Thursday, May 31, 2007
BMW मतलब Biko-Mat-Wakeelsahab!!!
न्यापालिका की सक्रियता के चलते जनहित से जुड़े बड़े बड़े मामलों पर कार्रवाई हुई है। लेकिन ये भी सच है कि न्यापालिका भी भ्रष्टाचार व्याप्त है। मीडिया की जद में हर कोई आता है लेकिन अब तक न्यापालिका में बैठे दलालों-घूसखोरों के पर्दाफ़ाश के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया गया है। न्यापालिका में बड़ी तादाद में ईमानदार और न्याय का साथ देने लोग भी हैं। इसलिए किसी एक के चलते पूरी न्यापालिका पर कीचड़ उछालने से बचना भी ज़रुरी है। कंटेम्प्ट आफ कोर्ट का का डंडा भी काफी मज़बूत है। ये मानना भी ठीक नहीं कि इस ख़बर के साथ ही न्यापालिका से छन कर आती भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया का रुख वैसा ही हो जाएगा जैसा कार्यपालिका और विधायिका को लेकर रहता है। लेकिन मौक़े को ऐसे भी नहीं जाने देना चाहिए। भेद को आगे भी खोलना चाहिए।
न्यापालिका में फैले ग़लत आचरणों के खिलाफ मीडिया के तनने पर एक अंदेशा जो सताता है वो ये कि पहले से ही तपी तपायी विधायिका इस मौके का फायदा उठा कर और हालात को बरगला कर मीडिया पर कानूनी शिकंजा कसने की कोशिश ना करे। संसद में पहले भी स्टिंग आपरेशन जैसी चीज़ों पर पाबंदी लगाने की मांग उठायी जा चुकी है। ऐसा नहीं है कि स्टिंग आपरेशन ही मीडिया का एकमात्र नखदंत है। पर इन तरह के आपरेशन्स के ज़रिए कई रोग साफ साफ दिख, देखे और दिखाए जाते हैं। अगर सनसनी पर संयम बरता जाए और व्यक्तिगत जिंदगी में ग़ैरज़रुरी ताकाझांकी से बचा जाए तो इसे और प्रभावशाली और अपेक्षाकृत कम आलोचित होने वाला हथियार बनाया जा सकता है। एनडीटीवी के इस स्टिंग आपरेशन की यही ख़ासियत है कि इसमें कोई व्यक्तिगत आग्रह दुराग्रह में नहीं फंसा गया है। ऐसे मामलों में अक्सर जद में आया व्यक्ति दलील देने लगता है कि टेप बनावटी है इसकी जांच करायी जाए। इसमें तस्वीर आवाज़ मेरी नहीं मुझे फंसाया जा रहा है। लेकिन यहां आरके आनंद भी मान रहे हैं कि वे कैमरे में कैद हैं और आयू खान भी अपनी कही बात से इंकार नहीं कर रहे। पर वे इसका विश्लषण इस तरह से कर रहे हैं कि अपनी साख बचायी जा सके। अब अदालत इस पूरे मामले की अपनी तरह से पड़ताल कर नतीज़े पर पहुंचेगी और तब तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाएगी।
महत्वपूर्ण बात है कि एनडीटीवी की इस ख़बर पर दूसरे चैनलों ने भी आवाज़ उठायी है। आईबीएन सेवेन ने ख़ास तौर पर। नहीं तो देखने में ये आता है कि एक चैनल की ख़बर मान कर दूसरे चुप्पी साध लेते हैं। पर ख़बर तो ख़बर होती है इसकी या उसकी नहीं होती। देश के हित में होती है। शुरुआत कोई कर सकता है पर सबके साथ आ जाने में बुराई नहीं है। आते भी हैं। आजतक पर जब सवाल के बदले सांसदों को पैसे मांगते दिखाया गया था तब भी इसी तरह की एका दिखी थी चैनलों में। वो ख़बर सबने पकड़ी। अभियान-सा बन गया। दस सांसद निकाल दिए गए। स्टार न्यूज़ के मुंबई दफ्तर पर हमला हुआ तो सबों ने एक तरह से उस चैनल को आपने पर पैच कर दिया। सरकार को कड़े कदम उठाने पड़े। यही मीडिया की ताक़त है और ये तब और बढ़ जाती है जब सब मिल कर आवाज़ बुलंद करते हैं।
फिलहाल व्यापक प्रभाव पैदा कर सकने की कूवत रखने वाली ख़बरों को मिलाजुला अभियान बनाने की तरफ कुछ क़दम बढ़ते दिखाई पड़ रहे हैं। मौजूदा हालात में ये एक महज संयोग भी हो सकता है या कुछ कैलकुलेटिव मूव भी... पर व्यवस्था दलालों के खिलाफ अभियान को संस्थागत रुप देने की ज़रुरत है। आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी चलती रहे तो इसे परस्पर विरोधाभासी नहीं कहा जा सकता।
Tuesday, May 29, 2007
परी तो बच गई पर प्यार खेत रहा
अपने मक़सद में क़ामयाब होने के लिए इस ख़बर के कलमकारों को बधाई!
आज इतना ही।
Monday, May 28, 2007
परी को बचाओ! सब मिल कर बचाओ!
मुझे लग रहा है कि ये समय है मीडिया को एक जुटता दिखाने का। प्रेस पर हमले और कई तरह के तनाजे को लेकर मीडिया पहले से ही एकजुटता दिखाती रही है। लेकिन जब मैं एकजुटता दिखाने की बात कर रहा हूं तो मेरा मतलब है कि दो अलग अलग धर्मों के जोड़े की शादी और उसके बाद उनके साथ परिवार और समाज के व्यवहार से जुड़ी इस ख़बर को एक साथ मिल कर दिखाने की एकजुटता। बदमाशों की करतूत और पुलिसिया निकम्मेपन के ख़िलाफ एक कैंपेन छेड़ देने की एकजुटता। और सिर्फ इस एक ख़बर के लिए नहीं बल्कि ऐसी तमाम ख़बरों को दिखाने की एकजुटता जो आयीं किसी चैनल के पास बेशक अपने ज़रिए से हो लेकिन उस ख़बर का दूरगामी असर हो। सबको मिल कर रार छेड़ देनी चाहिए। कईयों को... ख़ासतौर पर वो जो ख़बर को सिर्फ और सिर्फ व्यापार के नज़रिए से देखते हैं... उनको मेरी बात अटपटी लग सकती है। कई तर्क दे सकते हैं कि जो किसी एक चैनल का 'एक्सक्लुसिव' है भला दूसरा-तीसरा चैनल उस में हाथ क्यों डालेगा। एक चैनल जिसे अपनी ख़बर बताए जा रहा हो तो दूसरा जूठन खाने क्यों आएगा...?
लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा करना वक्त की ज़रुरत है। अभी बेशक हम ना समझें। लेकिन किसी एक दिन समझना पड़ेगा। इसी मामले की बात करें तो आरोप गंभीर हैं। धर्म से ऊपर उठ कर एक जोड़े ने प्यार किया। जान को ख़तरा लगा तो शिकायत की। लेकिन बुलंदशहर की स्थानीय पुलिस औऱ प्रशासन ने कोई मदद नहीं मिली। जोड़ा भाग कर दिल्ली आया और शादी कर ली। पति के सामने पत्नी को अग़वा लिया गया है। स्थानीय दिल्ली पुलिस से कोई मदद नहीं। चैनल अपने बूते पूरी कोशिश कर रहा है एक नवविवाहित जोड़े की मदद की। लड़का शिकायत लेकर पुलिस चौकी में खड़ा है। आला अफ़सर घरों में सो रहे हैं या फिर टेर नहीं रहे। किसी तरह का भरोसा तक नहीं। मदद के लिए जाया जाए तो कहां। लड़की को ले जाने वाले उसकी जान ले लेने की धमकी तक दे गए हैं। यानि कम से कम एक जान तो खतरे में है। उसका पति परेशान है। उसे परेशान देख कई संवेदनशील दर्शक परेशान हो गए होगें। लेकिन उसी समय न्यूज़ चैनल बदलो तो किसी एक चैनल पर लाफ्टर शो आ रहा है। कहीं सुनील पाल हंसा रहा है तो कहीं महिला ज्योतिषी दर्शकों का आज का भविष्य बता रहीं हैं। अरे आधी रात को घऱों में सो रहे लोगों के भविष्य को छोड़ो। जैसा होगा वे कल जी लेगें। आज एक साथ तन कर उनकी बात करो जिनकी जान ख़तरे में है। जिनकी मदद को पुलिस भी तैयार नज़र नहीं आ रही।
जानता हूं की सभी चैनल अपने तयशुदा रनडाउन और एफपीसी के हिसाब से चलते हैं। मौजूदा व्यवस्था में इस क़ायदे पर सवाल उठाने वाले किसी व्यक्ति को बतुका जा सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि कई बार तयशुदा रनडाऊन और चैनलों की आपसी प्रतिस्पर्धा से बाहर झांक कर... ऊपर उठ कर देखना समाज के हित में होगा। पीड़ितों के हित में होगा। मानवता के हित में होगा। भगवान ना करे ऐसा हो, लेकिन कल को अगर उस लड़की को कुछ हो गया तो क्या सभी चैनल वाले ये कह कर उस ख़बर को हाथ नहीं लगाएगें कि ये फलां चैनल की ख़बर थी? क्या तब भी हाथ नहीं लगाएगें जब ये बात और खुल कर आ चुकी होगी की उस लड़की के अपहरण के पीछे किसी एमएलए का हाथ है? तब तो सभी को इस ख़बर में हाथ लगाना पड़ेगा। डेढ़-दो मिनट का एक पैकेज बनाना पड़ेगा। तो तब तो अब क्यों नहीं। अंतर ये होगा कि तब शायद कुछ नहीं बचेगा बचाने को। अभी एकजुट हो कर आवाज़ उठाएं तो शायद प्रशासन-सियासतदानों की नींद खुले। कार्रवाई करने को वो मजबूर हो जाएं।
कई बड़े हादसे-दंगे-घोटाले की ख़बर जब सभी मिल कर साथ चलाते हैं तो उसका असर भी जल्द देखने को मिलता है। तेज़ी से कार्रवाई होती है। महकमे हरकत में आते हैं। लेकिन सिर्फ किसी 'इवेंट' को साथ मिल कर दिखाने से व्यवस्था को उनका एकाउंटिबल नहीं बनाया जा सकता... ये तो हम में से कई महसूस करते होगें... बल्कि अचानक छन कर आयी इस तरह की ख़बरों में भी एकजुटता दिखानी होगी। ख़बर को आपस में बांटो मत कि मेरी ख़बर ये तेरी ख़बर...बल्कि मिल कर दिखाओ। 'हैं कुर्सी पर जलवागर जो लोग, न जाने क्यों उन्हें ऊंचा सुनाई देता है'... इसलिए सबको साथ खड़े होकर आवाज़ लगानी चाहिए... ये समय की मांग है। जब तक इस बात को समझा ना जाए तब तक तो हम इस नवविवाहित जोड़े के लिए दुआ ही कर सकते हैं।
Saturday, May 26, 2007
रंग बदला, तेवर नहीं
दूसरी ने पलट कर कहा, 'त्वचा का रंग नीला पड़ गया तो क्या हुआ। मन थोड़े ही नीला पड़ा है। बल्कि ये तो मेरे अंदर के ज़हर को ही दर्शाता है। और मेरे ड्राईवर की धमनियों में बहने वाला रक्त तो अभी भी रेड ही है। उसकी तो त्वचा का रंग भी नहीं बदला। मानसिकता बदलने की बात तो दूर। वह तो अभी भी मेरी स्टीयरिंग और एक्सिलेटर के साथ वैसी ही अठखेलियां करता है, जैसी पहले किया करता था। ब्रेक लगाने के मामले में वो अब भी वैसा ही बेपरवाह है। कभी तो झटके से लगा देता है...कभी लगाता ही नहीं। सचमुच बड़ा झेड़ता है मुझे। कंडक्टर सवारियों को पूर्व की भांति ही मुझमें ठूंसता रहता है। हैल्पर मुझ पर थाप देकर और सिटी बजा कर मेरी गति को और रोमांचकारी बना देता है। वो तो शुक्र है कि हम टाटा और लीलैंड जैसे घरानों में पैदा हुए हैं वर्ना.....।' लेकिन सुना है अब तुममें स्पीड कंट्रोलर नामक कोई यंत्र लगाया जा रहा है। अब तुम पहले की तरह अपना तेवर नहीं दिखा पाओगी।'
'अरे छोड़ो ये सब कहने की बातें हैं। मन को कौन बांध पाया है भला। मेरा ड्राईवर बड़ा होशियार है। दिपु (दिल्ली पुलिस) को देखते ही यंत्र का कनेक्शन कर देता है। और उसके गुज़रते ही हटा देता है। हमारे आपरेटर कुछ दिनों में कुछ ऐसा आविष्कार कर ही लेगें जिससे ये आटोमैटिक हो जाए। अर्थात जिप्सी को देखते ही 40 की स्पी़ड नहीं तो इस्केप वेलोसिटी! और फिर हमारे सभी आपरेटर प्रत्येक रेड लाईट एवं गोलचक्कर पर हर महीने 100 रुपये दक्षिणा क्यों देते हैं। सिर्फ इसलिए न कि मैं बेधड़ रेड लाईट जंप कर सकूं। अपने पायदानों पर भी सवारियों को यात्रा सुख दे सकूं। नियत गति से तेज़ चल सकूं। कहने का मतलब की राजधानी की सड़कों पर मनमानी कर सकूं।'
नंगे को नहला लो बेशक, पर निचोड़ोगे क्या?
