लाहौर की चिकनी सड़कों पर गाडियाँ सरपट दौड़ती जा रही हैं. कोई पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाहता. सभी आगे कि राह ढूंढते लगते हैं. शहर की अपनी रौनक है. लेकिन अजीब खामोशी साथ है. कराची-रावलपिंडी से धमाकों की ख़बर आती है. खामोशी और गहरी हो जाती है. यहाँ के न्यूज़ चैनल्स बताते है. हालत ठीक नहीं हैं. मीडिया मुखर हो रही है. पर उनकी अपनी सीमा है. वकीलों के आन्दोलन से आवाम को जो उम्मीद बंधी वो कायम है. बेनजीर के आने ने भी जोश भर दिया है. नवाज़ शरीफ आ पाएंगे या नहीं इस पर अटकलें चल रहीं हैं. कुछ जानकारों का मानना है कि वो आयेंगे और फौज ही है जो उन्हें आने देगी. नहीं ततो चुनाव में बेनजीर इतनी मज़बूत हो जायेंगी कि अ-राजनैतिक दखल-अंदाजों को बाद में मुश्किल होगी. ऐसी ताकतों को ये मुफीद बैठता है कि वोट पार्टियों में बंटती रहे. कोई एक मुख्तार न हो.
नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में अल-कायेदा आतंकवादियों के साथ छापामार किस्म की लड़ाई चल रही है. WorldPublicOpinion. ओआरजी ने एक सर्वे किया है और उसके मुताबिक ४४ फीसदी पाकिस्तानी चाहते हैं कि वहाँ पाकिस्तानी आर्मी को भेजा जाना चाहिए. हालांकि इस सर्वे का सैम्पल साइज़ बहुत छोटा मालुम पड़ता है. शहरी इलाकों के सिर्फ़ ९०७ लोगों को इस में शामिल किया गया. खैर, हमारा मकसद सर्वे को सही या ग़लत ठहराना नहीं है. यहाँ के मूड को जानना है. पिछले पांच दिनों में जितने भी लोगों से जिस भी तरह की बात हुई है...उन सभी के मुताबिक यहाँ की आवाम अब पक चुकी है. वो अपनी चुनी हुई सरकार चाहती है.
सुबह यहाँ के एक न्यूज़ चैनल पर तक़रीर चल रही थी. भारतीय लोक-तंत्र की दुहाई दी जा रही थी. वहाँ के मज़बूत इलेक्शन कमीशन जैसी संस्था की यहाँ ज़रूरत महसूस की जा रही है. लेकिन तमाम बहस के बाद भी कोई ये बता सकने की हालत में नही...कि मुल्क किस दिशा में बढ़ रहा है.
(फोटो सौजन्य AFP)
Wednesday, October 31, 2007
Monday, October 29, 2007
लाहौर की गोद में... सभी हैं यहाँ जोश में
प्रिय पाठकों.
लाहौर में आज मेरी तीसरी सुबह है. बंगलादेश से आयी पत्रकार असमा का कल जन्मदिन था सो कल देर रात तक पार्टी चली. सबसे ज़्यादा डांस अजीम ने किया. बेहतरीन नाचता है वो. अमिताभ स्टाइल में. आसिम अफगानिस्तान से है. तीन और पत्रकार अफगानिस्तान से लाहौर आए है. फरीदुल्लाह , अहमद शाह शेरानी और महिला पत्रकार फेरिबा. यहाँ श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान के पत्रकारों से भी मिलने का मौक़ा मिल रहा है.
सभी एक गेस्ट हॉउस में ठहरें हैं. सो तकरीबन २४ घंटे साथ रहते हैं. गेस्ट हॉउस का आलम कुछ कुछ बिग बॉस के घर जैसा है. लेकिन यहाँ साजिश नहीं है. ना ही कोई जीतने या हारने का भाव. यहाँ प्यार है. अलग-अलग मुल्कों की आवाम के बीच का प्यार. और इसकी मेजबानी कर रहे है पाकिस्तान के लोग.
अभी ज़्यादा घूमना नही हुआ है. कल गद्दाफी स्टेडियम गया था. पाकिस्तानी टीम प्रैक्टिस कर रही थी. अफ्रीका से आख़िरी मैच के पहले की प्रैक्टिस. शाहिद अफरीदी से बात हुई. शाहिद ने कहा... आ रहा हूँ इंडिया. दरअसल पाकिस्तानी टीम भारत आने की तैयारी में जुटी है. लेकिन अभी कोई भी खिलाडी उसके बारे में आन रिकार्ड बोलना नही चाहता. मैंने क्रिकेट फैंस से भी बातें की. एक क्रिकेट फैन भविष्यवाणी के अंदाज़ में बोला... शोएब ने तेंदुलकर को पहली गेंद पर बोल्ड करना है... शाहिद ने श्रीसंत को छक्के उद्दाने हैं...हमारी टीम जीत कर आयेगी. मैंने उसके कंधे पर हाथ रख विश किया... भारत से क्या होगा पता नही...पर कामना करता हूँ कि पाक टीम साउथ अफ्रीका से मौजूदा सीरीज़ ज़रूर जीत जाए! सभी क्रिकेट प्रेमियों को भारत-पाक सीरीज़ का बेसब्री से इंतज़ार है. लेकिन वे वीजा की समस्या से भी वाकिफ है. सियासतदानों से शिकायत है. पर आवाम के लिए चाहत...
ये रेस्टोरेंट में भी दिखा. गुलबर्ग इलाके के लिबर्टी मार्केट में salt n' pepper में लंच करने गया. साथ में जियो टीवी के पत्रकार शाहबाज़ थे. हिन्दुस्तानी हूँ ये पता चलते ही वेटरों ने ख़ास ख़याल रखना शुरू कर दिया. सबों की निगाह मुझ पर थी...लेकिन इस तरह की मैं असहज ना महसूस करूँ. रेस्टोरेंट से निकलते हुए निगाहें आख़िरी सीधी तक साथ रहीं.
