Wednesday, June 27, 2007

"तुम"

स्मृतियों के मरुप्रदेश में
आत्मिक मित्र की तलाश।

कई मुखाकृतियां...।
निज कर्मों में लिप्त सभी।
मृगमरीचिका।

तुम।
एक सुखद अनुभूति।
संतप्त हृदय में
एक सुसीत सी छवि।

कोई घनिष्ठता नहीं,
संभवत:
मित्रता भी नहीं।

तथापि
मन मस्तिष्क में
प्रतिध्वनित,
चंद शब्द।

विरल मिलन के
कुछ
अविस्मरणीय क्षण।

सूक्ष्म आत्मिक बंधन में
आबद्ध।
तुम,
सदा... सर्वदा...!

Saturday, June 23, 2007

आईए, ब्लॅागर्स की बधाई सुनीता तक पहुंचाएं!


सुनीता विलियम्स

अपने 6 सहयोगियों के साथ

धरती पर सुरक्षित लौट आईं हैं।

आईए, हम सब ब्लॅागर मिल कर उन्हें

अपने इस मिशन की क़ामयाबी पर बधाई दें!!

हम सब इसमें अपना नाम जोड़ें। इसे सुनीता तक पहुंचाएंगे।

Friday, June 22, 2007

लालू जी, मेरी 'सेक्स समस्या' दूर कीजिए!

बचपन में हुई ग़लतियों का ख़ामियाज़ा अक्सर जवानी में उठाना पड़ता है। मुझे भी पड़ा है। जबकि बचपन में मैंने ऐसी कोई ग़लती भी नहीं की। ये तो मेरे दादाजी थे जिन्होंने मेरा नाम उमाशंकर रख दिया। इस नाम के साथ बड़ा होता गया। ग़लती तब भी नहीं की। बस ग़लती एक हुई। एक बार रेल टिकट कटाने ख़ुद न जाकर अपने किसी जानकार को भेज दिया। ग़लती उससे भी नहीं हुई। वो टिकट लेकर आ गया।

मैं खुशी-खुशी ट्रेन में बैठ गया। रास्ते में पता नहीं कहां टीटीई आया। मैं ऊपर की बर्थ पर सो रहा था। उसने पहले बहुत आवाज़ दी होगी। मैं चादर तान के सोता रहा। वो और तेज़ चिल्लाया। मैं उठ बैठा। उसने तल्ख होकर कहा टिकट दिखाइए। मैने दिखा दिया। बोला इस टिकट पर आप कैसे सफर कर रहे हैं। मैंने ताज्जुब से पूछा क्यों? फिर क्या हवाई जहाज के टिकट पर सफ़र करें। उसने पलटवार किया। आप हवाई जहाज की टिकट पर बेशक ना करें लेकिन किसी महिला की टिकट पर भी सफ़र ना करें। पढ़े लिखे लगते हैं। शोभा नहीं देता।

मेरा माथा ठनका। मैंने कहा पर टिकट तो मेरी ही है। चार्ट में देख लीजिए। उमाशंकर सिंह लिखा होगा। चेकर ने फिर मुझ पर शक की निगाह मारी। बोला क्यों बहस कर रहे हैं। ये बर्थ उमा सिंह के नाम पर है और चार्ट में साफ साफ लिखा है 'एफ' 30। यानि तीस साल की महिला उमा सिंह का टिकट है ये।

मुझे माजरा समझते देर नहीं लगा। मैने अपना आईकार्ड वाईकार्ड निकाला। पर वो देखने को तैयार ही नहीं हुआ। टिकट में सेक्स के खाने में 'मेल' के 'एम' की जगह 'फीमेल' का 'एफ' लिखा जाना मेरे लिए बड़ी समस्या बन गयी। ग़ाज़ियाबाद के आसपास से ट्रेन में गुज़रते हुए दीवारों पर कई तरह की सेक्स समस्याओं के बारे में पढ़ा था। पर ये तो बिल्कुल नई तरह की सेक्स समस्या थी। इलाज़ के लिए कोई ताकतवाला ही चाहिए था... रेलवे का कोई बड़ा अधिकारी। पर समझ नहीं आया किसे फोन करुं। इस मर्ज की कहां से दवा लाऊं। '28 रैगरपुरा' में भी शायद ही मिले।

समझाने की कोशिश की कि ग़लती रेलवे की है। जिसने टिकट काटा उसने कम्प्यूटर में ग़लत लिख दिया होगा। शायद मेरे लंबे नाम को थोड़ा छोटा करने के लिए। जेनेरली मेरे नाम को या तो 'यू एस सिंह' कर देते हैं या फिर 'उमाशंकर' लिख कर ही छोड़ देते हैं। सिंह नहीं लगाते। पर उमा सिंह तो मेरे लिए भी नया नाम था। रिजर्वेशन फार्म मैंने अपने हाथों से ही भर जानकार को दिया था। सो यहां भी ग़लती की गुंजाइश कम होगी। तो जब मैंने ऐसी कोई ग़लती नहीं की तो मेरा क्या क़सूर। किसी और की ग़लती की सज़ा मुझे ना दें। ये टिकट मेरी ही है। तब तक एक दो सहयात्री मेरे फेवर में आए गए थे। उन्होने टीटीई को समझाया कि ये जब से चढ़े हैं मेल ही चढ़े हैं। फीमेल नहीं। आप मान जाईए। टीटीई साहब मुश्किल से माने।

सेक्स को लेकर मेरी ये समस्या एकाध मौक़ों पर और हुई है। आगे ना हो इसलिए लालू जी, आपसे अनुरोध है। आप रेल मंत्री हैं। आपसे ज़्यादा 'ताकतवाला' इन दिनों कोई नज़र नहीं आता। आप इस तरह की सेक्स-समस्या से ग्रसित यात्रियों को बेशक ना कहते हों कि 'मिल तो लें'। पर मैं सोचता हूं कि 'मिल ही लूं'। सेक्स से जुड़ी मेरी इस समस्या को आप ही दूर कर सकते हैं। ऐसी समस्या कई और यात्रियों के साथ भी हुई हो सकतीं हैं। अभी भी हो रही हो सकती हैं। ऐसी समस्या ना हो इसके लिए आप कम्प्यूटर से टिकट काटने वालों से थोड़ी सावधानी बरतने को कहें। इसमें शक नहीं कि वो बहुत मेहनत करते हैं। पर ग़लती की गुंजाइश ना छोड़ों तो ऐसी 'लोकलाज' वाली समस्या से हम बच जाएगें। नहीं तो दुनिया तो बाद में, पहले आपके टीटीई ही हमें नहीं छोड़ेगें। हा हा हा!

हां, टिकट कटाने वाले भी काउंटर छोड़ने के पहले टिकट की डीटेल और पैसे का हिसाब मिला लें।

शुभ यात्रा

Wednesday, June 20, 2007

कविताएं जन्म ले रहीं हैं...

मेरे मस्तिष्क में
कविताएं जन्म ले रहीं हैं
मेरे अनुभव-अनुभूतियों को
शब्द-रुप दे रहीं हैं।

मेरी कविताएं
मेरे अनुभव की तरह व्यापकता लिए हुईं हैं,
ये कहीं मृतप्राय: हैं...
तो कहीं जीवंतता लिए हुईं हैं।

ये शब्द सामर्थ्य
मेरे अनुभवों ने ही मुझे प्रदत्त किए हैं
इन्हें कमलबद्ध करने को भी
उन्होंने ही उद्यत किए हैं।

मेरी भावना ही मेरी लेखनी की आत्मा है
जो कभी पुलकित
तो कभी मर्माहित हुईं हैं,

अतएव,
दोनों ही मेरी कविता में समाहित हुईं हैं।
मेरी ईच्छाएं
चंद पूरित...,
चंद अभी दमित हैं

अभिलाषाएं
कुछ सूख चुकीं,
कुछ अभी हरित हैं

पर मेरा विश्वास
अभी भी,
अपेक्षाओं के साथ खड़ा है,
इसलिए तो मेरे संवेदन ने
शब्द रुप धरा है!

'चलो पागल हो जाएं'

तहसीन मुनव्वर जी से पहले ही आपका परिचय करा चुका हूं। आप में से कई उनको जानते भी होगें। अभी उनकी रचना सुनी जो उन्होने देश के बाहर रह रहे भारतीय के बीच सुनाई थी। जिंदगी में जो कुछ भी करना है उसके लिए जुनून का होना कितना ज़रुरी है ये बताने की अच्छी कोशिश की है उन्होने। 'पागल हो जाओ' में। ज़्यादा कुछ मैं बताऊं इससे बेहतर आप खुद ही सुन सकते हैं। URL है-

शुक्रिया

Tuesday, June 19, 2007

'असली भूत...देखिए रात 9बजे...सिर्फ इसी चैनल पर...'