भाई अविनाश के मोहल्ले पर आचार्य गिरिराज किशोर का इंटरव्यू है। पढ़ा। अच्छा है। पर ये पोस्ट इंटरव्यू लेने वाले की अपनी सीमा को भी दर्शाता है। आचार्य गिरीराज किशोर की लाईन को कौन है जो पहले से नहीं जानता है। क्या नया कह दिया उन्होने? क्या नया पूछ लिया गया उनसे? पहले से खिंची लाईन पर शब्दाडंबर के नए ग्राफिक्स पर इतराने वाले बहुतेरे हैं। पर समस्या के बहुआयामी परिदृश्य में झांकने वाले कम। ऐसा कहने पर कई मुझे हिंदूवादी कट्टरवादी ठहरा सकते हैं। मुझे अफसोस नहीं होगा क्योंकि मैंने आतंकवादियों को भी नज़दीक से देखा है और धर्म को भी... मुझे जानने वाले बेहतर जानते हैं और नहीं जानने वालों का शक तब तक जायज़ है जब कि ठीक तरह से मुझे जान ना लें। ( न जानने की निष्क्रियता ज़िम्मेदार मैं नहीं) मेरा अनुभव कहता है कि आतंकवाद का मामला धर्म से जितना जुड़ा है उससे ज़्यादा अर्थ से जुड़ गया है... जुड़ता जा रहा है। आतंकवाद ने एक अपना पंथ (या कहें कि कुपंथ...पर शायद ये शब्द कईयों को ना पचे) क्रिएट कर लिया है। इसलिए ये साबित करने की बजाय कि हिंदू भी बराबर के या ज़्यादा बड़े आंतकवादी हैं... ये साबित करने की कोशिश होनी चाहिए की आतंकवादी आतंकवादी हैं चाहे वो हिंदू हों मुसलमान हों...सिख हों या ईसाई।
पर गिरिराज जैसों की बात कर पूरे हिंदुत्व को गलियाने का एक शगल बन चुका है। इससे गलियाने वाले को नोटिस मिलता है। ख़ासतौर पर उनको जो इसकी पूंछ पकड़ समस्या की वैतरणी को पार करते दिखना चाहते हैं... कि शायद उनका नाम भी सच्चे, सहिष्णु, उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष, मानवाधिकारवादी... भारतीय में शामिल हो जाए। ऐसा करने के से कोई हिंदू फेनेटिक भी आपको नहीं कहेगा क्योंकि उनको पहले ही उनकी औक़ात बता दी गई है। आप जैसों के ज़रिए उनको अपने तरीक़े से 'एक्सपोज़' भी कर दिया गया है। पर आपके ऐसे ही सवाल किसी और धर्म के झंडाबरदार से पूछ कर इसी तरह की स्वीकारोक्ति वाला जवाब ला दो तो मानें। पर उसकी ज़रुरत नहीं क्योंकि वो अभी की लेखनी को लुभाता नहीं।
शायद आप में से किसी को पता हो कि जब जम्मू में एक हिंदू पकड़ा गया था आतंकवादियों की मदद के आरोप में तो क्या कहा गया था...कश्मीर का पहला हिंदू आतंकवादी... पर ये ग़लत। मैंने ऐसा भी देखा है कि जिनके पास खाकी है... चाहे वो हिंदू हैं या मुसलमान... वो कानून को हालात के मुताबिक इस्तेमाल कर ज़्यादा आतंक फैलाते हैं। पर उन पर सवाल उठाने का माद्दा नहीं। हिंदू समेत तमाम धर्म में आतंकवादी शायद प्राचीन काल से ही भरे पड़े हैं। समय और ज़रुरत के हिसाब से उनकी व्याख्याएं बदलती रहीं हैं। उनकी पहचान कब किस रुप में हो पायी या नहीं... ये अलग बात है। पर अभी समस्या ज़्यादा गंभीर हो चली है क्योंकि मौजूदा सभ्य समाज में सरहदों का ज़्यादा वस्तुनिष्ठ सरोकार इससे ज़्यादा जुड़ गया है।
पर एक बात है कि पहले से ही नंगे को नंगा पर अपना कुर्ता सफेद झक दिखाने की कोशिश करने वाले बधाई के पात्र बेशक बन जाएं...लेकिन धर्मनिरपेक्ष कहला कर आतंकवाद को संरक्षण देने वालों में से एक का भी ऐसा इंटरव्यू वो ला पाएं तो वे वैचारिक स्तर पर ज़्यादा भरे-पूरे नज़र आएगें। पर क्या है कि इस देश मे एक धारा चल पड़ी है कि जो घोषित लतखोर हैं उनको और लात मारो तो अपना एक पाठकवर्ग है जो सराहता है। असल में कुछ नया लाना है तो उनको सामने लाओ जो धर्मनिरपेक्षता का चोगा पहन कर तथाकथित बुद्दिजीवियों का इस्तेमाल करना जान गया है। और ये दो टके के हिंदूवादी थोड़े से नानुकुर के बाद सुलभ उपलब्ध हो जाते हैं। इतना ही नहीं अपनी वैचारिक नग्नता दिखाने में भी नहीं हिचकते। उनसे टके दो टके की बात कर कलमकार अपने को धन्य समझता है। अरे कलम और दिमाग के इतने ही धनी हो तो जाओ किसी सैफुल्ला का इंटरव्यू कर लाओ जो पीरपंजाल की पहाड़ियों पर या किसी अनजान जगह पर बैठ कर केनवुड सेट पर फ़रमान जारी करता है कि दस कांपियां (नए लड़के) चाहिए जो एक महीने बाद किताब (प्रशिक्षित आतंकवादी) बन सकें। शिक्षा की कमी के चलते जिहाद की आड़ मे वो दस-बीस ऐसे को तैयार भी कर लेते हैं। पर इंटरव्यू लेने वाले और हम जैसे पढ़ने वाले में से गिरिराज जी की बातों में शायद कोई नहीं आता। तुलनात्मक रुप में बेहतर शिक्षा ने हिंदू धर्म को अपेक्षाकृत सहिष्णु बनाया है। (इस बात को ना मानने वाले मुझे दुत्कार सकते हैं...उनको जवाब दिया जाएगा) तो फिर आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला कौन हुआ। जो बरगलता है वो या जो बरगला सकने लायक हालात का ज़िम्मेदार है वो?
आगे भी लिखुंगा। आप सबों की सलाह का इंतज़ार है।
Friday, May 25, 2007
किसका सौदा सच्चा? किसका झूठा?
Thursday, May 17, 2007
देवताओं की साठगांठ!
जीवन
जेठ भरी दुपहरिया
सूरज की तीखी किरणों के समक्ष
खिन्न मन संघर्ष की सोचता
शायद आग के अस्तित्व को ही समाप्त करने को आतुर
इंद्र की तरफ अपेक्षित निगाह से ताकता
इस बात से अनभिज्ञ
कि इंद्र और सूर्य का हिस्सा बंटा हुआ है
तभी तो कभी ना बुझने वाला सूर्य
बादलों के बीच अपने को निस्तेज़ कर लेता है
और तब सूर्य के अस्तित्व को स्वीकारता इंद्र-कण
अपने सीने पर सतरंगी लकीरें खींच डालता है
पर एक दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारते हुए भी
वे जीवन में कभी साथ नहीं आते
शायद पोल खुलने का भय है
देवता कहला कर भी वे एक नहीं हो पाए
नेताओं को क्या ताना दें!
(बादलों के बीच सूरज की इस तस्वीर की ख़ासियत ये है कि ये मोबाईल फोन कैमरे से ली गई है। ये कलाकारी है हमारे मित्र नीरज गुप्ता जी की है... उनसे सहमति लिए बग़ैर इस्तेमाल कर रहा हूं... उनको बताना मत)
Monday, May 14, 2007
ये कैसी वेदना है?
ये कैसी वेदना है?
घुटन हो रही है, चीख लोगों तक नहीं पहुंच सकती
समस्त हवन सामग्री
अभी धू धू कर जली नहीं है तिल तिल कर सुलग रही है
शायद चिता की चन्द उन लकड़ियों के समान
जो कल तक एक सम्पूर्ण तना था
नियति ने उसे विच्छिन्न कर दिया है
पर अभी भी वह अपने शिराओं से प्राप्त खनिज से गीला है
झोंक दिया गया है उसे उस जगत में
हवा और धूप झेल चुके उन अभ्यासवृद्ध सूखी लकड़ियों के साथ
जो जलना जानते हैं और जल रहे हैं
भले ही उनकी अग्नि किसी निष्प्राण शरीर को ही जला रही है
उनकी पूछ है, वे काम के हैं
पर मत भूलो
जीवन जेठ की दुपहरिया में इनकी नीरवता भी समाप्त हो जाएगी
ये भी प्रज्वलित हो उठेगें
हो सकता है कि लापरवाही में इनकी लपटें
घर के छप्पड़ तक पहुंच जाएं
तब मत कहना कि
भोजन पकाने वाला वही आग
सर्वनाशी भी है!
