाक़े के लोगों का ये हक़ कोई कैसे छीन सकता है। ये बहाना मत बनाइए कि ये संवेदशील मामला है। ... जारी
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