आगे भी लिखता रहूंगा. अभी के लिए खुदा हाफिज़
लाहौर में आज मेरी तीसरी सुबह है. बंगलादेश से आयी पत्रकार असमा का कल जन्मदिन था सो कल देर रात तक पार्टी चली. सबसे ज़्यादा डांस अजीम ने किया. बेहतरीन नाचता है वो. अमिताभ स्टाइल में. आसिम अफगानिस्तान से है. तीन और पत्रकार अफगानिस्तान से लाहौर आए है. फरीदुल्लाह , अहमद शाह शेरानी और महिला पत्रकार फेरिबा. यहाँ श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान के पत्रकारों से भी मिलने का मौक़ा मिल रहा है.
सभी एक गेस्ट हॉउस में ठहरें हैं. सो तकरीबन २४ घंटे साथ रहते हैं. गेस्ट हॉउस का आलम कुछ कुछ बिग बॉस के घर जैसा है. लेकिन यहाँ साजिश नहीं है. ना ही कोई जीतने या हारने का भाव. यहाँ प्यार है. अलग-अलग मुल्कों की आवाम के बीच का प्यार. और इसकी मेजबानी कर रहे है पाकिस्तान के लोग.
अभी ज़्यादा घूमना नही हुआ है. कल गद्दाफी स्टेडियम गया था. पाकिस्तानी टीम प्रैक्टिस कर रही थी. अफ्रीका से आख़िरी मैच के पहले की प्रैक्टिस. शाहिद अफरीदी से बात हुई. शाहिद ने कहा... आ रहा हूँ इंडिया. दरअसल पाकिस्तानी टीम भारत आने की तैयारी में जुटी है. लेकिन अभी कोई भी खिलाडी उसके बारे में आन रिकार्ड बोलना नही चाहता. मैंने क्रिकेट फैंस से भी बातें की. एक क्रिकेट फैन भविष्यवाणी के अंदाज़ में बोला... शोएब ने तेंदुलकर को पहली गेंद पर बोल्ड करना है... शाहिद ने श्रीसंत को छक्के उद्दाने हैं...हमारी टीम जीत कर आयेगी. मैंने उसके कंधे पर हाथ रख विश किया... भारत से क्या होगा पता नही...पर कामना करता हूँ कि पाक टीम साउथ अफ्रीका से मौजूदा सीरीज़ ज़रूर जीत जाए! सभी क्रिकेट प्रेमियों को भारत-पाक सीरीज़ का बेसब्री से इंतज़ार है. लेकिन वे वीजा की समस्या से भी वाकिफ है. सियासतदानों से शिकायत है. पर आवाम के लिए चाहत...
ये रेस्टोरेंट में भी दिखा. गुलबर्ग इलाके के लिबर्टी मार्केट में salt n' pepper में लंच करने गया. साथ में जियो टीवी के पत्रकार शाहबाज़ थे. हिन्दुस्तानी हूँ ये पता चलते ही वेटरों ने ख़ास ख़याल रखना शुरू कर दिया. सबों की निगाह मुझ पर थी...लेकिन इस तरह की मैं असहज ना महसूस करूँ. रेस्टोरेंट से निकलते हुए निगाहें आख़िरी सीधी तक साथ रहीं.
आगे भी लिखता रहूंगा. अभी के लिए खुदा हाफिज़
Saturday, October 27, 2007
अ लेटर फ्रॉम लाहौर
प्रिय ब्लागर बंधुओं,
दिल की तमन्ना थी कि मुल्क के उस आधे हिस्से को देखूं जो १४ अगस्त १९४७ की रात पाकिस्तान बन गया. तमन्ना पूरी हो रही है. कल ही दिल्ली से लाहौर पहुँचा हूँ. अगले एक महीने तक पाकिस्तान में ही रहने का प्रोग्राम है. यहाँ जो कुछ भी देखूंगा... महसूस करूँगा... आप सबों को बताते रहने की कोशिश करूँगा.
कल रात जब लाहौर एअरपोर्ट से बाहर निकला ततो एक शख्स ने बड़े प्यार और जोश से पूछा... आप इंडिया से आए हैं? मैंने कहा... जी. जवाब सुनते ही उनके साथ खड़े दूसरे लोगों की आँखों में चमक सी आ गयी. उनके चेहरे के भाव से लगा कि अपने इंडियन भाइयों को देख यहाँ की आवाम किस तरह खुश होती है...जैसे उनका कोई बिछड़ा भाई उनसे मिला हो!
फिर मिलता हूँ
दिल की तमन्ना थी कि मुल्क के उस आधे हिस्से को देखूं जो १४ अगस्त १९४७ की रात पाकिस्तान बन गया. तमन्ना पूरी हो रही है. कल ही दिल्ली से लाहौर पहुँचा हूँ. अगले एक महीने तक पाकिस्तान में ही रहने का प्रोग्राम है. यहाँ जो कुछ भी देखूंगा... महसूस करूँगा... आप सबों को बताते रहने की कोशिश करूँगा.
कल रात जब लाहौर एअरपोर्ट से बाहर निकला ततो एक शख्स ने बड़े प्यार और जोश से पूछा... आप इंडिया से आए हैं? मैंने कहा... जी. जवाब सुनते ही उनके साथ खड़े दूसरे लोगों की आँखों में चमक सी आ गयी. उनके चेहरे के भाव से लगा कि अपने इंडियन भाइयों को देख यहाँ की आवाम किस तरह खुश होती है...जैसे उनका कोई बिछड़ा भाई उनसे मिला हो!