रवीश ने 'कस्‍बा' पर एक व्यंग्य लिखा है। उनके भू-चु चैनल की मार्केट खराब करने के लिए मैं यहां कुछ लिख रहा हूं। पढ़िएगा फिर फैसला कीजिएगा।

प्यारे दर्शकों,

रवीश जी की बातों पर मत जाना। भू-चु जब आएगा तब आएगा। कितना चल पाएगा नहीं चल पाएगा वो भी पता नहीं। वो कह रहे हैं कंपिटीशन नहीं है। अरे कंपिटीशन कितना है चैनल चलाने वाले हमारे कुछ दोस्तों से पूछो। वे फेस कर रहे हैं।

कुछ प्रापर्टी डीलरों से पैसा लेकर हमारे एक दोस्त ने एक 'न्यूज़ चैनल' खोला है। सोचा बिजनिस में नया हाथ मारेगें। पूंजी कम थी सो सुनसान इलाके में दफ्तर खोलना पड़ा। दोस्त ने बताया कि एक दिन रात को लाईव था। एंकर सवाल करती गई। कैमरे की तरफ से मेंढ़क और झिंगुर की आवाज़ें आतीं रहीं। रिपोर्टर सेट पर नहीं पहुंचा था। एंकर को टाॅक बैक ठीक से नहीं मिल रहा था। उसे लगा आडियो चैनल वन पर एंबिएंस आ रहा रहा है तो चैनल टू पर रिपोर्टर की भी कुछ ना कुछ आवाज़ आ ही रही होगी। इसी गफलत में सब कुछ चलता है। ब्लैक फ्रेम दिखता रहा। दोस्त ने रिपोर्टर को सज़ा के तौर पर नौकरी से निकाल दिया। लगा कि इस तरह रिपोर्टिंग करेगा तो नये चैनल की तो भद ही पिट जाएगी।

पर उस हफ्ते की टीआरपी ने दोस्त की आंखे खोल दी। उस रिपोर्टर-रहित लाईव ओबी के दौरान दोस्त के चैनल की टीआरपी 55 पार थी। ज़्यादा लगे तो ठीक ठीक लगा लेना। दोस्त ने उस रिपोर्टर को बाईज्ज़त वापस बुलाया। कहा कुछ करने की ज़रुरत नहीं। सुनसान-श्मशानी इलाकों में घूमते रहो। जब तक कुछ ना दिखे तब तक रिपोर्ट फाईल करते रहो। भूतों की ऐशगाह। चुड़ैलों का डेरा। बिजिनेस चल निकाला। एक दोस्त ने शुरु किया तो बाकी भी पीछे हो लिए। अब रवीश भी मैदान में कूदना चाहते हैं। और कहते हैं कंपिटीशन नहीं है।

कंपिटीशन तो अभी ही इतना हो गया है कि दोस्त के भूत को दूसरे चैनल वाले ले उड़ रहे हैं। लाईनअप हमारे दोस्त का होता है पर कैमरा किसी और का पहुंच जाता है। एक रिपोर्टर को तो हमारे दोस्त ने भूत की स्टोरी का ट्रांसफर दूसरे चैनल के कैमरापर्सन को देते हुए पकड़ा। निकाल दिया। आजकल तो हमारा दोस्त अलसुबह ही ओबी वैन निकाल देता है। रिपोर्टरों से कहता है जाओ भूत ढ़ूंढों। लाईव करेगें। जहां थोड़ा भी जंगल-झाड़, पुरानी हवेली टाईप चीज़ नजर आती है... मनोहर कहानी स्टाईल में शुरु हो जाने को कहता है।

पुराने किलों और हवेलियों पर आर्कियोलाॅजिकल सर्वे आॅफ इंडिया वालों की निगाह बेशक ना पड़ी हो। हमारी पड़ गई है। एएसआई वालों को भी एक दिन दिन में भूत दिखा गया। लेकिन परेशान होने की बजाए वो खुश थे। दोस्त को फोन किया। बोले कोई ख़बर दिखाने वाला चैनल पहुंच जाता तो कहता कि एएसआई की कोताही देखो। ऐतिहासिक धरोहर को संजो कर नहीं रखा। ईंट ईंट बिखड़ रहा है। बाल की खाल निकालते। अच्छा हुआ आपके रिपोर्टर आए। भूत पर फोकस किया। पर आपको इतना इंटीरियर में जाने की क्या ज़रुरत थी। हमें बोल देते। लाल किला, कुतुब मीनार, पुराना किला...हुमायूं टॅाम्ब... कई जगहों को तो हमने वैसे भी अपने हाल पर छोड़ा हुआ है कि खंडहर बन गया है। थोड़ी और कोताही कर देते तो आपको भूत-बेताल ही नहीं प्रेत-पिशाच भी यहीं मिल जाते। ख़ैर अब डील हो गई है। वे हमारे दोस्त के चैनल के लिए भूत पैदा करेंगे। मुगलकाल के भूत। कुषाण काल और सातवाहन के ज़माने के भूत। मौर्यकाल और गोल्डन एरा यानि गुप्तकाल और मुगलकाल के भूत भी। साउथ इंडिया से रिपोर्टें फाईल होगीं चोलों के काल के भूत की। पल्लवों के काल के भूत की। पर ये सभी भूत आपको दिखाई नहीं ना पड़ें तो आप मज़ाक ना उड़ाना। जो दिख ही गया तो भूत कैसा। भूत की सैंक्टिटी भी तो बचा कर रखनी है ना।

हमारा दोस्त तो अपने चैनल के लिए अपना पैनल तैयार कर रहा है। किस तरह के भूत पर किस तरह की मशानी शक्ति काम करेगी। कौन सी चुड़ैल किस जोगन से भागेगी। रिसर्च चल रहा है। और भागना दिखाना है तो पहले बुलाना पड़ेगा। पहले एक अच्छे गेस्ट के लिए मारामारी-मगज़मारी होती थी। अब अच्छी चुड़ैलों के लिए होगी। वो दिन दूर नहीं जब एक ही चु़ड़ैल आपको अलग अलग कोट पहने कई स्टुडियो में दिखाई पड़ेगी। पर दोस्त ने वादा किया हैं कि हम सबसे पहले आपको दिखाएगें। बिना एक पल गंवाए। बिल्कुल तेज़ी से। चाहे जो भी क़ीमत चुकानी पड़े।

मैं तो अपने मुंह सिर्फ एक दोस्त की बड़ाई करता जा रहूं हैं। पर ईमानदारी से बताउं तो आपके पास कई विकल्प भी मौजूद हैं। एक तरह के भूत से मन भर गया है तो बस एक रिमोट की दूरी पर दूसरा भूत मिल जाएगा। दबाने भर की देरी है। सांप का बिल भी मिलेगा और नाग नागिन भी। बाबा का चमत्कार भी। कहने का मतलब कि रवीश जी के प्रस्तावित भू-चु चैनल से कहीं बेहतर चींज़े अब भी एवलेबल है। बिल्कुल लाईव। फिर भू-चु का क्या औचित्य। इंतज़ार कैसा।

'तेरा भूत मेरे भूत से सफेद झूठ जैसा! असली भूत सिर्फ हमारे पास! बस देखते रहिए'

आपका
भूतख़बरी

Monday, June 18, 2007

नारद पर इस्तीफों की पोल

ये व्यंग्य नारद पर काफी देर से दिखा इसलिए जल्द ही उतर भी गया। शायद तकनीकी वजहों से ऐसा हुआ हो। बाक़ी नारद जी जानें। मुझे लगता है कि उन तमाम लोगों तक बात पहुंच नहीं पायी जिन तक इसके ज़रिए मैं कुछ संदेश देना चाहता था। इसलिए इसे दुबारा लगा लगाने की धृष्टता कर रहा हूं। अभी सोमवार ही है तारीख १८ जून रात के साढ़े ग्यारह के क़रीब। देखते हैं ये कब तक आपकी नज़र चढ़ता है। (असल बात तो ये हैं कि में नारद पर चल रहे विवाद की आड़ में हिट्स की लूट में मेरा भी हिस्सा है इसलिए मेरी जेसचरिंग पर मत जाईए। और नारद पर मैं नज़र ना भी आऊं तो भी मेरे ब्लॅाग पर एक बार ज़रुर आईए। कुछ न कुछ बेतुका ज़रुर मिलेगा। हा हा हा....।) खैर, आपमें से जो बोर होगें वे खीजेगें नहीं माफ कर देगें... ऐसी मेरी कामना है।

इस्तीफा एक गुणकारी पदार्थ है। इसका उपयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है। यह कई प्रकार की कार्यसिद्धियों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। एक ओर ये जहां किसी को संकट में डालने के लिए लिए प्रयुक्त होता है तो वहीं दूसरी ओर संकट से उबारनके क्रम में भी इसका जम कर इस्तेमाल होता है। यह किसी भी मौसम में दिया और लिया जा सकता है। लेकिन आमतौर पर जिसका 'नेट' चर्चा में होता है उसकी हर छोटी बड़ी ग़लतियों पर चिल्ला चिल्ला कर इस्तीफा मांगने का अपना औचित्य बनता जा रहा है। इस्तीफों के पीछे अपने तील-तिकड़म हैं। इस्तीफों के लिए तर्क भी गढ़े जा रहे हैं। कुतर्क भी दिए जा रहे हैं।