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
valleyoftruth.blogspot.com
Saturday, May 12, 2007
आप ब्लॅागिंग क्यों करते हैं
मैं ब्लॅागिंग की दुनिया में नया हूं। अपना ब्लॅाग शुरु करने के पहले मेरे लिए ब्लॅाग का मतलब सिर्फ मोहल्ला था जहां मैं टीवी पत्रकारिता के मौजूदा ट्रेंड पर अपने विचार रखा करता हूं। मैं पिछले क़रीब 11 साल से टीवी पत्राकारिता में हूं और पिछले पांच साल से एनडीटीवी से जुड़ा हूं।
अपना ब्लॅाग लिखने के पीछे मेरी मंशा कश्मीर में बिताए क़रीब ढ़ाई साल की अपनी यादों को समेटना है और आगे चल कर इसे एक किताब का रूप देना है। इस दौरान जो आपका बहुमूल्य और अर्थपूर्ण टिप्पणी, सुझाव, अनुभव या फिर शिकायत, जो भी कुछ मुझे मिलेगा उसे उस किताब में शामिल करुंगा। इसकी शुरुआत मैंने भारत-अक्सई चिन सीमा स्थित चुसूल की अपनी यात्रा से की है। वैसे कश्मीर से अलग... जब कुछ नया, कुछ ख़ास अनुभव होता है तो वो भी आपके सामने रखने की कोशिश करता हूं।
मैं आप सबों से, जो अपना ब्लॅाग लिखते हैं या फिर दूसरों का लिखा पढ़ते हैं, ये जानना चाहता हूं कि ब्लॅागिंग के पीछे आपका मक़सद क्या है। ज़ाहिर है अपने विचार से दूसरों को अवगत कराना और दूसरों से विचारों को जानना ये तो मोटा आधार होगा ही... लेकिन किस ख़ास मक़सद से आपने ब्लॅाग की दुनिया में आए हैं। ये मैं आप सबों से जानना चाहता हूं।
मैंने देखा है कि हिंन्दी ब्लॅाग्स की तादाद सैंकड़ों में है। कुछ तो वाकई बड़े अच्छे हैं और देश विदेश में काफी लोकप्रिय भी प्रतीत होते हैं। आप सब अगर चंद पंक्तियों में ब्लॅागिंग के पीछे अपने मक़सद को अपने शब्दों में बता पाएं तो उसका इस्तेमाल मैं ब्लॅाग पर अपने एक शोध के लिए करना चाहूंगा।
एक निवेदन उन लोगों से भी है जो शायद अपना ब्लॅाग नहीं लिखते हैं लेकिन दूसरों का लिखा बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते और उसपर अपनी टिप्पणी भी देते हैं। देश और ख़ास तौर पर विदेशों में रहने वाले पाठकों से ये जानना चाहूंगा कि आखिर ब्लॅाग उनकी किस ज़रुरत को पूरा करता है।
अगर आपसब मेरे इस निवेदन को स्वीकारेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा। हो सकता है कि इसके ज़रिए हम ब्लॅाग के अपने सभी साथियों के बीच कुछ रोचक जानकारी बांट सकें।
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
valleyoftruth.blogspot.com
Wednesday, May 9, 2007
A380 का पूरा सीक्वेंस!
जैसे ही मुंबई से लौटा आॅफिस की एक सहयोगी ने पूछा कि कैसा है हवाई जहाज। मैंने कहा कैसे बताऊं। फिर उसे लगा बताने कि सोचो। जैसा अक्सर किसी पिक्चर में होता है कि विलने से बचने के लिए हिरोईन ट्रेन पर सवार हो जाती है। विलेन पीछा जारी रखता है। हिरोईन अलग अलग कूपों और डिब्बों छिपती छिपाती फिर रही है। विलेन टाॅयलेट तक में उसे ढूंढने की कोशिश करता है लेकिन उसके चंगुल में आने से बचने की कोशिश करती रहती है। ऐसा कोई सीन याद करो और ट्रेन की जगह इस प्लेन को रख दो। तो कहानी कुछ ऐसी बनेगी।
एक विलेन हिरोईन का पीछा कर रहा है। हिरोईन भागते भागते एयरपोर्ट पहुंचती है। छिपते छिपाते किसी तरह कारगो ट्राली में बैठ तक वो एक एयरक्राफ्ट तक पहुंच जाती है। वो एयरक्राफ्ट एयरबस A380 होता है। पीछे विलेन भी आ रहा होता है। हिरोइन हवाई जहाज के पहियों के बीच अपने को छिपा लेती है। 22 जोड़े पहिए हैं इस हवाई जहाज में। इनके बीच से छुप कर निकलते हुए वो एक स्टेप लैडर तक पहुंचती है। इस प्लेन में सोलह दरवाज़े हैं। इसलिए स्टेप लैडर भी कई हैं। जहां स्टाफ कम है वो वहां से उपर निकल जाती है। एयर क्राफ्ट के भीतर घुसती है। वो एक दरवाज़े से घुसती है। विलेन दूसरे से घुसता है। हिरोईन पहले अपने को एक्जक्यूटिव क्लास की बड़ी सीटों को पीछे छिपाने की कोशिश करती है। विलेन उसे तलाश रहा है। हिरोईन को लगता है कि वो यहां पकड़ी जाएगी। वो वहां से उठती है तो एक एयर हाॅस्टेस से टकरा जाती है। आहट होती है कि विलेन उधर लपकता है। हिरोइन तब तक एयर हाॅस्टेस को अपनी व्यथा बता कर मदद मांगती रही होती है। विलेन दौड़ता कर आ रहा होता है। एयरहाॅस्टेस हिरोईन को पीछे की तरफ जाने का इशारा करती है। वो बेतहाशा भागती है। पीछे विलेन आगे हिरोईन। वो एक केबिन के दोतीन चक्कर लगाती है। फिर अगले केबिन की तरफ भागती है। दो... तीन... चार... केबिन पार करने के बाद उसे पर्दा दिखाई पड़ता है। वो अपने आप को उसके पीछे छिपा लेती है। विलेन के नज़दीक आने की आहट तेज़ होती जा रही है। वो तेज़ सांस ले रही है। उसे लगता है कि अब तो पकड़ी जाएगी। तभी उसे कुछ सीढ़ियां नज़र आती हैं। वो उस तरफ दबे पांव से बढ़ती है। एक रास्ता उपर की तरफ जाता दिखाई पड़ता है। किसी अनिष्ट की आशंका के बीच वो धीरे धीरे उपर चढ़ना शुरु करती है।