फिर मिलता हूँ
Wednesday, October 24, 2007
Tuesday, October 16, 2007
महानता की ओर बढ़ते कदम
नेताओं के महान बनने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। आधुनिक भारतीय नेतृत्व के इतिहास में ये सिर्फ दूसरा मौक़ा है जब कोई नेता अपने कार्मिक वजहों से महानता प्राप्त कर सकता है... और काफी हद तक कर भी रहा है।
ऐसा एक मौक़ा था देश की आज़ादी के पहले, जब देश को आज़ाद कराने का मक़सद हमारे उस समय के अगुवों के सामने था। उन्हें हिंसा-अहिंसा जैसे रास्तों पर चल कर हमारे देश को आज़ाद कराया। इस क्रम में उन्होंने लाठियां खायीं, कई-कई बार जेल गए, प्रताड़ना झेली, फांसी पर चढ़े... और तब जा कर महान कहलाए। कुछ ने सामाजिक कुरीतियों से लड़ कर महानता पायी।
आज के हालात अलग हैं। स्वतंत्रता आज हमारी चेरी है। हम सभी अपने अपने ढंग से स्वतंत्र हैं। हम उसमें उसी से खेल रहे हैं। सो और स्वतंत्रता प्राप्त करने की ज़रुरत हमारे नेताओं के सामने नहीं है। आने वाले कई सालों तक हमारी ग़ुलामी की कोई उम्मीद भी नहीं है कि हम अभी से किसी नए स्वतंत्रता आंदोलन की तैयारी करें। अगर हम ग़ुलाम हुए भी तो वो ग़ुलामी पिछली ग़ुलामी जैसी नहीं होगी। हमारे पास सुख सुविधा के तमाम साधन होंगे। बस सोच अपनी नहीं होगी। तंत्र भी संभवत: अपना ही होगा लेकिन उसे चलाने वाला तांत्रिक कोई और होगा। 'इह' लोकतंत्र से हम 'पर' लोकतंत्र में होंगे। स्वर्ग सा आनंद लूटेंगे। तो फिर स्वतंत्रता आंदोलन की बात कैसी और नेताओं के महान बनने का मौक़ा कैसा।
रही सामाजिक कुरीतियों से लड़ कर महान बनने की बात तो उसमें भी अब सीमित स्कोप है। कुरीति समझी जाने वाली कई रीतियों को तो अब सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। ख़ासतौर पर लेनदेन संबंधी रीतियों को। समय-साल के हिसाब से नए-नए कंसेप्ट उभर कर सामने आ रहे हैं। इनमें चीज़ों को नए ढंग से व्याख्यित-परिभाषित किया जा रहा है। कल तक जो अनैतिक था, आज अलग-अलग तर्कों के सहारे नैतिक है। व्यक्तिगत लक्ष्यों के प्रति पूरा समर्पण ही आजकल नैतिकता बन गई है। ऐसे समय में नेता लोग किसे सुरीति माने और किसे कुरीति और किसे मिटा कर अपनी महानता दिखाएं? लेकिन महान तो बनना है चाहे इसके लिए महानता की नई परिभाषा ही क्यों ना गढ़नी पड़े। महानता की ओर ले जाने वाले कदमों को पुनर्निधारण ही क्यों न करना पड़े। सच है कि हर कोई अपने अपने ढंग से महान बनने की सोचता और जुगत भिड़ाता है। इसमें मीडिया उसकी सहायता के लिए बैठा है।
बिना पब्लिक के जे जाने गुप चुप तरीक़े से महान तो बना नहीं जा सकता। इसलिए परंपरागत छुटभैय्येपन से मुक्ति पानी होगी। लीक से हट कर कुछ नया करना होगा। या फिर मर जाना होगा क्योंकि बुरा से बुरा नेता भी मरने के बाद महान हो जाता है।
धोती कुरता पहन कर, किसी विचारधारा का चोगा ओढ़ कर, देश के लिए बिना मांगे जान देने की बात भर करने से अब नोटिस नहीं मिलती। अच्छी योजनाएं भी बनीं, शिलान्यास भी हुआ, काग़ज़ की नाव भी बनी, उसे प्लेन की तरह कुछ देर हवा में उड़ाया भी गया... लेकिन नाम न मिला। पिछले कई साल से बंधुआ मज़दूरी मिटाने, जनसंख्या क़ाबू करने और पर्यावरण बचाने की बात की... जनता ने ध्यान नहीं दिया। वर्षों प्राईम-मिनिस्टर रहे, मंत्रिमंडल में कई फेरबदल किए, देश चलाया, तनावों से जूझते दिखे और किंचित आध्यात्मिकता भी दिखाई... लेकिन इन सबसे महान बनने में कोई सहूलियत नहीं मिली।
अचानक कुछ घोटाले-कारगुज़ारियों के पन्ने फड़फड़ाए... हवाला, चारा, रिश्वत, जालसाज़ी...। श्रृंखला की एक से एक कड़ी। कैमरे की लाईटें चमकीं। कलम उठे। विरोध में ही सही, लिखा-बोला जाने लगा। अदालत आते-जाते समय टीवी पर दिखाए जाने लगे। जेल तक की नौबत आयी। पहले तो ख़राब लगा। फिर याद आया कि जेल यात्रा से ही तो महानता की जड़ को मज़बूती मिलती है।
फिर तो संकट का ये काल वरदान-सा लगने लगा। अपने प्रभाव को दिखा कर अपनी महत्ता बरक़रार रखने का... उसे बताने का सुअवसर है यह। कैसे करोड़पति लखपति बना जाता है इसका नज़ीर पेश कर जनता को प्रेरित किया जा सकता है। चोरी कर सीनाज़ोरी को महिमामंडित कर भी महान बना जा सकता है। नेताओं के वक्तव्यों में, इसकी झलक साफ देखी जा सकती है...अगर आंखे खोल कर देखें तो। सचमुच, भौतिक-उपभोक्तावादी आधुनिक भारत के महान व्यक्तित्व बनने जा रहे हैं वो!