इस उपभोक्तावादी युग में इस्तीफा भी एक उत्पाद है जिसका अपना एक बाज़ार है। ब्लॅाग पर ये बाज़ार आजकल काफी गर्म है। कमप्यूटर तकनीकी के सहारे इस्तीफे को एक नया आयाम मिला है। यों कह सकते हैं कि वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई का लोहा गर्म है और इस्तीफा उस पर चोट। धड़ाधड़ इस्तीफे दिए जा रहे हैं। मज़े की बात है कि इसकी कोई विशेष मांग भी नहीं है। मांग से अधिक आपूर्ति है। सो इस्तीफों का भाव काफी गिर गया लगता है। जिसे देखो उसी के पास इस्तीफा है। जो नहीं दे रहा या जिनको अभी देने की ज़रुरत नहीं, उम्मीद है वो भी जल्द ही कांख में इस्तीफा दबाए माउस क्लिक करेगें। और ऐसे भी हैं जो अपने चिठ्ठों में चाह कर भी कुछ ऐसा विवादस्पद नहीं लिख पाए जिससे उन्होने हिट्स मिलते, उनमें से भी कुछ इस्तीफा देने को तत्पर दिख रहे हैं। शायद इसके ज़रिए कुछ बटोर लें। भईया यही तो समर्पण है। 'ब्लॅागतांत्रिक'... सॅारी लोकतांत्रिक आस्था है। जब कोई उपाय नहीं है तो इस्तीफा है।

वैसे इस्तीफा देना भी कोई हंसी खेल नहीं है। बहुत लोग चाहते हुए भी नहीं दे पाते हैं। उन्हें उनके वैचारिक नूरा-कुश्ती के सहयोगी, पालनहार से इसकी इजाज़त नहीं मिलती। कुछ तो इस्तीफा देने के पहले धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। कि शायद कोई रास्ता निकल आए। अगर ऐसा नहीं होता है तब वे कितने बोछिल मन और खिसियाए मूड से इस्तीफा तैयार करता है ये रामजाने... (हे प्रभु रक्षा करना, रामजाने नाम का कोई ब्लॅागर ना हो। नहीं तो वो मुझसे लड़ मरेगा कि मेरा नाम क्यों लिखा)। उसके बाद भी कितनी बड़ी विडंबना है कि किसी का इस्तीफा मंज़ूर नहीं होता और किसी को इस्तीफे के लिए मजबूर किया जाता है। कोई इसे चुनौती के रुप में स्वीकारता है तो किसी के लिए ये त्रासदी भरा है।

इस्तीफों का अपना इतिहास रहा है। विभिन्न दौरों और मोड़ों से गुज़रता हुआ यह आज ब्लॅागिंग तक जा पहुंचा है। यहां यह किसी के लिए यह अंतिम उपाय है तो किसी के लिए प्रथम प्रतिक्रिया बन गया है। अपनी कलम (या कहें की-बोर्ड) की कमज़ोरी को छिपाने और हिट्स बटोरने का का साधन बन गया है। अगर आप पर झूठा लांछन लगा है तो आप अपने स्तंभ पर बने रहते हुए भी ठोस तर्कों और साक्ष्यों के ज़रिए अपनी निर्दोषता साबित करने का प्रयास कर सकते हैं। लेकिन नहीं। विपत्ति के समय पलायनवादी मन अपेक्षाकृत शार्टकट रास्ते से अपना संदेश देना चाहता है। लांछन लगा है। खुद को स्वच्छ साबित करना है। एग्रीगेटर से इस्तीफा दे दो। जनता यही कहेगी कि देखो भई बेचारे पर आरोप लगा नही कि इस्तीफा मेल कर दिया। कितना नैतिक और गैरसांप्रदायिक आदमी है।

कोई कोई तो पूरी आग उगल देता है फिर भी इस्तीफा नहीं देता। नारद पर बना रहता है। उस पर मुकद्दमा भी नहीं चलता। और वो पद छोड़ना तो दूर... दूर दूर तक मंशा भी ज़ाहिर नहीं करता कि अंगूली उठने पर इस्तीफा दे दूंगा। कितना घाघ है। और उसे देखो। इस्तीफा लिए तैयार बैठा था। अपने ऊपर लगे आरोपों के प्रति कितना संवेदनशील है। और हो भी क्यों ना। उसे पता है कि अगर उसने आज इस्तीफा नहीं दिया और अपनी डाल पर बैठा रहा तो रोज़ उसकी ख़बर ली जाएगी। कई साथी चिठ्ठाकार लताडेगें। कुछ इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार देगें। समूह मे जगहंसाई होगी। इसलिए इस्तीफा ही एकमात्र विकल्प है। दे दो। उसके बाद कैसे उठोगे-बैठोगे-सोचोगे-लिखोगे ये कोई देखने वाला नहीं होगा। सार्वजनिक परिदृश्य से बाहर हो जाओगे। उसके बाद लोग तुम्हें भूलने के साथ-साथ तुम पर लगे आरोपों को भी भूल जाएगें। तब तक अपनी भावी रणनीति तय करते रहो।

ब्लॅागिंग की दुनिया में बकवाद-विवादों के मौके तो आते ही रहते हैं। उसमें तुम जैसा कोई दूसरा शामिल होगा। बस इसी समय शेर की तरह दहाड़ उठना। तुमने भी गंद लिखा... तुमने भी गंद लिखा। उसके बाद उसे भी इस्तीफे की तरफ धकेल देना। ब्लॅागर्स की दुनिया में तुम फिर से उभर आओगे। वैचारिक जंग जीत जाओगे। अपनी नई एग्रीगेटर की दूकान सजा लोगे। इसलिए हे वत्स। तुम अभी इस एग्रीगेटर से तो इस्तीफा दे ही दो!

"हे नारद जी, मेरा भी इस्तीफा ले लो"

इस्तीफा एक गुणकारी पदार्थ है। इसका उपयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है। यह कई प्रकार की कार्यसिद्धियों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। एक ओर ये जहां किसी को संकट में डालने के लिए लिए प्रयुक्त होता है तो वहीं दूसरी ओर संकट से उबारनके क्रम में भी इसका जम कर इस्तेमाल होता है। यह किसी भी मौसम में दिया और लिया जा सकता है। लेकिन आमतौर पर जिसका 'नेट' चर्चा में होता है उसकी हर छोटी बड़ी ग़लतियों पर चिल्ला चिल्ला कर इस्तीफा मांगने का अपना औचित्य बनता जा रहा है। इस्तीफों के पीछे अपने तील-तिकड़म हैं। इस्तीफों के लिए तर्क भी गढ़े जा रहे हैं। कुतर्क भी दिए जा रहे हैं।

इस उपभोक्तावादी युग में इस्तीफा भी एक उत्पाद है जिसका अपना एक बाज़ार है। ब्लॅाग पर ये बाज़ार आजकल काफी गर्म है। कमप्यूटर तकनीकी के सहारे इस्तीफे को एक नया आयाम मिला है। यों कह सकते हैं कि वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई का लोहा गर्म है और इस्तीफा उस पर चोट। धड़ाधड़ इस्तीफे दिए जा रहे हैं। मज़े की बात है कि इसकी कोई विशेष मांग भी नहीं है। मांग से अधिक आपूर्ति है। सो इस्तीफों का भाव काफी गिर गया लगता है। जिसे देखो उसी के पास इस्तीफा है। जो नहीं दे रहा या जिनको अभी देने की ज़रुरत नहीं, उम्मीद है वो भी जल्द ही कांख में इस्तीफा दबाए माउस क्लिक करेगें। और ऐसे भी हैं जो अपने चिठ्ठों में चाह कर भी कुछ ऐसा विवादस्पद नहीं लिख पाए जिससे उन्होने हिट्स मिलते, उनमें से भी कुछ इस्तीफा देने को तत्पर दिख रहे हैं। शायद इसके ज़रिए कुछ बटोर लें। भईया यही तो समर्पण है। 'ब्लॅागतांत्रिक'... सॅारी लोकतांत्रिक आस्था है। जब कोई उपाय नहीं है तो इस्तीफा है।

