अहमदाबाद में धमाके की ख़बर आयी उस समय मैं 64 लोदी स्टेट में था। संसद में नोट लहराए जाने के मामले पर गठित कमिटि के चेयरमैन और वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद के सी देव के यहां। धमाका दूर अहमदाबाद में हुआ था लेकिन कुछ ही मिनटों में गूंज दिल्ली में भी सुनाई देगी इस बात का एहसास तो था ही। लिहाज़ा यहां से अपना काम समेट कहीं और चलने की प्रक्रिया में था। तभी बीजेपी दफ्तर से फोन आया। “एबी 97... जी...जी। राजीव प्रताप रुढी जी के यहां।...हां वहीं बाइट देगें...।“ ऐसे मौकों को मन झिड़क देने को करता है। लेकिन धमाकों के बाद प्रतिक्रिया लेने और देने का चलन है। सो चल पड़ा। पहुंच कर कैमरा सजाया ही था कि कहा गया पार्टी अध्यक्ष ही बाइट देगें अपने निवास पर। वहां चलें। हम मशीनी तरीके से चल पड़े। चलने के पहले नोटिस किया कि यहां कई चैनलों को लगातार मॉनीटर किया जा रहा है। दो शख्स लगातार फोन कर चैनलों को बता रहे हैं कि राजनाथ सिंह ने धमाकों की निंदा की है। कहा है देश में असुरक्षा का माहौल है। इसे चला दें। टाइम्स नाउ पर पट्टी चल पड़ी। फोन करने वाले को त्वरित संतुष्टि का अहसास हुआ... “चल गया... चल गया।“ ख़ैर ये उनका काम था सो उन्हें करना था। धमाकों के बीच प्रमुख विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष की चिंता को चैनलों के ज़रिए फैलाना था।
राजनाथ सिंह के घर ओबी वैन पहुंच रहे थे। छ बज कर पैंतालिस मिनट पर पहला धमाका हुआ था। बम अभी फट ही रहे थे। अभी तक सिर्फ 6 लोगों के मरने की जानकारी आयी थी। अपडेट्स लगातार आ रहे थे। लेकिन ये ज़रुरी तो नहीं कि सारा कुछ देख लेने के बाद ही नेता अपनी प्रतिक्रिया दें। मज़ाक की बात थोड़े ही है। आपको हमको भी तो इंतज़ार रहता है कि देश दुनिया को बताएं कि अमुक अमुक पार्टी के अमुक अमुक नेता क्या कर रहे हैं... क्या कह रहे हैं... जब देश में बम फट रहे हैं। सो ऐसे में पहली प्रतिक्रिया की अपनी वैल्यू है।
10 मिनट के अंदर 16 कैमरे और 6 ओबी वैन्स पहुंच चुके थे। तभी जानकारी मिली की मामला बड़ा हो गया है। लालकृष्ण आडवाणी खुद मीडिया से बात करेंगे। वहां पहुंचें। मैंने अपने साथियों को रोका। कहा पहले यहां सुन लें फिर वहां चलेगें। कैमरे सज चुके थे। ओबी सिग्नल भी ट्रैक हो चुके थे। सो सभी ने हामी भर दी। अंदर जानकारी भेजी गई कि अगर आडवाणी जी बोल गए तो राजनाथ सिंह जी की कौन सुनेगा। बात शायद क्लिक कर गई। राजनाथ सिंह जी सवा आठ से आठ मिनट पहले ही कैमरे के सामने प्रकट हो गए। वही बातें कि जो पार्टी अक्सर करती रहती है। ...आंतकवाद की कड़े से कड़े शब्दों में निंदा और पोटा जैसे कानून की मांग। अफज़ल को फांसी पर क्यों नहीं लटकाया अब तक...। सरकार के निकम्मेपन पर विपक्ष की ये लाठी असल में पानी पर पड़ती नज़र आती है। चलिए। इनको सुन लिया। लाइव कट गया। इनका बयान ख़त्म होते होते उधर आडवाणी भी शुरु हो चुके थे। वहां से फोन पर लाइव लिए जा रहे थे। उन्होने प्रतिक्रिया देने का फैसला इतना त्वरित लिया था कि बहुतों की ओबी नहीं पहुंच पायी थी।
इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। सत्ता पक्ष का पहलू। ये भी धमाके के तुरंत बाद ही शुरु हो जाता है। मैंने अपने सहयोगी शारिक ख़ान को गृह राज्यमंत्री शकील अहमद को ट्रैक करने का अनुरोध किया था। शारिक का फोन आया कि वो कहीं मयूर विहार में बैठे हैं जहां हमें नहीं बुला सकते। हां फोनो दे सकते हैं सो मैंने ऑफिस को नंबर लिखा दिया है। शकील अहमद साहब ऑन एयर थे। हर बात पर बात करने को तैयार दूसरे गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल कानपुर में थे। कुछ चैनलों ने उनको वहीं ढूंढ निकाला। वे भी बोल रहे थे। ऐसे मौके पर राजनीति नहीं करने की अपील कर रहे थे। इस तरह का बयान कोई पहली बार सुन रहा होता तो शायद अच्छा लगता। कि देखो सत्ता में इतना उंचा उठा नेता राजनीति नहीं करने की बात कर रहा है। लेकिन ऐसा हमेशा होता है। ख़ासतौर पर जब बम बीजेपी शासित राज्य में फटा हो। सरकार की तरफ से बयान आता है कि۔..."लॉ एंड आर्डर राज्य की ज़िम्मेदारी है।... हमने उनके एक दो तीन पहले ही बता दिया था कि ऐसा कुछ होने वाला है। ये उनकी चूक है।... हम हर मदद देने को तैयार हैं।"
अब तक कैमरा माननीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल जी के घर भी घूम चुका है। कहीं बाहर से आ रहे हैं। वो आते हैं। फटाफट बैठक करते हैं। अब मीडिया से मुख़ातिब हैं। “...किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा...।“ उनको भी पता है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उनके ही कार्यकाल में कम से एक दर्जन ऐसे सीरियल ब्लास्ट्स हुए हैं। हर बार आतंकियों को पकड़ सज़ा देने का बात हुई है। एक्का दुक्का पकड़ा गया तो पकड़ा गया नहीं तो हुजी, सिमी, लश्कर जैसे संगठनों का नाम सामने रख कार्रवाई पूरी मान ली गई है। अगर नहीं मानी जाती तो शायद इन्हें एक बार और ऐसा वादा या दावा नहीं करना पड़ता जिसका खोखलापन साफ उजागर होता है।
एक सख्त कानून की मांग करता है। मतलब कि धमाके तो होंगे ही... कहीं ना कहीं वो ये मान कर चल रहा है। उसके बाद पकड़ने और सज़ा देने के लिए कड़ा कानून चाहिए। दूसरा एफबीआई जैसी एजेंसी का झांसा दे रहा है। कई साल बनने में लग जाएगें। अभी तो सिर से उतारो। सुरक्षा के लिए हरेक के पीछे एक पुलिस वाला नहीं लगा सकते। ये हम आप सभी जानते हैं। लेकिन आंतरिक सुरक्षा के लिए ज़रुरी ख़ुफिया तंत्र को क्यों लकवा मार गया है। 17 धमाकों के पीछे लगे आतंकियों ने फोन, ईमेल या बैठकी के ज़रिए आपस में संवाद किया होगा। आपकी नज़र से ये सब क्यों छूट जाता है। क्या मुख़बिर नहीं हैं या सोर्स मनी कम पड़ गया है। कुछ बेसिक्स पर विचारिए। एक दूसरे पर दोषारोपण तो राजनीति का स्वभाविक चरित्र है। लेकिन ज़रूरी नहीं कि मामले की गंभीरता का एहसास तभी हो जब अपने घर का कोई इसका शिकार हो। तब शायद आप ये कह पाने की हालत में नहीं होगे कि…” हम कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे...”
Monday, July 28, 2008
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