(25दिसंबर1996 की मेरी डायरी का एक पन्ना)
ऐसा एक मौक़ा था देश की आज़ादी के पहले, जब देश को आज़ाद कराने का मक़सद हमारे उस समय के अगुवों के सामने था। उन्हें हिंसा-अहिंसा जैसे रास्तों पर चल कर हमारे देश को आज़ाद कराया। इस क्रम में उन्होंने लाठियां खायीं, कई-कई बार जेल गए, प्रताड़ना झेली, फांसी पर चढ़े... और तब जा कर महान कहलाए। कुछ ने सामाजिक कुरीतियों से लड़ कर महानता पायी।
आज के हालात अलग हैं। स्वतंत्रता आज हमारी चेरी है। हम सभी अपने अपने ढंग से स्वतंत्र हैं। हम उसमें उसी से खेल रहे हैं। सो और स्वतंत्रता प्राप्त करने की ज़रुरत हमारे नेताओं के सामने नहीं है। आने वाले कई सालों तक हमारी ग़ुलामी की कोई उम्मीद भी नहीं है कि हम अभी से किसी नए स्वतंत्रता आंदोलन की तैयारी करें। अगर हम ग़ुलाम हुए भी तो वो ग़ुलामी पिछली ग़ुलामी जैसी नहीं होगी। हमारे पास सुख सुविधा के तमाम साधन होंगे। बस सोच अपनी नहीं होगी। तंत्र भी संभवत: अपना ही होगा लेकिन उसे चलाने वाला तांत्रिक कोई और होगा। 'इह' लोकतंत्र से हम 'पर' लोकतंत्र में होंगे। स्वर्ग सा आनंद लूटेंगे। तो फिर स्वतंत्रता आंदोलन की बात कैसी और नेताओं के महान बनने का मौक़ा कैसा।
रही सामाजिक कुरीतियों से लड़ कर महान बनने की बात तो उसमें भी अब सीमित स्कोप है। कुरीति समझी जाने वाली कई रीतियों को तो अब सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। ख़ासतौर पर लेनदेन संबंधी रीतियों को। समय-साल के हिसाब से नए-नए कंसेप्ट उभर कर सामने आ रहे हैं। इनमें चीज़ों को नए ढंग से व्याख्यित-परिभाषित किया जा रहा है। कल तक जो अनैतिक था, आज अलग-अलग तर्कों के सहारे नैतिक है। व्यक्तिगत लक्ष्यों के प्रति पूरा समर्पण ही आजकल नैतिकता बन गई है। ऐसे समय में नेता लोग किसे सुरीति माने और किसे कुरीति और किसे मिटा कर अपनी महानता दिखाएं? लेकिन महान तो बनना है चाहे इसके लिए महानता की नई परिभाषा ही क्यों ना गढ़नी पड़े। महानता की ओर ले जाने वाले कदमों को पुनर्निधारण ही क्यों न करना पड़े। सच है कि हर कोई अपने अपने ढंग से महान बनने की सोचता और जुगत भिड़ाता है। इसमें मीडिया उसकी सहायता के लिए बैठा है।
बिना पब्लिक के जे जाने गुप चुप तरीक़े से महान तो बना नहीं जा सकता। इसलिए परंपरागत छुटभैय्येपन से मुक्ति पानी होगी। लीक से हट कर कुछ नया करना होगा। या फिर मर जाना होगा क्योंकि बुरा से बुरा नेता भी मरने के बाद महान हो जाता है।
धोती कुरता पहन कर, किसी विचारधारा का चोगा ओढ़ कर, देश के लिए बिना मांगे जान देने की बात भर करने से अब नोटिस नहीं मिलती। अच्छी योजनाएं भी बनीं, शिलान्यास भी हुआ, काग़ज़ की नाव भी बनी, उसे प्लेन की तरह कुछ देर हवा में उड़ाया भी गया... लेकिन नाम न मिला। पिछले कई साल से बंधुआ मज़दूरी मिटाने, जनसंख्या क़ाबू करने और पर्यावरण बचाने की बात की... जनता ने ध्यान नहीं दिया। वर्षों प्राईम-मिनिस्टर रहे, मंत्रिमंडल में कई फेरबदल किए, देश चलाया, तनावों से जूझते दिखे और किंचित आध्यात्मिकता भी दिखाई... लेकिन इन सबसे महान बनने में कोई सहूलियत नहीं मिली।
अचानक कुछ घोटाले-कारगुज़ारियों के पन्ने फड़फड़ाए... हवाला, चारा, रिश्वत, जालसाज़ी...। श्रृंखला की एक से एक कड़ी। कैमरे की लाईटें चमकीं। कलम उठे। विरोध में ही सही, लिखा-बोला जाने लगा। अदालत आते-जाते समय टीवी पर दिखाए जाने लगे। जेल तक की नौबत आयी। पहले तो ख़राब लगा। फिर याद आया कि जेल यात्रा से ही तो महानता की जड़ को मज़बूती मिलती है।
फिर तो संकट का ये काल वरदान-सा लगने लगा। अपने प्रभाव को दिखा कर अपनी महत्ता बरक़रार रखने का... उसे बताने का सुअवसर है यह। कैसे करोड़पति लखपति बना जाता है इसका नज़ीर पेश कर जनता को प्रेरित किया जा सकता है। चोरी कर सीनाज़ोरी को महिमामंडित कर भी महान बना जा सकता है। नेताओं के वक्तव्यों में, इसकी झलक साफ देखी जा सकती है...अगर आंखे खोल कर देखें तो। सचमुच, भौतिक-उपभोक्तावादी आधुनिक भारत के महान व्यक्तित्व बनने जा रहे हैं वो!