तब तक विलेन पर्दे के पास पहुंच जाता है। विलेन को लगता है कि अब कहां जाएगी। ये तो प्लेन का सबसे पिछला हिस्सा है। अब तो पकड़ में आ ही जाएगी। वो एक हाथ में पिस्तौल पर पकड़ मज़बूत करते हुए दूसरा हाथ पर्दे पर दे मारता है। पर पीछे कोई नहीं मिलता कुछ नहीं मिलता। तब तक हिरोइन हवाई जहाज़ के उपरी डेक पर पहुंच गई होती है। वो अपने को एक टाॅयलेट में बंद कर लेती है। लेकिन उसे लगता है कि यहां वो सुरक्षित नहीं है। विलेन पहुंच गया तो कोई चीख पुकार भी सुनने वाला नहीं क्योंकि उपरी डेक बिल्कुल खाली है। वो टाॅयलेट से निकलती है। खिड़कियों से बाहर देखते हुए आगे बढ़ती है। 220 खिड़कियां हैं इस डबल डेकर विमान में। हिरोईन को उम्मीद है कि हीरो मदद के लिए आएगा। तब तक विलेन को भी सीढी का पता चल चुका होता है। बूट खड़काते हुए वो सीढियां चढ़ने लगता है। हिरोइन आगे की तरफ भागती है। अब उसमें ज़्यादा दम नहीं बचा। सांस फूल रही है। वो जितना भाग सकती है भाग लेना चाहती है। सैंकड़ों सीट को पार कर वो उपरी डेक पर आगे की तरफ पहुंच जाती है। तब तक विलेन एक एक टाॅयलेट का दरवाज़ा झटके से खोल कर उसे में ढूंढ रहा। एक का दरवाज़ा अंदर से बंद मिलता है। विलेन को लगता है कि उसकी शिकार यहीं छिपी है। वो दरवाज़ा तोड़ने पर उतारू होता है। तो अंदर से खीज़ते हुए एक एयरहाॅस्टेस दरवाज़ा खोलती है। डांटती है इतनी तेज़ लगी है तो दूसरा टाॅयलेट इस्तेमाल कर लो यहां कौन सा एक या दो टाॅयलेट हैं। बदमाश विलेन भी एयरहाॅस्टेस की डांट खा कर चुप रह जाता है। मुंह घुमाता है और आगे की तरफ भागता है। उसे लगता है कि शिकार दूर निकल गया है।
हिरोइन अगली सीढी से फिर नीचे के डेक पर आ चुकी है। दूबारा वही एयरहास्टेस मिलती है जो उससे टकराई थी। इसबार उसके हाथ में कुछ कपड़े हैं। वो हिरोइन को देखकर एक बाॅथरुम में धकेल देती है। थोड़ी देर बात हिरोईन एयरहाॅस्टेस की ड्रेस में बाहर आती है। पहनावा-लुक सब कुछ बदला हुआ कि विलेन पहचान ना पाए। एयरहास्टेस और एयरहाॅस्टेस बनी हिरोइन की निगाहों निगाहों में बात होती है। वो उसके कान में कुछ बुदबुदाती है। फिर हिरोइन एयरहा्स्टेस हवाई जहाज में बने बार का काउंटर संभाल लेती है। एयर हा्स्टेस का वेशभूषा बड़ा काम आता है।
विलेन हिरोईन का पीछा करते करते थक चुका है। अब तो उसे उसकी आहट भी नहीं मिल रही। वो बार के पास पहुंचा है। देखता है कि एक से एक ब्रांड हैं। वो गला तर कर लेना चाहता है। पर शरीफत से कुछ भी करने की आदत नहीं। लिहाज़ा हाथ में लहराती पिस्तौल काउंटर पर खड़ी लड़की की कनपटी पर सटा देता है। हिरोईन को लगता है वो पहचानी गई है। उसके मुंह से चीख निकलने वाली होती है। विलेन उसका मुंह दबा देता है। हिरोईन को लगता है अब नहीं बचेगी। वो विलेन को उन हीरों बारे में बताने ही वाली होती है... कि विलेन फुंफकारता है मुंह मत खोलो। मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए। बस एक लार्ज पेग नीट व्हिस्की दे दो। और हां किसी को बताना मत कि मैं यहां अपनी शिकार की तलाश में हूं। नहीं तो जान से मार दूंगा। हिरोईन की जान में जान आता है। वो लंबी सांस लेती है। अपना चेहरा दूसरी तरफ करने की कोशिश करते हुए विलेन की तरफ पूरी बोतल बढ़ा देती है...विलेन बोतल लेकर शिकार की तलाश में फिर जुट जाता है... फिल्म का क्लाईमेक्स सीक्वेंस है। फिल्म अभी ख़त्म नहीं हुई है। ब्रेक के बाद शूटिंग जारी है। कारगो डेक पर शूटिंग अभी हुई ही नहीं जहां 350 करोड़ पिंगपॅाग बॅाल एक साथ रखे जा सकते हैं।
कहने का मतलब ये एयरबस A380 इतना बड़ा है कि इसमें पूरी फिल्म बन सकती है। उस फिल्म का शायद उसका नाम हो... हवा में टाईटैनिक!
झेलने के लिए धन्यवाद
एयरबस A380: बड़ा है तो बेहतर है
शुक्रिया
Sunday, May 6, 2007
चुसूल यात्रा-4: तांगसे पहुंचे
आखिरकार तीन दिन की कारगिल-द्रास यात्रा के वापस लेह लौटे। लेह के 246 ट्रांजिट कैंप के आॅफिसर्स मेस में थोडी देर आराम के बाद हम चुसूल की तरफ निकले। मौसम इस बार भी पैक था। लेकिन हम चलते गए क्योंकि रास्ता खुला मिला। लेकिन कारू से हम जैसे जैसे आगे जा रहे सड़क पर पर बर्फ की परत मोटी होती जा रही थी। जीप के पहिए बुरी तरह फिसलने लगे थे। क़रीब 15-20 किलोमीटर जाने के बाद हमें एक ट्रांजिट कैंप के पास रुकना पड़ा। देविन्दर ने बोला नाॅन स्किड चेन बांधे आगे जाना ख़तरनाक है। नाॅन स्किड चेन दरअसल एक ऐसी जंज़ीर है जिसे लपेट कर पहिए पर बांधा जाता है। बर्फ के लिहाज़ से तय किया जाता है कि ये गाड़ी के चारों पहिए पर बांधा या फिर एक यो दो पर बांधने से काम चल जाएगा। देविन्दर को मुश्किल से दो ही पहियों के लिए नाॅन स्किड चेन मिला था क्योंकि सर्दियों में नाॅन स्किड चेन की काफी मांग होती है इसलिए इसकी कमी हो जाती है। देविन्दर ने कहा कि पिछले दोनों पहिए पर चेन बांधने ज़्यादा ठीक हो। यही आम प्रैक्टिस है। ये किसी भी तरह की गाड़ी को बर्फ पर फिसलने से रोकता है।