वैसे इस्तीफा देना भी कोई हंसी खेल नहीं है। बहुत लोग चाहते हुए भी नहीं दे पाते हैं। उन्हें उनके वैचारिक नूरा-कुश्ती के सहयोगी, पालनहार से इसकी इजाज़त नहीं मिलती। कुछ तो इस्तीफा देने के पहले धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। कि शायद कोई रास्ता निकल आए। अगर ऐसा नहीं होता है तब वे कितने बोछिल मन और खिसियाए मूड से इस्तीफा तैयार करता है ये रामजाने... (हे प्रभु रक्षा करना, रामजाने नाम का कोई ब्लॅागर ना हो। नहीं तो वो मुझसे लड़ मरेगा कि मेरा नाम क्यों लिखा)। उसके बाद भी कितनी बड़ी विडंबना है कि किसी का इस्तीफा मंज़ूर नहीं होता और किसी को इस्तीफे के लिए मजबूर किया जाता है। कोई इसे चुनौती के रुप में स्वीकारता है तो किसी के लिए ये त्रासदी भरा है।

इस्तीफों का अपना इतिहास रहा है। विभिन्न दौरों और मोड़ों से गुज़रता हुआ यह आज ब्लॅागिंग तक जा पहुंचा है। यहां यह किसी के लिए यह अंतिम उपाय है तो किसी के लिए प्रथम प्रतिक्रिया बन गया है। अपनी कलम (या कहें की-बोर्ड) की कमज़ोरी को छिपाने और हिट्स बटोरने का का साधन बन गया है। अगर आप पर झूठा लांछन लगा है तो आप अपने स्तंभ पर बने रहते हुए भी ठोस तर्कों और साक्ष्यों के ज़रिए अपनी निर्दोषता साबित करने का प्रयास कर सकते हैं। लेकिन नहीं। विपत्ति के समय पलायनवादी मन अपेक्षाकृत शार्टकट रास्ते से अपना संदेश देना चाहता है। लांछन लगा है। खुद को स्वच्छ साबित करना है। एग्रीगेटर से इस्तीफा दे दो। जनता यही कहेगी कि देखो भई बेचारे पर आरोप लगा नही कि इस्तीफा मेल कर दिया। कितना नैतिक और गैरसांप्रदायिक आदमी है।

कोई कोई तो पूरी आग उगल देता है फिर भी इस्तीफा नहीं देता। नारद पर बना रहता है। उस पर मुकद्दमा भी नहीं चलता। और वो पद छोड़ना तो दूर... दूर दूर तक मंशा भी ज़ाहिर नहीं करता कि अंगूली उठने पर इस्तीफा दे दूंगा। कितना घाघ है। और उसे देखो। इस्तीफा लिए तैयार बैठा था। अपने ऊपर लगे आरोपों के प्रति कितना संवेदनशील है। और हो भी क्यों ना। उसे पता है कि अगर उसने आज इस्तीफा नहीं दिया और अपनी डाल पर बैठा रहा तो रोज़ उसकी ख़बर ली जाएगी। कई साथी चिठ्ठाकार लताडेगें। कुछ इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार देगें। समूह मे जगहंसाई होगी। इसलिए इस्तीफा ही एकमात्र विकल्प है। दे दो। उसके बाद कैसे उठोगे-बैठोगे-सोचोगे-लिखोगे ये कोई देखने वाला नहीं होगा। सार्वजनिक परिदृश्य से बाहर हो जाओगे। उसके बाद लोग तुम्हें भूलने के साथ-साथ तुम पर लगे आरोपों को भी भूल जाएगें। तब तक अपनी भावी रणनीति तय करते रहो।

ब्लॅागिंग की दुनिया में बकवाद-विवादों के मौके तो आते ही रहते हैं। उसमें तुम जैसा कोई दूसरा शामिल होगा। बस इसी समय शेर की तरह दहाड़ उठना। तुमने भी गंद लिखा... तुमने भी गंद लिखा। उसके बाद उसे भी इस्तीफे की तरफ धकेल देना। ब्लॅागर्स की दुनिया में तुम फिर से उभर आओगे। वैचारिक जंग जीत जाओगे। अपनी नई एग्रीगेटर की दूकान सजा लोगे। इसलिए हे वत्स। तुम अभी इस एग्रीगेटर से तो इस्तीफा दे ही दो!

Sunday, June 17, 2007

"हे नारद, मेरा भी इस्तीफा ले लो"

इस्तीफा एक गुणकारी पदार्थ है। इसका उपयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है। यह कई प्रकार की कार्यसिद्धियों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। एक ओर ये जहां किसी को संकट में डालने के लिए प्रयुक्त होता है तो वहीं दूसरी ओर संकट से उबारने के क्रम में भी इसका जम कर इस्तेमाल होता है। यह किसी भी मौसम में दिया और लिया जा सकता है। लेकिन आमतौर पर जिसका 'नेट' चर्चा में होता है उसकी हर छोटी बड़ी ग़लतियों पर चिल्ला चिल्ला कर इस्तीफा मांगने का अपना औचित्य बनता जा रहा है। इस्तीफों के पीछे अपने तील-तिकड़म हैं। इस्तीफों के लिए तर्क भी गढ़े जा रहे हैं। कुतर्क भी दिए जा रहे हैं।

इस उपभोक्तावादी युग में इस्तीफा भी एक उत्पाद है जिसका अपना एक बाज़ार है। ब्लॅाग पर ये बाज़ार आजकल काफी गर्म है। कमप्यूटर तकनीकी के सहारे इस्तीफे को एक नया आयाम मिला है। यों कह सकते हैं कि वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई का लोहा गर्म है और इस्तीफा उस पर चोट। धड़ाधड़ इस्तीफे दिए जा रहे हैं। मज़े की बात है कि इसकी कोई विशेष मांग भी नहीं है। मांग से अधिक आपूर्ति है। सो इस्तीफों का भाव काफी गिर गया लगता है। जिसे देखो उसी के पास इस्तीफा है। जो नहीं दे रहा या जिनको अभी देने की ज़रुरत नहीं, उम्मीद है वो भी जल्द ही कांख में इस्तीफा दबाए माउस क्लिक करेगें। और ऐसे भी हैं जो अपने चिठ्ठों में चाह कर भी कुछ ऐसा विवादस्पद नहीं लिख पाए जिससे उन्होने हिट्स मिलते, उनमें से भी कुछ इस्तीफा देने को तत्पर दिख रहे हैं। शायद इसके ज़रिए कुछ बटोर लें। भईया यही तो समर्पण है। 'ब्लॅागतांत्रिक'... सॅारी लोकतांत्रिक आस्था है। जब कोई उपाय नहीं है तो इस्तीफा है।

वैसे इस्तीफा देना भी कोई हंसी खेल नहीं है। बहुत लोग चाहते हुए भी नहीं दे पाते हैं। उन्हें उनके वैचारिक नूरा-कुश्ती के सहयोगी, पालनहार से इसकी इजाज़त नहीं मिलती। कुछ तो इस्तीफा देने के पहले धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। कि शायद कोई रास्ता निकल आए। अगर ऐसा नहीं होता है तब वे कितने बोछिल मन और खिसियाए मूड से इस्तीफा तैयार करता है ये रामजाने... (हे प्रभु रक्षा करना, रामजाने नाम का कोई ब्लॅागर ना हो। नहीं तो वो मुझसे लड़ मरेगा कि मेरा नाम क्यों लिखा)। उसके बाद भी कितनी बड़ी विडंबना है कि किसी का इस्तीफा मंज़ूर नहीं होता और किसी को इस्तीफे के लिए मजबूर किया जाता है। कोई इसे चुनौती के रुप में स्वीकारता है तो किसी के लिए ये त्रासदी भरा है।

इस्तीफों का अपना इतिहास रहा है। विभिन्न दौरों और मोड़ों से गुज़रता हुआ यह आज ब्लॅागिंग तक जा पहुंचा है। यहां यह किसी के लिए यह अंतिम उपाय है तो किसी के लिए प्रथम प्रतिक्रिया बन गया है। अपनी कलम (या कहें की-बोर्ड) की कमज़ोरी को छिपाने और हिट्स बटोरने का का साधन बन गया है। अगर आप पर झूठा लांछन लगा है तो आप अपने स्तंभ पर बने रहते हुए भी ठोस तर्कों और साक्ष्यों के ज़रिए अपनी निर्दोषता साबित करने का प्रयास कर सकते हैं। लेकिन नहीं। विपत्ति के समय पलायनवादी मन अपेक्षाकृत शार्टकट रास्ते से अपना संदेश देना चाहता है। लांछन लगा है। खुद को स्वच्छ साबित करना है। एग्रीगेटर से इस्तीफा दे दो। जनता यही कहेगी कि देखो भई बेचारे पर आरोप लगा नही कि इस्तीफा मेल कर दिया। कितना नैतिक और गैरसांप्रदायिक आदमी है।