(25दिसंबर1996 की मेरी डायरी का एक पन्ना)
Saturday, October 13, 2007
ईद पर सोनिया गांधी की बधाई सिर्फ मुसलमानों को!
ईद सिर्फ मुसलमानों की है। सभी देशवासियों की नहीं। कम से कम कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को यही लगता है। तभी कांग्रेस मुख्यालय से उनके नाम से मोबाईल पर जो संदेश आया है वो सिर्फ मुसलमान भाईयों और बहनों के लिए ही है। पूरा टेक्स्ट इस तरह है:
"On the occasion of Eid-ul-Fitr I would like to greet all our muslim brothers and sisters. May this festival bring peace and harmony."
Sender: SoniaGandhi
sent:13-Oct-2007
19:56:57
अब ये सोनिया के ख़ुद के शब्द हैं या फिर उनके क़ाबिल सलाहकारों के, ये तो कांग्रेस ही जाने। लेकिन ये उंचे पदों पर बैठे व्यक्तित्वों की तरफ से जारी होने वाले शुभकामना संदेशों के एकदम अलग है। ईद मेरे घर में भी मनायी जा रही है। लेकिन मुझे शुभकामना क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं हिंदू हूं? तो फिर हिंदुओं के मोबाईल पर संदेश ही क्यों? वाह सोनिया जी! वाह कांग्रेस!
होता ये आया है कि त्यौहारों के मौक़े पर इन लोगों की तरफ से देशवासियों को बधाई दी जाती है। लेकिन लगता है ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की कोशिश में कांग्रेस ने पर्व त्यौहारों पर मुंह-देखी बात करनी शुरु कर दी है। चुनाव जो आने वाला है। लेकिन उससे पहले दशहरा और दीवाली आने वाले हैं। अब सोनिया से क्या उम्मीद करें कि इन मौक़ों पर उनके संदेश में सिर्फ हिन्दू भाईयों और बहनों को शुभकामनाएं होंगी? अगर नहीं तो क्यों? अगर हां तो क्यों?
कांग्रेस या तो भूल सुधारे या फिर दे कोई जवाब।
Friday, October 12, 2007
कोई बताए ये बच्चा हिंदू है या मुसलमान!
नाम- अज़ीज़ तहसीन, उम्र- 10 साल, कक्षा- 5वीं, दिलचस्पी- संस्कृत। हैरान ना हों। अज़ीज़ तहसीन एक ऐसी मिसाल पेश करता है जिसे देख कर हम और आप सीख सकते हैं। दिल्ली में साकेत के एमेटी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ने वाले अज़ीज़ की संस्कृत में गहरी दिलचस्पी है। स्कूली क़िताब के साथ साथ गीता के भी कई श्लोक उसे कंठस्थ है। उसे श्लोक पढ़ता देख एक अलग तरह की अनुभूति होती है। शायद ये इसलिए भी क्योंकि अज़ीज़ की मां सैय्यद मुबीन ज़ेहरा और पिता तहसीन मुनव्वर का ख़ुद का भारतीय संस्कृति में भरोसा है... अकेले हिन्दू या मुसलमान जैसे पंथ में नहीं। ज़ाहिर है कि अज़ीज़ की परवरिश एक मुसलमान नहीं भारतीय परिवार में हो रही है। हिंदू, हिंदुत्व और हिंदूवाद पर अपनी रोटी सेंकने वाले भी अगर इसे देखें तो शायद उनमें भी क़ुरान और मुसलमान को जानने-समझने की इच्छा और ताक़त पैदा हो सके। उनके लिए इस ईद औऱ दीवाली का यही तोहफ़ा है मेरी तरफ से।
अज़ीज़ को सुनने-देखने के लिए नीचे क्लिक करें। ये ईटीवी पर प्रसारित एक स्टोरी है जो मैंने यूट्यूब के सौजन्य से लिया है।
http://www.youtube.com/watch?v=zBLCcyAmSkE
अज़ीज़ से सीधी बात भी की जा सकती है azeeztehseen@gmail.com पर।
शुक्रिया।
अज़ीज़ को सुनने-देखने के लिए नीचे क्लिक करें। ये ईटीवी पर प्रसारित एक स्टोरी है जो मैंने यूट्यूब के सौजन्य से लिया है।
http://www.youtube.com/watch?v=zBLCcyAmSkE
अज़ीज़ से सीधी बात भी की जा सकती है azeeztehseen@gmail.com पर।
शुक्रिया।
Friday, October 5, 2007
छक्कों पर करोड़ों लुटाने वालों, शहीदों को भी देखो!
मेजर दिनेश रघुरमण और मेजर के.पी. विनय ने कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहादत दे दी। शहीद होने के पहले इन्होंने कम से कम नौ आतंकवादियों को मार गिराया। तीन दिन हो गए लेकिन लगता नहीं कि किसी ने भी इनकी शहादत को अभी तक नोटिस किया है। सेना का विभागीय सम्मान और मदद अपनी जगह। लेकिन ना तो खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली पार्टी बीजेपी, सेकुलर होने का राग अलापने वाली कांग्रेस, अमिताभ के सम्मान की ख़ातिर सोनिया से भिड़ने वाले अमर सिंह, आतंकवाद के खिलाफ भौंहे तान फोटो खिंचवाने वाले नरेन्द्र मोदी या खिलाड़ियों को जर और ज़मीन बांटने वाले हरियाणा या झारखंड जैसे किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री.... किसी की भी तरफ से सम्मान के दो बोल अब तक सामने नहीं आए हैं।
जम्मू औऱ कश्मीर में जवान से लेकर अफ़सर तक जान की बाज़ी लगाते रहते हैं। ये सच है कि कुर्बानी ईनाम के लिए नहीं दी जाती। लेकिन एक तरफ ये नायक अपनी गोलियों से देश के दुश्मनों को मारते हैं तो भी ख़ामोशी पसरी रहती। दूसरी तरफ बैट से निकलने वाले छक्कों पर करोड़ों बरसते हैं। सम्मान में मंच सजते हैं। कारवां निकलता है। पर सोचिए। देश का मान असल में कौन बढ़ा रहे हैं?