हम जीप के बाहर आए। देविन्दर ने चेन निकाला। संजय को हमने ट्रांजिट कैंप के वेट कैंटीन की तरफ भेजा क्योंकि वहां से धुंआ निकल रहा था। उम्मीद थी कि शायद वहां चाय पीने को मिल जाए। वो उधर गया हम इधर चेन बांधने मे जुटे। ये अपने आप में बहुत मुश्किल काम है। पहले चेन को सड़क पर जीप के आगे इस तरह रखना होता है जिससे पहिया उस पर बराबर आ जाए। फिर जीप को इस हिसाब आगे बढ़ाना होता है कि पिछला दोनों पहिया चेन के बीचोंबीच आ जाए। देविन्दर कुशलहस्त था। थोड़ी मुश्किल के बाद ही वो जीप के पिछले दोनों पहियों को जंज़ीर पर बराबर लाने में सफल रहा। इसके बाद लोहे के तारों से जंज़ीर को पहिए पर लपेट कर बांधना होता है। हवा तेज़ चल रही थी। तेज़ हवा के झोंके साथ बर्फ के महीन टुकड़े शीशे के की तरह आकर खुले चेहरे औऱ हाथ पर लग रहे थे। चेन बांधते बांधते देविन्दर के हाथ से खून आने लगा था। लेकिन हम जंज़ीर बांधने में क़ामयाब रहे। संजय दूर से ये सब देख रहा था। जैसे ही काम पूरा हुआ उसने आवाज़ लगाई इधर आईए। हम जीप को किनारे मे खड़ी कर ख़ास तौर पर बर्फीले इलाक़े के लिए बनाए गए हट की तरफ गए। वहां दो कुछ फौज़ी चाय पीते नज़र आए। हमारी निगाह ने उनसे चाय मांगी। उन्होने कहा पीने का पानी नहीं है। लेकिन ऐसा शायद महानगरों में होता है कि दरवाज़े पर आए किसी आदमी को बिना पानी के लौटा दिया जाए। जिंदादिल सिपाहिए ने अपने एक साथी को थोड़ा उपर पहाड़ी की तरफ भेजा। साफ बर्फ लाने को। उस बर्फ को उन्होने गर्म किया। फिर उससे चाय बना कर हमारी तरफ स्टील के ग्लास में बढ़ाया। ग्लास जब तक होठों तक जाता चाय ठंडी हो चली थी। लेकिन फिर भी पीकर संतुष्टि मिली। शुक्रिया अदा कि और बिना समय गंवाए हम आगे की तरफ बढ़े।
नाॅन स्किड चेन बांधने के बाद होता ये है कि अगर आपको बर्फ भरी सड़क मिलती जाए तो गाड़ी तेज़ चला सकते हैं। लेकिन जैसे ही बिना बर्फ की सड़क मिलती है...गाड़ी टायर पर बंधी चेन की वजह से हिचकोले खाने लगती है। लिहाज़ा गाड़ी की गति बहुत धीमी करनी पड़ती है। 5-10 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलते हुए हम चांगला टाॅप पर पहुंचे। यहां थोड़ी देर रुक कर बर्फ भरी वादी को निहारने के बाद हम आगे बढ़े। चांगला टाॅप से आगे तांगसे की तरफ जैसे जैसे हम नीचे उतरते गए। बर्फ कम होती गई। लिहाज़ा जीप की रफ्तार और कम होती गई।
आख़िरकार शाम को हम तांगसे पहुंचे। तांगसे का सबसे बड़ा परिचय यही है कि ये दुनिया में सबसे अधिक उंचाई पर स्थित ब्रिगेड हेडक्वार्टर है। 114 ब्रिगेड ने यहां हमारा स्वागत किया। रात हमें यहीं बिताना था। सो शाम का इस्तेमाल हमने ब्रिगेडियर विक्रम का इंटरव्यू कर किया। उन्होने चुसूल यहां चीन के साथ यहां 1962 में हुई लड़ाई का ब्योरा दिया। सड़क बनाए जाने के विवाद पर उन्होने कुछ भी बोलने से मना किया। इसके बाद हमने म्यूजियम देखा जहां 1962 की लड़ाई से जुड़ी यादें संभाल कर रखी गई हैं। यहीं मेजर शैतान सिंह और ध्यानचंद थापा की तस्वीरें भी लगी हैं जो चीन के साथ लड़ाई में बहादुरी के साथ शहीद हो गए।
यहां सर्दी हार गला देने वाली थी। फौज़ी पोशाक भी कम लग रहा था। सफ़र के थके थे। रात को खाना खाने के बाद तुरंत सोना चाह रहे थे। चुसूल अगले दिन सुबह सुबह निकलना था। उससे पहले थोड़ा आराम ज़रुरी था। आॅफिसर्स मेस में हमें सोने को स्लिपिंग बैग दिया गया। मैं और संजय दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा। दरअसल स्लिपिंग बैग में हमें सोने की आदत नहीं थी इसलिए अजीब लग रहा था। पर वहां कोई चारा नहीं था। बिस्तर पर आप चाहे जितने कंबल-रजाई डाल लो, ठंड से बचाव नहीं हो सकता। वो भी तब जब आपके कमरे में चौबीसों घंटे किरासन तेल, लकड़ी या कोयला से जलने वाला बुखारी जलता रहता है। मौक़े की ज़रुरत देख कर हमने जैसे जैसे अपने को स्लिपिंग बैग में क़ैद किया और सो गए। थकान के मारे नींद कब आ गई पता ही नहीं चला।
अगले दिन सुबह क़रीब 6 बजे उठ कर तैयार होने लगे। टाॅयलेट में गए तो पानी नहीं था। जिसकी ज़िम्मेदारी पानी देने की थी वो भागा भागा आया। बोला साब आप पहले निपट लो। फिर आवाज़ देना हम पानी बढ़ा देगें। मैंने हैरानी जताई ऐसा कैसे हो सकता है। वो बोला साब ऐसे ही करना पड़ेगा। पानी अगर में पहले दे दूंगा और अगर आपने देर लगाई तो वो जम जाएगा। आपको फिर आवाज़ लगानी पड़ेगी। लिहाज़ा आप पहले फारिग हो लो। मैंने कहा ऐसा नहीं हो सकता। तुम पहले पानी दे दो। उसने खौलते पानी का बाल्टी टाॅयलेट में रख दिया। ये कहते हुए कि देर मत करना। मैंने भी नित्यक्रिया जल्द निपटायी और बाहर आ गया।
अब हम तांगसे से आगे चुसूल के रास्ते पर थे। जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे बर्फ के निशान मिटते जा रहे थे। खुला आसमान, खुली घूप। लेकिन ठंड में कोई राहत नहीं थी। कुछ किलोमीटर पक्की सड़क पर चलने के बाद हम परमा पहुंचे। परमा के आगे बिल्कुल कच्ची सड़क थी। भौगोलिक बनावट भी बदल चुकी थी। बर्फ से भरी पहाड़ों की जगह टीलेनुमा पहाड़ियों ने ले ली थी। लेकिन जो बात मुझे ज़्यादा हैरान कर रही थी वो ये कि इस इलाक़े में पक्की सड़क नाम की कोई चीज़ नहीं थी। फिर मुझे थपलियाल साब की बात याद आई कि ये ऐसा इलाका है कि जिस तरफ चल पड़ोगे रास्ता निकल आएगा। हम पहले से गुज़री गाड़ियों के टायरों के निशान का पीछा करने लगे। रास्ता एक दो जगह पूछना भी पड़ा। आख़िरकार हम तांगसे से क़रीब 80 किलोमीटर दूर चुसूल पहुंचे।
पांचवी कड़ी में जारी...