कोई कोई तो पूरी आग उगल देता है फिर भी इस्तीफा नहीं देता। नारद पर बना रहता है। उस पर मुकद्दमा भी नहीं चलता। और वो पद छोड़ना तो दूर... दूर दूर तक मंशा भी ज़ाहिर नहीं करता कि अंगूली उठने पर इस्तीफा दे दूंगा। कितना घाघ है। और उसे देखो। इस्तीफा लिए तैयार बैठा था। अपने ऊपर लगे आरोपों के प्रति कितना संवेदनशील है। और हो भी क्यों ना। उसे पता है कि अगर उसने आज इस्तीफा नहीं दिया और अपनी डाल पर बैठा रहा तो रोज़ उसकी ख़बर ली जाएगी। कई साथी चिठ्ठाकार लताडेगें। कुछ इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार देगें। समूह मे जगहंसाई होगी। इसलिए इस्तीफा ही एकमात्र विकल्प है। दे दो। उसके बाद कैसे उठोगे-बैठोगे-सोचोगे-लिखोगे ये कोई देखने वाला नहीं होगा। सार्वजनिक परिदृश्य से बाहर हो जाओगे। उसके बाद लोग तुम्हें भूलने के साथ-साथ तुम पर लगे आरोपों को भी भूल जाएगें। तब तक अपनी भावी रणनीति तय करते रहो।

ब्लॅागिंग की दुनिया में बकवाद-विवादों के मौके तो आते ही रहते हैं। उसमें तुम जैसा कोई दूसरा शामिल होगा। बस इसी समय शेर की तरह दहाड़ उठना। तुमने भी गंद लिखा... तुमने भी गंद लिखा। उसके बाद उसे भी इस्तीफे की तरफ धकेल देना। ब्लॅागर्स की दुनिया में तुम फिर से उभर आओगे। वैचारिक जंग जीत जाओगे। अपनी नई एग्रीगेटर की दूकान सजा लोगे। इसलिए हे वत्स। तुम अभी इस एग्रीगेटर से तो इस्तीफा दे ही दो!

Saturday, June 16, 2007

बाप की ज़मीन का टुकड़ा बेटों में बंट रहा होगा!

किसान, ज़मीन और सत्ता की भूमिका पर अनिल रघुवंशी ने अपने ब्लाग एक हिन्दुस्तानी की डायरी में काफी कुछ लिखा है। लगातार लिख रहे हैं। मैंने टिप्पणी लिखी तो बड़ी लंबी हो गई। इसलिए इसे मैं यहां ले आया। पर इसे पढ़ने के पहले कृपा अनिल जी को (शाम से आंखे नम-सी हैं, हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों, हिम्मत है तो करके दिखाओ) ज़रुर पढ़ें। नहीं तो मेरा लिखे का पूरा संदर्भ समझने में शायद दिक्कत हो।

अनिल जी,

इस विषय पर मैं लंबे अर्से से कुछ लिखने की सोच रहा था पर बस सोचता रहा। खैर आपने ने इस तरह लिखा है कि आगे कुछ बचता ही नहीं। पोस्ट बेशक जारी हो पर हर पोस्ट अपने आप में पूरी बात कहती है। मैं मक्खन नहीं लगा रहा बल्कि दो शब्द कह कर भरोसा दिलाना चाहता हूं कि मैं लिखना चाह रहा था क्योंकि मैंने भी ज़मीन और किसानों से जुड़ी बातों को देखा और महसूस किया है। आपको एक संस्मरण सुना शायद बात और साफ कर सकूं।

बात बिहार चुनाव के नतीज़े के दिन की है। मैं नतीजों पर फौरी प्रतिक्रिया जानने शरद यादव जी के घर सुबह से ही डटा था। शरद जी जब अपने ड्राईंग रुम में आए तो बात टीवी पत्रकारिता की छेड़ दी। उनका कहना था कि बिहार में इतना अच्छा चुनाव हुआ पर कवरेज नहीं मिला। वे आरोप लगा रहे थे कि सिर्फ हिंसा गोली बंदूक ही टीवी दिखाता है और ऐसा कहते हुए वे पत्रकारों को ताना सा देने लगे। पहले तो मैं चुपचाप सुनता रहा फिर फट पड़ा। मैने कहा ठीक है कि टीवी ने फोकस नहीं किया पर फोकस करते तो किस बात पर। आपने कभी विकास को मुद्दा बनाया क्या। क्या मधुबनी का सकरी चीनी मिल २० साल से बंद है। दरभंगा के रैय्याम मिल की हालत भी यही है। ऐसे मिल तमाम हैं। इलाक़े के लोगों ने गन्ना उपजाना बंद कर दिया है। आपने या किसी राजनीतिक दल ने कहा कि इस बार जीतेगें तो सकरी और इस जैसे तमाम चीनी मिल के ताले खुलवाएंगें। क्या आपने वादा किया किसानों को पलायन कर पंजाब हरियाणा महाराष्ट्र नहीं जाने देगें जहां उनका दोहन तो होता है पर मान सम्मान भी नहीं मिलता। क्या आपने वादा किया कि खेती में कैपिटल इंवेस्टमेंट करेगें ज़मीन को और टुकड़ों में नहीं बंटने देगें। जोत की ज़मीन और छोटी नहीं होने देगें। किसान जो सालभर का पेट पालने लायक अनाज मुश्किल से उगा पाते हैं उसे अधिशेष उत्पादन या सरप्लस प्रोडक्शन में बदलेगें ताकि बेच कर वे कुछ नकदी भी हासिल कर सके और देश की अनाज की जरुरत में भागीदारी भी। क्या आपने अपने घोषणा पत्र में लिखा कि हल बैल की जगह हर गांव को ट्रैक्टर देगें। मैं बस बोलता ही गया।

मेरा पैतृक गांव नरपतिनगर है। मधुबनी ज़िले में आता है। मेरी पैदाईश मधुबनी में हुई और बाबूजी वकील हैं। पर बचपन में गांव में खेतों पर खूब घूमा हूं। पटनी (दमकल से सिंचाई) और कदली (धान रोपाई के समय खेतों में पैर से कीचड़ करना ताकि धान के पौधों को अंगूलियों से आसानी से रोपा जा सके। दरअसल मेरे बाबा (दादा जी को हम बाबा कहते हैं) ज़मीनदार थे। सीलिंग लागू हुआ ज़मीनदारी चली गई। पर फतलाहा टोली के जो खेतिहर मज़दूर थे उनकी हालत जस की तस रही। गांव के आसपास की ज़मीन तो बची रही लेकिन निर्मली और नेपाल सीमा के इलाके की ज़मीन पर लाल झंडा गाड़ दिया गया। ज़मीनदारों की ज़मीन तो चली गई पर फायदा निश्चित ही उनको नहीं हुआ जिनके लिए बिनोवा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया। सरकार ने सीलिंग लागू किया। उनमें से कुछ आज भी हमारे बचे हुए ज़मीन के टुकड़ों पर काम करता है। पनपियाई (हल्का नाश्ता) और मरुआ की रोटी जलखई (दोपहर का खाना) पर। धान-गेहूं काटते हैं तो १२ या १६ बोझा काटने पर एक बोझा बोईन (मेहनताना) मिलता है। पेट नहीं भरता। न अपना न अपने परिवार का।

आज फतलाहा और खतरटोली के अधिकांश खेतिहर मज़दूर शहरों में जा कर चापाकल गाड़ने का काम करते हैं रिक्शा चलाने का काम करते हैं। या फिर फैक्टरियों में जहां उन्हें थोड़ा बहुत कैश मिलता है। ऐसे भी है जो पंजाब में अपने खून पसीने से खेत लहलहाते हैं। वो ऐसा बिहार में क्यों नहीं कर पाते। आप जैसे नेता कहां सोते रहते हैं। आज टीवी को कोस रहे हैं कि चुनाव में सकारात्मक चीजें नहीं उठायी। नेताओं को एक ही सकारात्मक चीज नज़र आती है वो है जातीय समीकरण। कहां किस जाति का उम्मीदवार कितनी वोट ले कर आएगा। नेताओ की राजनीति जाति केन्द्रित हो गई है तो टीवी को क्यों कोस रहे हैं कि वो हिंसा मारधाड़ और एक्शन से भरपूर सीन ही दिखाता है। इतना और इसके अलावा भी बहुत मैं सुनाता चला गया। क्योंकि ऐसी वन टू वन मुलाक़ात पहली बार हो रही थी। इसलिए कुछ सुनने के बाद शरद यादव ने पूछा आपका नाम क्या है। मैने अपना नाम बताया तो उन्होने नेता वाली अंदाज़ में कहा अच्छी पकड़ है उमाशंकर। ऐसे भी कभी कभी ऐसे भी मिलते रहो। बात करते रहो। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि मुझे पता है कि सिर्फ बात करते रहने से कोई तब्दीली नहीं आएगी। कुछ करना भी पड़ेगा।

इस बहस के बीच ही बिहार में नीतिश कुमार की सरकार बन गई। संसद सत्र के दौरान और उसके अलावा भी शरद यादव मिलते हैं... सेज़ से सब्ज़ी भाजी बेचने में रिलायंस जैसी कंपनियों लोलुपता... हर मुद्दे पर वो लड़ाई लड़ने की बात करते हैं। अच्छी बात है। पर बिहार में किसानों के लिए क्या हो रहा है शायद आप सबों को बेहतर पता हो।