देश के इन वीर सपूतों को हमारी श्रद्धांजलि!!!
जम्मू औऱ कश्मीर में जवान से लेकर अफ़सर तक जान की बाज़ी लगाते रहते हैं। ये सच है कि कुर्बानी ईनाम के लिए नहीं दी जाती। लेकिन एक तरफ ये नायक अपनी गोलियों से देश के दुश्मनों को मारते हैं तो भी ख़ामोशी पसरी रहती। दूसरी तरफ बैट से निकलने वाले छक्कों पर करोड़ों बरसते हैं। सम्मान में मंच सजते हैं। कारवां निकलता है। पर सोचिए। देश का मान असल में कौन बढ़ा रहे हैं?
देश के इन वीर सपूतों को हमारी श्रद्धांजलि!!!
Wednesday, October 3, 2007
भारतीय शेरों के ढ़ेर होने पर इक शेर!
कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे आप शब्दों के ज़रिए बयां ना कर सकें। बस लहज़ा ढ़ूंढने भर की ज़रुरत है। 20-20 जीत कर आए भारतीय शेर 50-50 में ढ़ेर हो गए। हालांकि आस्ट्रेलिया के साथ सीरीज़ का पहला मैच बारिश की भेंट चढ़ गया औऱ ड्रा हो गया। नहीं तो अभी तक 2-0 से पीछ होते। दूसरे मैच में भारतीय टीम के ख़राब प्रदर्शन के बाद तहसीन मुनव्वर ने लिखा है...
"दिन जो निकला हो तो फिर रात नहीं होती है
जो भी हो बात, वो बिन बात नहीं होती है।
टीम इंडिया को हमें खुल के बताना होगा
हर एक मैच में बरसात नहीं होती है!"
सुन रहे हो धोनी और युवराज!
"दिन जो निकला हो तो फिर रात नहीं होती है
जो भी हो बात, वो बिन बात नहीं होती है।
टीम इंडिया को हमें खुल के बताना होगा
हर एक मैच में बरसात नहीं होती है!"
सुन रहे हो धोनी और युवराज!
"आम आदमी का हाथ, अपराधियों के साथ"
लोकसभा चुनाव के पुन: मंडराते सत्य को देखते हुए भारत की जनता ने एक मीटिंग का आयोजन किया। मक़सद ये रहा कि इस बार सरकार बनाने के लिए कैसे लोगों को सांसद चुना जाए। इस मीटिंग में देश के कोने कोने से और हर तबके के लोग शामिल हुए। तमाम प्रकार की मीटिंग्स की 'आम प्रकृति' के विपरीत यह एक अद्वितीय मीटिंग थी जिसमें लिए गए फ़ैसले बिल्कुल समयानुकूल रहे।
दिल्ली चलो के बैनर तले लोग ट्रेन भर भर के दिल्ली आए। फिर भी सबों ने रेल का पूरा-पूरा किराया दिया। ताकि लालू जी के मुनाफ़े में कोई कमी ना आए। वे आरक्षित डिब्बे में भी नहीं घुसे। अनुशासित व्यवहार किया। सभी शांतिपूर्वक सभा-स्थल तक पहुंचे। मीटिंग के दौरान और पश्चात भी जूतमपैज़ार की कोई नौबत नहीं आयी। बिना किसी विशेष बहस या गहन विचार-विमर्श के मीटिंगकर्ता एक नतीज़े पर पहुंच गए। किसी ने भी अलग राग नहीं अलापा। मतभिन्नता प्रकट नहीं की। इस प्रकार ये प्रयास सफल होता प्रतीत हुआ।
पहली बार देश की सम्पूर्ण जनता किसी मुद्दे पर एकमत हुई है। शायद इसलिए भी कि अब कोई दूसरा चारा नहीं बचा है। देश की व्यवस्था के मूल को तो वो पहले से ही समझ रही थी। इस मीटिंग की उपलब्धि ये रही कि उसे स्वीकार भी लिया गया। तय हुआ कि अब औऱ मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए। समय आ गया है जब 'समय की मांग' को ध्यान में रख कर ही कदम उठाएं जाएं। अभी तक सांसद बनने वाले अधिकतर नेता नक़ाब ओढ़ते रहे हैं। इससे उन्हें समझने में भोली जनता को कठिनाई होती है। जनता को समझाने के लिए नेताओं को भी प्रपंचों का सहारा लेना पड़ता है। अत क्यों ना इस मजबूरी को मिटा दिया जाए। नेताओं को अपने असली रुप में सामने आने का मौक़ा दिया जाए।
तो सर्वसम्मति से यही फ़ैसला लिया गया कि उम्मीदवार चाहे जिस भी किसी पार्टी का हो, या उसे अघोषित अंतरंग संबंध रखता हो, सांसद चुने जाने के योग्य समझे जाएंगे बशर्ते आगे लिखे मापदंडों पर खरे उतरते हों।
इस बार आदर्श-मूल्यों आदि की बात करना ग़लत तरीक़े से सांसद चुने जाने का प्रयास माना जाएगा। इसलिए इस बार वही उम्मीदवार सफल होगें जो आपराधिक कार्यवृति या मनोवृति के हों। हर तरह के अपराध करने में सक्षम हों। उनका पढ़ा-लिखा होना तो अब तक ज़रुरी नहीं ही था... इस बार पुलिस रिकार्ड में फिंगर प्रिंट वाले को प्राथमिकता दी जाएगी। साथ ही, झूठे गवाह तैयार करने, प्रतिद्वंद्वियों को फंसाने, पुलिस से मिलीभगत रखने जैसे कामों में दक्ष उम्मीदवार प्रिय पात्र होंगे।