एक व्यंग्य यह भी
व्यंग्य है क्या? एक काॅम्प्लेक्स ही ना! ये आख़िर जनमता कहां से है? असफलता जनित खीज से ही तो! मतभिन्नता हो सकती है। पर इतना तो तय है कि सभी उच्चता चाहते हैं। स्थिति की उच्चता। चाहे वो सामाजिक हो या राजनीतिक। ये सभी अर्थ से स्वत: जुड़े हुए हैं सो आर्थिक भी। अब इस रेस में पिछड़ा हुआ मगर जागरुक घोड़ा अपनी बौद्धिक उच्चता ही साबित-स्थापित करना चाहता है। इसलिए वह लिखता है। लिखने को भी असंख्य विषय हैं। सैंकड़ों बातें हैं। वह उधर नहीं जाता। उस लेखनी को मानने को भी मन से तैयार नहीं। कुतर्क देता है कि वो तो सिर्फ सूचनाओं का हस्तांतरण है। कुछ इधर से तो कुछ उधर से उठा कर। उस पर मौलिकता का लेबर लगा कर। जिनमें सोच की निजता नहीं रहती। या फिर कुछ आदर्शवादी बातों का विस्तारित बंडल। जो कम से कम आज की दुनिया को नहीं चाहिए।
तो फिर क्या चाहती है ये दुनिया? कटाक्ष! दूसरों की टिकिया को बिल्कुल साधारण साबित कर देने वाला विज्ञापन। इन सब की जड़ में क्या है? वही अपनी प्रतिष्ठा की ज़िद। सफलता की चाह। दूसरों को नीचा देखने की महत्वाकांक्षा। अपनी दमित भावनाओं को तुष्ट करने की ललक। यहां आकर आदर्श के शाब्दिक तर्क बेकार हो जाते हैं। शुरु होता है वैचारिक तिकड़म को शब्दरुप देने का सिलसिला।
जैसा कि पहले भी लिखा गया है। सभी चाहते हैं दौलत और शोहरत। चाहते हैं उन्हें नोटिस किया जाए। अपने समाज में, सर्किल में देश में और दुनिया में। लेकिन आपको कैसे नोटिस किया जाए भाई? हवाला में आपका नाम नहीं, बोफोर्स को मृतप्राय: है और यूरिया के वक्त भी आप सोते रहे। दाऊद से तो क्या किसी राव तक से आपका नज़दीकी संबंध नहीं। १९८४ के दंगों में भी आपने ख़ास योगदान नहीं किया। बेहमई कर इलेक्शन लड़ते तब भी चलता। लेकिन नहीं। इंडस्ट्रियलिस्ट-कैपिटलिस्ट आप हैं नहीं और एन्नाराई बन नहीं सकते। तो माफ कीजिएगा भूखे मरने वालों को नोटिस करने का यहां कोई प्रावधान नहीं। आप जितनी क़ूवत वालों की यहां कोई पूछ नहीं।
मान लीजिए आप लिखते हैं और इसी से वो सब कुछ पा लेना चाहते हैं जो अन्यत्र आपको नहीं मिला, तो क्या कोई स्कूप है आपके पास? क्लिंटन-बेनज़ीर संबंध का। या कोई केन्द्रीय मंत्री है जिसकी बदौलत आप कूद सकें। कोई आपको पालने वाला है। आपके लिए कोई इतना नरम और मुलायम है कि जो अपने कोटे आपको कुछ दे। नहीं न! एक तो आप अंग्रेज़ी के आॅथर भी नहीं और अपने अवैध संबंधों का ख़ुलासा भी आप नहीं करेगें। आपका किसी से अवैध संबंध रहा इसकी भी कोई गांरटी नहीं। अपनी यौन कुंठा के बारे में लिख कर बड़े लेखक होने का प्रमाण आप दे नहीं सकते। 'दिल्ली' नहीं तो 'पटना' ही लिख दीजिए। आपका सेटेनिक वर्सेज़ तक आपके लिए फलदायी नहीं हो सकता क्योंकि आप सहिष्णु कहे जाने वाले धर्म के अवलंबी हैं।
फिर तो मुश्किल है आपको नोटिस करना। अब तो आपको वही नोटिस कर सकता है जो नियतिवश या मजबूरीवश आपकी ही स्थिति से गुज़र रहा हो। जो अभी तक समाज में, इवेन अपने परिवार में भी अपने लिए इच्छित जगह नहीं बना पाया हो। जो करना तो बहुत कुछ चाहता हो पर कुछ कर नहीं पा रहा हो। सिवाए आत्मप्रशंसा के। दूसरों के सफलता की असलियत खोलने के। उसमें आवश्यकतानुसार मिर्च मसाला डालने के। चटकारे ले लेकर सुनाने के। जबकि उसे निश्चत पता है कि स्थिति आएगी तो वो भी ख़ुशी ख़शी वही करेगा जैसा उसके पड़ोसी या बाॅस ने या फिर देश के किसी नेता या लेखक-पत्रकार ने किया होगा। कोई तभी तक ईमानदार है जब तक कि उसे बेईमानी का मौक़ा नहीं मिलता। यही मौक़ा आपको नहीं मिला है। आपको ही क्यों बहुतों को नहीं मिला है। वे सभी आजतक की असफलता से खीजे हैं। जले भुने बैठे हैं।
उठाइए कलम और रख दीजिए उनके मर्म पर। चुभने के बावजूद तसल्ली मिलेगी। कुछ ऐसा लिखिए कि सब से आगे निकल चुके भाई-बान्धवों पर दुलन्ती प्रहार कीजिए। भड़ास निकालिए। अपनी असफलता के झूठ की तुलना दूसरों की सफलता के सच से करिए। लाख मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करिए। उनको कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। हां, आपका एक पाठक वर्ग है। वह ज़रूर आपको नोटिस करेगा कि कितने बड़े बुद्धिजीवी हैं। आसपास की ही बात करते हैं। और आपका लिखा हुआ छपेगा।
Thursday, May 3, 2007
चुसूल यात्रा-3 : एवलांच में फंसे
तो अगली सुबह यानि 19 दिसंबर को चुसूल के लिए निकलना था। जो गर्म कपड़े हम पहन कर गए थे वो नाकाफ़ी थे। सेना की तरफ से हमें स्नो बूट, मोटी जुराबें, मोटी जैकेट जैसी चींज़ें दी गईं। (आप ऊपर जिस तस्वीर में मुझे देख रहे हैं... सिर से पांव तक 16 कपड़े पहने हुआ हूं। इसलिए इतना मोटा दिख रहा हूं।) हम हर तरह से लैस हो चुके थे। इंतज़ार सुबह का था।
वो सुबह आयी भी। सेना की महिंन्द्रा जीप और सेना के ही ड्राईवर देविन्दर के साथ निकले। लेकिन हमें बता दिया गया था कि आज सीधे हम चुसूल नहीं पहुंच सकते। रात को तांगसे में रुकना होगा जो कारू से है महज़ 60 किलोमीटर पर पहुंचने में लगेंगे 8 से 10 घंटे। बर्फ भरे रास्ते के हिसाब से वहां तक पहुंचते पहुंचते ही शाम हो जाने की उम्मीद थी। चुसूल उससे भी क़रीब ४० किलोमीटर आगे है। तो पड़ाव तांसगे ही करना था। लेकिन क़िस्मत में कुछ और ही लिखा था।