मैंने अपने संदर्भ से बात कही। सिर्फ शरद जी के हवाले से कही तो इसलिए क्योंकि इसे लेकर उनके और मेरे बीच लंबी बात हुई। लेकिन वो अकेले नेता क़सूरवार नहीं हैं। तमाम नेता हैं जो किसान हित की पोथी दिखा कर चुनावी गणित बिठाते हैं। पूरे देश में हालत खराब है। नीतियां ढंग की बनती नहीं। जो बनती हैं चलती नहीं। कुछ राज्य अपवाद हो सकते हैं। पर किसानों की हालत पर कोई नेता गंभीर नहीं। विदर्भ में मर रहे किसानों को स्मार्ट कार्ड मिलेगा।

अपनी इस लंबी टिप्पणी का अंत अपनी एक गुम गई कविता से करना चाहूंगा। सिर्फ पहली चार पंक्ति याद है बाकि कागज़ों में कहीं खो गई।

'ऐ मानव जिस क्षण तू ये कविता गढ़ रहा होगा
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा
किस किस पर लिखेगा तू किस किस को छोड़ेगा
तेरी लेखनी से तेज़ सृष्टिचक्र चल रहा होगा।

घर की ही बात लो तो कई चित्र उभरते हैं
तुम्हारे धरोहर और संस्कार ऐसे टूट बिखरते हैं
कि कहीं कोई अपना अपनों से कट रहा होगा
बाप की ज़मीन का टुकड़ा बेटों में बंट रहा होगा!
उस क्षण भी हर तरफ कलयुग घट रहा होगा...'

रिसर्च वगैरह नहीं कर पाता। देखी सुनी लिखता हूं। इसलिए कोई ग़लती हो तो बताने की कृपा करें।

शुक्रिया। आपका,

उमाशंकर सिंह

Thursday, June 14, 2007

मधुबनी पेंटिग देखने जापान जाना होगा!

दूसरी कड़ी...

हालांकि अब तक के सारे बदलाव माध्यमगत ही हैं लेकिन इन बदलावों ने कला के स्तर में गुनात्मक गिरावट ला दिया है। चित्रकला अब बड़े पैमाने पर हो रही है। लेकिन यह पहले वाला आकर्षण पैदा नहीं करती।

इसके कई कारण हैं। मूल कारण है इसे मिल जाने वाला वह बाज़ार जिसने इस कला के पीछ काम करने वाली भावना तक को बदल दिया। इसकी मांग को देख कर अधिकांश कलाकार इसे कला के बजाए व्यवसाय की नज़र से देखने लगे। इसमें कलाकारों की कुछ ऐसी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का भी हाथ रहा जिसने उन्हें मधुबनी चित्रकला को सिर्फ जीवकोपार्जन के विकल्प के रुप में अपनाने को बाध्य किया। जितवारपुर गांव के श्री दिवस चंद्र झा का मानना है कि यह जिस रुप में हमें रोज़गार प्रदान करता है वही ठीक है। इनकी शिकायत है कि अच्छा चित्र बना कर इन्होने कई राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पुरस्कार जीते लेकिन इससे इनकी आर्थिक हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। अब इनके पास कम से कम अपना पक्के का मकान तो है।

इसी हालत का फायदा उठा कर कुछ स्थानीय और बाहरी बिचौलियों ने संगठित रुप में इस कला का 'उत्पादन' शुरु कर दिया। उन्होने अपनी संस्थाओं में चित्रकला के लिए ऐसे लोगों को रखा को इस कला का क ख ग भी नहीं जानते। ये लोग संस्थाओं से इसलिए जुड़ गए क्योंकि ये इससे उन्हें पैसे मिलते हैं। रोज़गार के तौर पर इसे लेना ग़लत नहीं है बशर्ते की कला के साथ छेड़छाड़ न की जाए। लेकिन यहां विशुद्द बाज़ारू किस्म की चीज़ों पर पेंटिंग बनाई जाती है। साड़ी, दुपट्टा, मेजपोश, बेडशीट, तकियाखोल, जैकेट कुछ नहीं छूटा। सब कुछ बाज़ार की मांग के हिसाब से तैयार होता है।

बाज़ार में जब इस तरह की पेंटिग पहुंचती है तो लोग मधुबनी पेंटिग के नाम पर इन्हीं चीज़ों से परिचित होते हैं। जानकारी की कमी के कारण व्यवसायिक शैली के इन विकृत चित्रों को लोग खरीद तो लेते हैं कि चलो मधुबनी पेंटिग लेते हैं, लेकिन ये उन्हें वो मानसिक संतुष्टि नहीं दे पाता जो कला के कद्रदान असल में ढ़ूंढ़ते हैं। शायद यही वजह है कि कला के शौकीनों की दिलचस्पी अब मधुबनी चित्रकला में उस तरह की नहीं रही जैसी पहले कभी हुआ करती थी। आधुनिक चित्रकला के सिद्धहस्त मनु पारेख ने कभी मधुबनी चित्रकला में काफी सक्रिय दिलचस्पी ली थी। एक गहराई तक जाने के बाद उन्होने मुझसे कहा था कि 'एक उंचाई पर पहुंचने के बाद उतार अवश्यंभावी होता है। यही मधुबनी चित्रकला के साथ हो रहा है।' बाज़ारीकरण पर उन्होने कहा कि ' इस संदर्भ में कुछ भी नहीं किया जा सकता। व्यावसायिकता समय की मांग है। '

इस हालत के लिए इस कला के वास्तविक कलाकार स्वयं भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। आर्थिक रुप से कमज़ोर कलाकार को जाने दें तो भी वे कलाकार दायरे में आते हैं जो पहले से साधन संपन्न थे या फिर अपनी कलाकारी से संपन्नता प्राप्त कर चुके हैं। उन पर मुख्य रुप से ये आरोप लगाया जा सकता है कि उन्होने अपनी तमाम क्षमताओं के बावजूद इसे सही दिशा में निर्देशित और मार्गदर्शित करने की ज़रुरत को नहीं समझा। नतीज़तन, विकास और परिवर्धन की एक सीमा तक पहुंचने के बाद ये पथभ्रमित सी हो गई और दिशा खो बैठी।

हालांकि अब भी ऐसे कलाकार हैं जो इस कला के प्रति पूरा समर्पण भाव रखते हैं लेकिन उनकी संख्या नगण्यप्राय ही है। रांटी गांव की श्रीमती गोदावरी दत्ता, जिनको कि राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है, ने कई साल पहले मुझसे कहा था कि 'चुंकि सभी लोग अत्यधिक मंहगी पेंटिग नहीं खरीद सकते इसलिए उनके लिए विशुद्ध व्यावसायिक रुप से बनाए गए चित्र ही ठीक हैं। इसलिए व्यावसायिकता आई है तो ठीक ही है।' इसका मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि चित्रकला को हर आदमी तक पहुंचाना चाहिए भले ही उसका रुप विकृत क्यों ना हो जाए! जबकि आम जन तक इस कला को पहुंचाने के और भी कई रास्ते हैं। मधुबनी पेंटिंग का एक संग्रहालय बनाया जा सकता है जो भारत में नहीं है। जापान ने बना लिया है।

मधुबनी चि्त्रकला के सिद्धहस्त और बाल भवन नई दिल्ली से संबद्ध श्री सत्यनारायण लाल 'कर्ण' इस हालत पर गंभीर चिंता जताते हैं। 'यदि इस कला के मूल रुप को बचाना है तो इसके लिए नई पीढ़ी के कलाकारों को इस तरह से प्रशिक्षित करना होगा कि वे इसे कला के रुप में ही लें व्यवसाय के रुप में नहीं।' श्री कर्ण मधुबनी में एक संग्रहालय की ज़रुरत महसूस करते हैं 'नहीं तो बाद की पीढियों को वास्तविक मधुबनी चित्रकला देखने के लिए जापान जाना पड़ेगा जहां एक संग्रहालय बनाया जा चुका है और दुर्भल नमूनों को यहां एकत्र किया जा रहा है।' इसलिए आज सरकार और इससे भी अधिक प्रबुद्ध कलाकारों और स्थानीय समाज की ये ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वे अपनी सांस्कृतिक पहचान और धरोहर को बचाने के लिए आगे आएं।

फिलहाल इतना ही।

Madhubani Painting : विकृत होती कला

मधुबनी चित्रकला को नज़दीक से देखता रहा हूं। इसमें जो बड़े बदलाव हुए हैं उनको पकड़ने की कोशिश की है। आलेख लंबा बन पड़ा है इसलिए दो कड़ियों में दे रहा हूं। पहली कड़ी....