इस विकासशील देश के भावी सांसदों को हर प्रकार के अपराध करने का अनुभव होना अनिवार्य है। इस क्षेत्र में नई तकनीकी का इस्तेमाल करने, जैसे तंदूरी हत्या, करने वाले केन्द्र बिंदु में रहेंगे। सज़ायाफ्ता या हिस्ट्रीशीटर निर्विरोध चुन लिए जाएंगे। प्रेरणा के लिए अतीक अहमद, मोहम्मद शहाबुद्दीन, पप्पू यादव जैसे नेताओं की मोम की प्रतिमा संसद के गलियारे में लगायी जाएंगी। अमिताभ और शाहरुख़ से भी कोमल प्रतिमाएं... ताकि इनके सामने ग़लती से भी कोई आदर्श और मूल्यों की बात करे तो प्रतिमाएं शर्म से गल जाएं। और सच्चे आदर्शवादी नेता मौक़े पर ही पकड़े जाएं।
देश की जनता ने महसूस किया है कि मतदान के दौरान बूथ कैप्चरिंग आदि में सौ झमेले हैं। नाहक निर्दोषों की जान चली जाती है। उम्मीदवारों पर आरोप प्रत्यारोप लगते हैं और चुनाव आयोग का समय ख़राब होता है। इसलिए इस बार प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार की जगह लाउडिस्पीकर से ये बताना होगा कि मतदाताओं को वोट डालने बूथ तक जाना है या नहीं। अगर नहीं जाना तो और अच्छी बात है। वे आराम से घर पर बैठ एमटीवी देखें और लहर नमक़ीन खाकर मतदान तिथि को सेलिब्रेट करें। उधर प्रत्याशीगण यथाशक्ति वोटों का बंटवारा कर लें। इससे गोली बारूद के पैसे बचेंगे। इन पैसों से नेता और उनके प्यादों को दारू की और बोतलें मिल सकेंगी।
इन बातों के अलावा, जिन नेताओं की आपराधिक पृष्ठभूमि संतोषप्रद नहीं रही है, लेकिन इस विषय में कुछ कर गुज़रने की जिनकी गहरी महत्वाकांक्षा है, उनके लिए भी जनता ने संसद के दरवाज़े खुले रखने का फ़ैसला किया है। शर्त सिर्फ यही कि चुनाव होने के ऐन पहले तक वे अपनी योग्यता साबित कर दें।
अंत में, भारतीय जनता की सिर्फ एक विनती है। संसद में पहुंचने के बाद एकाध करोड़ जैसी छोटी मोटी रकम के लिए भ्रष्टाचार की गरिमा को क्षति ना पहुंचाएं। सेज़, रिटेल सेक्टर में विदेशी कंपनियां, हवाई अड्डों के निजीकरण जैसे बड़े मौक़े हैं। हमेशा अरबों में खेलने की कोशिश करें। जनता का नारा है, "आम आदमी का हाथ, अपराधियों के साथ"।
आप भी लगाइए।
दिल्ली चलो के बैनर तले लोग ट्रेन भर भर के दिल्ली आए। फिर भी सबों ने रेल का पूरा-पूरा किराया दिया। ताकि लालू जी के मुनाफ़े में कोई कमी ना आए। वे आरक्षित डिब्बे में भी नहीं घुसे। अनुशासित व्यवहार किया। सभी शांतिपूर्वक सभा-स्थल तक पहुंचे। मीटिंग के दौरान और पश्चात भी जूतमपैज़ार की कोई नौबत नहीं आयी। बिना किसी विशेष बहस या गहन विचार-विमर्श के मीटिंगकर्ता एक नतीज़े पर पहुंच गए। किसी ने भी अलग राग नहीं अलापा। मतभिन्नता प्रकट नहीं की। इस प्रकार ये प्रयास सफल होता प्रतीत हुआ।
पहली बार देश की सम्पूर्ण जनता किसी मुद्दे पर एकमत हुई है। शायद इसलिए भी कि अब कोई दूसरा चारा नहीं बचा है। देश की व्यवस्था के मूल को तो वो पहले से ही समझ रही थी। इस मीटिंग की उपलब्धि ये रही कि उसे स्वीकार भी लिया गया। तय हुआ कि अब औऱ मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए। समय आ गया है जब 'समय की मांग' को ध्यान में रख कर ही कदम उठाएं जाएं। अभी तक सांसद बनने वाले अधिकतर नेता नक़ाब ओढ़ते रहे हैं। इससे उन्हें समझने में भोली जनता को कठिनाई होती है। जनता को समझाने के लिए नेताओं को भी प्रपंचों का सहारा लेना पड़ता है। अत क्यों ना इस मजबूरी को मिटा दिया जाए। नेताओं को अपने असली रुप में सामने आने का मौक़ा दिया जाए।
तो सर्वसम्मति से यही फ़ैसला लिया गया कि उम्मीदवार चाहे जिस भी किसी पार्टी का हो, या उसे अघोषित अंतरंग संबंध रखता हो, सांसद चुने जाने के योग्य समझे जाएंगे बशर्ते आगे लिखे मापदंडों पर खरे उतरते हों।
इस बार आदर्श-मूल्यों आदि की बात करना ग़लत तरीक़े से सांसद चुने जाने का प्रयास माना जाएगा। इसलिए इस बार वही उम्मीदवार सफल होगें जो आपराधिक कार्यवृति या मनोवृति के हों। हर तरह के अपराध करने में सक्षम हों। उनका पढ़ा-लिखा होना तो अब तक ज़रुरी नहीं ही था... इस बार पुलिस रिकार्ड में फिंगर प्रिंट वाले को प्राथमिकता दी जाएगी। साथ ही, झूठे गवाह तैयार करने, प्रतिद्वंद्वियों को फंसाने, पुलिस से मिलीभगत रखने जैसे कामों में दक्ष उम्मीदवार प्रिय पात्र होंगे।