विकाऔर आधुनिकता की दौड़ से सैंकड़ों मील दूर खड़ा उत्तर बिहार का मधुबनी ज़िला अपनी आदर्शभूत पहचान लिए ज्यों का त्यों खड़ा है। कुछेक को छोड़, जो बदलाब यहां नज़र आता है उसकी बानगी अच्छा संकेत नहीं देती। ये बात यहां कि परंपरागत मधुबनी या मिथिला चित्रकला के लिए भी लागू होती है। कला के व्यवसायीकरण का यहां बड़ा असर दिखाई पड़ता है।

मधुबनी चित्रकला कब शुरु हुई इसका ठीक ठीक पता करना मुश्किल है। ऐसा माना जाता है कि ये रामायणकाल में भी अस्तित्व में था। उस समय इस कला का स्वरुप स्वभाविक रुप से पारंपरिक था। शादी-ब्याह, तीज-त्योहार के मौक़े पर घर की मिट्टी की दीवारों पर गोबर और प्राकृतिक रंगों की मदद से चित्र उकेरे जाते थे। मुख्य उद्देश्य घर आंगन को सजाना संवारना ही था। कमोबेश यही स्थिति आधुनिक काल में सन 1964 तक रही।

1964 में ये इलाका अकाल से बुरी तरह प्रभावित हुआ। बहुत से सरकारी और ग़ैर सरकारी लोगों ने इस इलाके का दौरा किया। तब पहली बार बाहरी लोगों का ध्यान इस कला की तरफ गया। जितवारपुर गांव की श्रीमती सीता देवी, जिन्हें इस कला के लिए पहला पद्मश्री सम्मान मिला, अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन मैं उनसे 1995 में मिला था। लंबी बात हुई थी। उन्होने बताया कि उस अकाल के दौरान ही किसी व्यक्ति के आग्रह पर उन्होने मिट्टी की दीवार से इस कला को पहली बार कागज़ पर उतारा। बदले में उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिली।
बदलाव की तरफ ये पहला कदम था। इसके कुछ समय बाद हाथ से बने कागज़ों का बतौर माध्यम धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा। इससे इसे दुनियाभर में फैलने में मदद मिली। लेकिन फैब्रिक कलर के साथ कपड़ों पर भी चित्रकारी की जाने लगी। अब तो हालत ये है कि रेडिमेड कपड़ों के साथ साथ सनमाईका पर भी चित्रकारी की जा रही है।

पहले इस्तेमाल होने वाले प्राकृतिक रंग वनस्पतियों से तैयार किए जाते थे। लाल रंग संध्या के फूल से और हरा रंग पुरैन के पत्ते से निचोड़ा जाता था। इसी तरह अपराजिता फूल से नीला रंग और सिंघाड़ा के पौधे से पीला रंग बनाया जाता था। सिंघाड़ा के पौधे की ही डंठल से नारंगी रंग बनता और और दीए की लौ की कालिख जमा कर काला रंग बनाया जाता था। इस तरह से बने रंग और टिकाऊ बनाने के लिए इनमें केले के पेड़ से निकलने वाला रस या फिर साधारण गोंद मिलाया जाता था। काफी मेहनत से और कम मात्रा में तैयार होने वाले इन रंगों की अपनी पहचान थी जो मधुबनी चित्रकला को विशिष्टता प्रदान करती थी। 'कचनी' (रेखांकन) और 'भरनी' (मोटी कूची से भरे) दोनों ही तरह के चित्रों में इन रंगों का संयमित इस्तेमाल होता था जिससे चित्रकला की विषय-वस्तु की गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति होती थी।

चाहे वो 'कोहबर' (शादी के मौके पर मूल रूप से दीवार पर बनाया जाने वाला शुभ चित्र जिस में बांस, पुरैन के छ पत्ते आदि होते हैं) हो या भगवान कृष्ण की रासलीला का चित्रण, इन सब में रंगों का इस्तेमाल स्वभाविक पृष्ठभूमि पर ऐसी सहजता से होता था क ये हमारे सामने बरबस धर्म और संस्कृति के वास्तविक दृश्य पैदा कर देने में सक्षम प्रतीत होते थे। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। सिंथेटिक और फैब्रिक रंगों के इस्तेमाल ने मधुबनी चित्रकला के रंगों की दुनिया ही बदल दी है। चमकीले रंगों के भड़काऊ इस्तेमाल से ख़रीददार को प्रभावित और आकर्षित करने की ललक ने चित्रकला में पर्याप्त हल्कापन ला दिया है। आंखो को अन्यथा उत्तेजित करने वाले ये चटकीले रंग चित्रकला का बाज़ार फैलाने के उद्देश्य में भले ही सफल रहे हों। लेकिन इतना तय है कि बदले हुए माध्यमों पर रंगों के इस असंतुलित-असंयमित प्रयोग ने चित्रकला की परंपरागत विषय वस्तु पर आक्षेप करना शुरु कर दिया है। तभी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त महासुंदरी देवी के साथ चित्रकारी करने वाली उनकी पुत्रवधु विभा दास का कहना है कि 'परंपरागत और सांस्कृतिक विषयों को चित्रकारी का मूल बनाए रखना आज एक बड़ी चुनौती बन गई है।'

जारी...
दूसरी कड़ी जल्द ही

Tuesday, June 12, 2007

मधुबनी का एक पन्ना

लंबे समय बाद मधुबनी जाने का मौक़ा मिला। यहां बहुत कुछ बदला बदला सा नज़र आता है। टाऊन में भीड़ ज़रुर बढ़ गई है। बाज़ार की जिन सड़कों पर हम हीरो साईकिल सरपट दौड़ाया करते थे वहां अब ज़्यादातर जाम लगा रहता है। अलकतरा की जगह अब सींमेट की सड़क बना दी गई है लेकिन ज़्यादातर सड़क गढ्ढे में तब्दील हो चुकी है। सब उसी में चलना सीख गए हैं।

जहां पहले थोड़ी थोड़ी दूरी पर दूकानें मिला करतीं थीं वहां अब तिल रखने की जगह नहीं। दूकानों के बीच में दूकान। आड़ी दूकानें तिरछी दूकानें। लगता है बाज़ार में दूकानें ठूंस दी गईं हैं और हर दूकान पर भीड़। हां, बाटा चौक पर जहां पहले मोची बैठा करते थे वो अब भी वहीं बैठते हैं। रिमझिम होटल खत्म हो चुका है जहां बाबूजी के साथ जा कर मैं एक रुपये में चार रसगुल्ला और 60 पैसे में फेंटा या कोका कोला पी कर नाक से गैस निकालते हुए लौटता था। अमीरती-कचौरी की वो दूकान तो सालों पहले बंद हो चुकी जहां कचौरी से ज़्यादा में सब्ज़ी खा जाया करता था। बाबूजी के साथ गिलेसन बाज़ार (असल नाम ग्रियर्सन) से सब्ज़ी लेकर लौटते समय रोज़ का नियम था। या तो रिमझिम होटल या फिर अमीरती कचौरी की वो दूकान जिसका कोई साईन बोर्ड भी नहीं था। दूकान के बगल में कुंआ था। उसे भी भर कर उस पर चप्पल जूते की दूकान खड़ी कर दी गई है। ये देख कर अच्छा लगा कि डीलक्स टेलर्स अब भी चल रहा है। मैं अपनी पैंट शर्ट यहीं सिलवाया करता था। अब तो रे़डीमेड की ही लत लग गई है।

जहां अपने मोहल्ले और घर के अगल बगल की खाली ज़मीनों पर हम क्रिकेट और फुटबाल खेला करते थे वहां अब बेहतरीन नक्कासी वाले घर बन गए हैं। उनकी बालकोनी हमारे आंगन में झांकने को हो रहीं हैं। एक तबके के पास पैसा आया है। पर वो बड़ा तबका और बड़ा हो गया है जिसके पास कुछ नहीं है।

टाऊन क्लब मैदान में मैं बचपन में मेनका गांधी को देखने गया था। तब वरूण गांधी पूरे समय अपनी मां की बांयी बाजू से लिपटा रहा था। लोगों की चहारदीवारियों से सिंकुड़ चुके इस मैदान को देख कर वही तस्वीर याद आई। कई बड़े नेताओं के पहली बार इसी मैदान में देखा था। इसके बगल के पोखर को भी भर दिया गया है। दरभंगा महाराज की इस संपत्ति को कहते हैं कि भूमाफियाओं ने हथियाने की कोशिश की है। मामला कोर्ट में चला गया है। पर अगली बार जब जाऊंगा तो हो सकता है यहां भी उंची इमारत मिले।

मेरा स्कूल भी बदल गया है। वाटसन मिडिल स्कूल और वाटसन हाई स्कूल से इसका नाम बदल दिया गया है। ऐसा नाम रख दिया गया जिसे पांच बार पढ़ने के बाद भी मैं याद नहीं रख सका। बस दो शब्द याद हैं देव नारायण..... बिल्डिंग की हालत तो जस की तस है लेकिन नया नाम चमक रहा है। इससे लगता है कि बिहार में सरकार बदलने के बाद की किसी राजनीतिक वजह से ऐसा किया गया है। जैसे बीजेपी वाले शहरों के नामों को लेकर करते हैं। स्कूल के मेन गेट के सामने का ब्रेकर अब भी उतना तगड़ा है। हां वो बोर्ड नदारद है जिस पर लिखा था 'सावधान, सामने स्कूल' है। और एक तिकोना बोर्ड जिसमें एक बच्चा स्कूल जाते हुए दिखता था। इस स्कूल से 1988 में मैंने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। अफसोस किसी मास्टर साहेब से मुलाकात नहीं हुई। गर्मी छुट्टी की वजह से। वैसे तब के कोई मास्टर जी अब तक यहां पढ़ा भी रहे हैं या नहीं पता नहीं चला।

बाबूजी को कचहरी छोड़ने गया। यहां भी भीड़ बढ़ गई है। ज़मीन ज़ायदाद सब कुछ बेच लोग मुकद्दमें जीतने की कोशिश कर रहे हैं। जयनगर से आने वाली दसबजिया इन दिनों नहीं चल रही। ना ही जाने वाली पंचबजिया। छोटी लाईन को बड़ी में बदलने का काम चल रहा है। सो दरभंगा-मधुबनी-जयनगर के बीच रेल सेवा बंद है। लोग उम्मीद लगाए बैठे हैं कि बड़ी लाईन आने के बाद शायद कमाने खटाने का स्कोप बढ़े। नहीं तो उसी ट्रेन में लद कर सीधे दिल्ली तक आने का रास्ता तो खुल ही जाएगा। दरभंगा या पटना जाकर ट्रेन पकड़ने का झंझट नहीं रहेगा।

गंगासागर पोखर का चारों किनारा सींमेंट का बना दिया गया है। काली मंदिर के आसपास पहले जो इंद्रपूजा के दौरान मेला लगता था वो दूकानें अब परमानेंटली यहीं लगीं रहतीं हैं। पहले बाज़ार से लड्डू ला कर चढाना पड़ता था। अब पान की गुमटीनुमा कई दूकानें बन गई हैं। काली मंदिर के ठीक सामने एक हनुमान मंदिर भी खुल गया है। एक दानपात्र यहां भी मुंहखोले मिलता है। चढ़ावे में लोहे की ग्रिल के अंदर हाथ डाल कर फेकें गए पैसों में अठ्ठनी चवन्नी नज़र आ जाती है। दिल्ली में अठ्ठनी दो तो दूकानदार काटने को दौड़ते हैं।

इस छोटे से शहर में आए बदलाव पर बड़े पन्ने रंगे जा सकते हैं। पर फिलहाल इतना ही। जल्द ही आपको मधुबनी पेंटिग्स में आए बदलाव के बारे में बताऊंगा। फिलहाल वापस आकर दिल्ली में रोज़ी रोटी में जुट गया हूं। अगला राष्ट्रपति कौन होगा इस पर कयासों का दौर चल रहा है। मैं भी गला खंगाल रहा हूं। उधर मेरा शहर अपनी नींद सो रहा है।

Saturday, June 9, 2007

बिहार में लालू की रेल

रेल मंत्री लालू यादव देश-दुनिया में अपने मैनेजमेंट स्किल का लोहा मनवाने पर तुले हैं। आए दिन ख़बर आती है कि अमेरिका की फलां यूनिवर्सिटी ने लालू को बुलाया, तो फ्रांस के फलां स्कूल आॅफ बिजनेस ने। लालू आईआईएम अहमदाबाद भी हो आए। पर मुझे लगता है कि लालू के तथाकथिक मैनेजमेंट स्किल से सबसे ज़्यादा किसी ने सीखा है तो वो है बिहार के वो लोग जो ट्रेन में बिना टिकट सफर करते हैं। जेनरल तो जेनरल, एसी कोच में भी वो बिना टिकट या बिना सही टिकट के घुस जाते हैं। वाह! क्या मैनेज करते हैं। टीटीई भी उनके मुंह नहीं लगता। आलम तो ऐसा भी होता है कि जिसका रिजर्वेशन वो बेचारा खड़ा रहता है और गुंडे मवाली सीट पर पसर जाते हैं। आंखों देखी कह रहा हूं। कल ही मगध एक्सप्रेस ले लौटा हूं।

लालू जी, जब तक अपने गृह राज्य में सफ़र करने वाले मुसाफिरों की सहूलियत और उनमें सुरक्षा का भाव नहीं भरेगें जब तक आप दुनिया क्या जीतेगें। रेल को हज़ारों करोड़ के मुनाफे में ले जाएं लेकिन आपकी असली कमाई आपके राज्य में नज़र आती है। ये हमारा भी राज्य है इसलिए शर्म आती है।

Friday, June 1, 2007

चल मेरे संग बिहार तू!

बिहार की तरफ चलते हुए अचानक अपनी एक पुरानी तुकबंदी याद आ गई। इसे अक्सर मैं दिल्ली में मुश्किलों में घिरे, परेशान यार-दोस्तों-जानकारों को सुना कर हंसाने की कोशिश करता हूं। आज आप सबों के साथ बांट रहा हूं...

दुर्गम्य पथ के क्लांत पथिक मत शून्य को निहार तू
दिल्ली में परेशान हैं तो चल मेरे संग बिहार तू।

कुछ कर गुज़रने की ख़्वाहिश ले आया तुम्हें इस शहर में
यहां दर दर भटका तू आठों पहर में

महानगर है देता है दर्द हमेशा
फरेब यहां हर किसी का है पेशा

इससे पहले कि तू भी बन जाए इनके जैसा
अपनी जड़ों को पहचान... हालात से ख़ुद को उबार तू

दिल्ली में परेशान हैं तो चल मेरे संग बिहार तू

मैनेज करना तूने बेशक सीखा हो
पर सीख सका ना चाटुकारिता

जहां मिलानी थी हां में हां
तू खोल बैठ गया गीता

आदर्श भरी बातों से कर चुका अपना बंटाधार तू
मत कर और टाईम खोटा असलियत को स्वीकार तू

दिल्ली में परेशान है तो मेरे संग बिहार तू

यूं तो ये प्रदेश भी रहा है सदियों से बीमार
पर लालू जा चुके और आए हैं नीतीश कुमार

दावा है बदल देगें तस्वीर
चला के अपने तीर

जंगलराज के ख़ौफ से मत अपना मन मार तू
उम्मीदों को दे एक नया आकार तू

दिल्ली में परेशान है तो चल मेरे संग बिहार तू

कहते हैं यहां गुंडागर्दी है... करप्शन है... डूब जाती है नैय्या
लेकिन यहां के बड़े बदमाश भी दिल्ली में कहलाते हैं छुटभैय्या

अपने संस्कार को बचा... मत कर उस लाईन को अख़्तियार तू
नहीं तो मौक़े तलाशता पहुंच जाएगा तिहाड़ तू

दिल्ली में परेशान है तो चल मेरे संग बिहार तू


उम्मीद है आप सब भी मुस्कुरा रहे होगें। लौट के मिलता हूं।

शुक्रिया

राजस्थान होता जा रहा है!

राजस्थान पिछले कई दिनों से जल रहा है। 17-18 साल पहले सा नज़ारा दिख रहा है। तब मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू किए जाने के बाद आग लगी थी। आज गुर्जर ख़ुद को एसटी में शामिल करने की मांग के साथ सड़कों पर हैं। सरकार के खिलाफ शुरु हुई लड़ाई अब गुर्जर बनाम मीणा में तब्दील होती जा रही है। ब्ला...ब्ला... ब्ला....

इन्हीं सब बातों को लेकर तहसीन मुनाव्वर जी से बात हो रही थी। उनका ख्याल है कि

बहुत नुक्सान होता जा रहा है
शहर सुनसान होता जा रहा है
ये कैसी आग सी दिल में लगी है
ये राजस्थान होता जा रहा है!

पूरी समस्या को उन्होने चंद शब्दों में ऐसे बयां कर दिया जैसा करने के लिए मैं पता नहीं कितने कागद कारे करता और आपका क़ीमती वक्त बर्बाद। अब आपके और मुनाव्वर जी के बीच ज़्यादा न आते हुए सीधे संपर्क का ज़रिया बता देता हूं। तहसीन मुनाव्वर जी लंम्बे समय से मीडिया से जुड़े हैं। दूरदर्शन पर उर्दू की ख़बरें पढ़ते हुए देखे जाते हैं। लिखते-पढ़ते रहते हैं लिहाज़ा मेरे जैसों के चक्कर में फंस गए हैं। वे नीचे के दो ठिकानों पर पाए जाते हैं जहां उन्हें कभी भी पकड़ा जा सकता है।

http://www.youtube.com/watch?v=I3ybRYXrygo

http://www.hindustanexpressdaily.com/aajka_qata.htm

शुक्रिया