इस विकासशील देश के भावी सांसदों को हर प्रकार के अपराध करने का अनुभव होना अनिवार्य है। इस क्षेत्र में नई तकनीकी का इस्तेमाल करने, जैसे तंदूरी हत्या, करने वाले केन्द्र बिंदु में रहेंगे। सज़ायाफ्ता या हिस्ट्रीशीटर निर्विरोध चुन लिए जाएंगे। प्रेरणा के लिए अतीक अहमद, मोहम्मद शहाबुद्दीन, पप्पू यादव जैसे नेताओं की मोम की प्रतिमा संसद के गलियारे में लगायी जाएंगी। अमिताभ और शाहरुख़ से भी कोमल प्रतिमाएं... ताकि इनके सामने ग़लती से भी कोई आदर्श और मूल्यों की बात करे तो प्रतिमाएं शर्म से गल जाएं। और सच्चे आदर्शवादी नेता मौक़े पर ही पकड़े जाएं।
देश की जनता ने महसूस किया है कि मतदान के दौरान बूथ कैप्चरिंग आदि में सौ झमेले हैं। नाहक निर्दोषों की जान चली जाती है। उम्मीदवारों पर आरोप प्रत्यारोप लगते हैं और चुनाव आयोग का समय ख़राब होता है। इसलिए इस बार प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार की जगह लाउडिस्पीकर से ये बताना होगा कि मतदाताओं को वोट डालने बूथ तक जाना है या नहीं। अगर नहीं जाना तो और अच्छी बात है। वे आराम से घर पर बैठ एमटीवी देखें और लहर नमक़ीन खाकर मतदान तिथि को सेलिब्रेट करें। उधर प्रत्याशीगण यथाशक्ति वोटों का बंटवारा कर लें। इससे गोली बारूद के पैसे बचेंगे। इन पैसों से नेता और उनके प्यादों को दारू की और बोतलें मिल सकेंगी।
इन बातों के अलावा, जिन नेताओं की आपराधिक पृष्ठभूमि संतोषप्रद नहीं रही है, लेकिन इस विषय में कुछ कर गुज़रने की जिनकी गहरी महत्वाकांक्षा है, उनके लिए भी जनता ने संसद के दरवाज़े खुले रखने का फ़ैसला किया है। शर्त सिर्फ यही कि चुनाव होने के ऐन पहले तक वे अपनी योग्यता साबित कर दें।
अंत में, भारतीय जनता की सिर्फ एक विनती है। संसद में पहुंचने के बाद एकाध करोड़ जैसी छोटी मोटी रकम के लिए भ्रष्टाचार की गरिमा को क्षति ना पहुंचाएं। सेज़, रिटेल सेक्टर में विदेशी कंपनियां, हवाई अड्डों के निजीकरण जैसे बड़े मौक़े हैं। हमेशा अरबों में खेलने की कोशिश करें। जनता का नारा है, "आम आदमी का हाथ, अपराधियों के साथ"।
आप भी लगाइए।
Monday, October 1, 2007
हम तो खड़े वहीं रहे, हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
तेज़ी से बदलती दुनिया में अगर आप अपनी ज़िंदगी में ठहराव महसूस करते हैं तो ये कविता... जो कि हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है?... आपके लिए है। जैसे कि आप बेशक अपना हैंडसेट ना बदल पाए हों पर हचुशन-एस्सार से जो हच बना, वो अब वोडाफ़ोन बन गया...कुछ इसी तरह के बदलावों और ठहरावों को दर्शाने की कोशिश की गई है यहां।
कौन छोटा बना रहा
बड़ा कौन हो गया
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
लाटों की फौज भी चाहते
काम के कुछ सिपाही
जिनके बूते दे सकें
वे अपने अस्तित्व की दुहाई
इतने लब बोले
कि मन मौन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
दुनिया ने देखे हैं
बड़े बड़े जलजले
कई हिटलर आए
और मुबारक़ भी पिट गए
लोकतंत्र आया तो
चौधरी कौन-कौन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
हर तरफ आ रहा
कुछ ना कुछ बदलाव
पर हमें चिढ़ा रहा
अपने हिस्से का ठहराव
हैंडसेट भी वही रहा
नेटवर्क भी धोखा दे रहा
उधर, कुत्ते ने भी घर बदला
बदन झिड़क के चल दिया।
जहां पहले बेडरुम था
वहां लॉन हो गया
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!!
कौन छोटा बना रहा
बड़ा कौन हो गया
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
लाटों की फौज भी चाहते
काम के कुछ सिपाही
जिनके बूते दे सकें
वे अपने अस्तित्व की दुहाई
इतने लब बोले
कि मन मौन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
दुनिया ने देखे हैं
बड़े बड़े जलजले
कई हिटलर आए
और मुबारक़ भी पिट गए
लोकतंत्र आया तो
चौधरी कौन-कौन हो गया।
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!
हर तरफ आ रहा
कुछ ना कुछ बदलाव
पर हमें चिढ़ा रहा
अपने हिस्से का ठहराव
हैंडसेट भी वही रहा
नेटवर्क भी धोखा दे रहा
उधर, कुत्ते ने भी घर बदला
बदन झिड़क के चल दिया।
जहां पहले बेडरुम था
वहां लॉन हो गया
विस्तार की लड़ाई में
सवाल गौण हो गया।
हम तो खड़े वहीं रहे
हच भी वोडाफ़ोन हो गया!!
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