हम निकल पड़े। हल्की घूप निकल आयी थी। लेह के बारे में दिलचस्प जानकारी ये है कि यहां सबसे ज़्यादा क्लोज़ वेदर होता है यानि बादलों से घिरा मौसम लेकिन सबसे ज़्यादा सनी डेज़ भी यहीं होता है। मतलब बादल आते हैं छाते हैं पर किसी ना किसी समय चमकता सूरज भी दिखाई पड़ जाता है। ये मेरी जानकारी कहती है। ऐसी ही एक और जानकारी है कि लेह एक ऐसी जगह जहां एक ही समय में फ्रास्ट बाईट और सन बर्न हो सकता है। कैसे? ये जानना दिलचस्प है। अगर घूप खिली है तो वो काफी तीखी होती है। आप नंगी पीठ किए घूप सेंक रहे हैं तो आपकी पीठ पर सनबर्न हो सकता। लेकिन सामने की तरफ बह रही ठंडी हवा से आपको फ्राॅस्ट बाईट हो सकता है। हालांकि नंगी पीठ यहां कोई धूप नहीं सेंकता लेकिन जानकारी दिलचस्प है इसलिए ज़िक्र कर रहा हूं।
हम कारू से ३-४ किलोमीटर आगे निकल आए थे। भारत-अक्साई चीन सीमा देखने का जोश हिलोरें ले रहा था। लेकिन वो अभी दूर था। सामने की सड़क पर पहाड़ से बर्फ फिसल कर गिरती नज़र आ रही थी। पहले धीरे धीरे रेत की तरह। फिर वो तेज़ होती जा रही थी। पहाड़ दायीं तरफ था और सड़क बायीं कगार पर। हम देख कर मज़े ले रहे थे। पर देविन्दर ने ख़तरे को भांपा। ये एक एवलांच की शुरुआत थी। उसने तेज़ी से जीप आगे निकालने की कोशिश की। लेकिन तभी सामने सेना की ही एक ३टन ट्रक फंसी नज़र आयी। उसके पहिए बर्फ में घंस चुके थे। उसमें सवार जवान नीचे उतर कर बेलचे से बर्फ हटाने की कोशिश कर रहे थे।
मैं अपनी जीप की आगे की सीट पर बैठा था। मैने संजय से कैमरा मांगा और रोल करना शुरु कर दिया। देविन्दर ने बोला आगे नहीं जा सकते। मैं वापस लौटने के मूड में नहीं था। देविन्दर ने मज़ाक में कहा साब उपर से ज़्यादा बर्फ गिरी तो हम उसमें दब जाएगें. बह कर कहां जाएंगे पता नहीं। दो तीन साल बाद हंसते हुए मिलेगें। खाली शरीर में जान नहीं होगी। बाक़ी हमारी बाॅडी बर्फ में खराब नहीं होगी। मैने कहा चलो दुनिया से जा कर भी एक स्टोरी दे जाएगें। ये सारी बातें १०सेकेंड के भीतर हुईं। हम सभी हंसे। लेकिन जल्दी फ़ैसला लेना था। एक सच्चे फौज़ी की तरह देविन्दर को आदेश का इंतज़ार था। उसने जीप बैक करना तब तक शुरु नहीं किया जब तक मैंने नहीं कहा। मैंने भी फैसला लेने में मुश्किल से एक मिनट लगाए होगें। तब तक जीप के पीछे भी बर्फ फिसलने की आहट हुई। रियर मिरर में देविन्दर ने ये देख लिया। जीप से बाहर हम निकलना नहीं चाहते थे क्योंकि तीन लोगों की सांसों से जीप के भीतर तब हल्की गरमाहट पैदा हो गई़ थी।
सर्दी हार गला देने वाली थी। देविन्दर ने तेज़ी से रिवर्स गियर डाल जीप पीछे लिया। पीछे सड़क कुछ दूर तक सीधी थी। ये राहत की बात थी। जीप जैसे ही पीछे हुई सामने वाली जगह पर बर्फ भरभरा कर गिरी। इतनी गिरी की जीप वहां होती तो उसे अपने साथ लेते हुए बायीं तरफ की हज़ारों फीट की गहराई में बह जाती। सड़क बंद हो चुकी थी। हम थोड़ी देर के लिए जीप से बाहर आए। हालात का जायज़ा लिया। देविन्दर बोला सर वापस कारु जाना होगा। और कोई उपाय नहीं है। मैने पूछा बर्फ के उस पार जो जवान रह गए हैं वो क्या करेगें। देविन्दर ने बताया वो पैदल मार्च करेगें अगले ट्रांजिट कैंप तक। गाड़ी फंसने की हालत में यही स्टैंडिंग आर्डर होता है। सेट पर बात कर भी बातें तय होती हैं। ख़ैर हमारे पास कारू लौटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हम वापस लौट आए। पता चला कि एवलांच कई जगहों पर हुआ है और ऐसा हुआ है कि कम से कम तीन दिनों तक रास्ता क्लियर होने की उम्मीद नहीं है।
तीन दिनों तक हम बैठे नहीं रह सकते थे। पता किया इन तीन दिनों का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं। क्या कारगिल की तरफ जा सकते हैं। पता चला लेह से कारगिल तक का रास्ता भी रिस्की है पर भारी बर्फबारी में भी ये कभी कभार ही बंद होता है। उस समय कोई दिक्कत की ख़बर नहीं थी। फिर हमने अपने प्रोग्राम बदला। कारगिल और द्रास की तरफ निकल गए। इस यात्रा के बारे में आगे बताउंगा। अगली कड़ी में बताउंगा कि आख़िर कैसे हम चुसूल के थाकुन ओपी तक पहुंचे। आपको भी रोमांच का अनुभव होगा।
चौथी कड़ी में जारी... (इंतज़ार कराने के लिए माफ़ी चाहता हूं)
Wednesday, May 2, 2007
चुसूल यात्रा-2 : राह की चुनौती
एयरपोर्ट पर हमें लेने कोई गाड़ी नहीं पहुंची थी। सेना की गाड़ी को आना चाहिए था लेकिन शायद सूचना में ग़लतफ़हमी के चलते ऐसा नहीं हुआ। एयरपोर्ट बिल्डिंग के बाहर आते ही टैक्सी वालों ने हमें घेर लिया। उन्होने पूछा कहां जाना है। उस समय हमें सेना के ३डिव मुख्यालय तक जाना था जो कारू में था। लेह एयरपोर्ट से क़रीब 40 किलोमीटर दूर। लेकिन टैक्सी वालों से मैने कह दिया सीधा चुसूल जाना है। वे आपस में बुदबुदाने लगे। मैने पूछा कौन चलेगा। कितना पैसा लेगा। सभी चुप थे। आख़िरकार एक बुजुर्ग टैक्सी वाले ने कहा साब मैं चलुंगा। पर जाने जाने का 25 हज़ार रुपये लुंगा। पूरा पैसा एडवांस देना होगा। मैंने हैरानी जतायी इतना ज़्यादा। जाने का 25 हज़ार...और आने का? साब अगर ठीक ठीक पहुंच गए तो वापसी फ्री में। और एडवांस इसलिए कि पैसा घर छोड़ कर जाउंगा। इससे आगे वो कुछ नहीं बोला। हम समझ गए कि दिसंबर का महीना और भारी बर्फबारी के चलते रास्ता बेहद मुश्किल है। ऐसे में सेना से मदद लिए बग़ैर आगे बढ़ना मुनासिब नहीं था। चुसूल में जहां तक हमें जाना था वहां तक वैसे भी कोई सेना की सहमति और मदद के बिना नहीं पहुंच सकता। ठंड में तो बिल्कुल भी नहीं।
हमने कारु तक टैक्सी किराए पर ली। ३डिव मुख्यालय पहुंच कर हमने मेजर जेनरल शेरु थपलियाल से मुलाक़ात की। मक़सद चुसूल जाना था। दिल्ली के सेना मुख्यालय की सहमति हमें मिली हुई थी। सूचना उनके पास भी थी। लेकिन हमें बताया गया कि मौसम ख़राब होने की वजह से कई जगह सड़क बंद हो चुकी थी। बर्फ में दब चुकी थी। हमने ज़ोर डालना ठीक नहीं समझा। मौसम पर किसी का ज़ोर नहीं चलता। ये बात आपको तब और समझ में आती है जब आप एक ऐसे इलाक़े में होते हो जहां आपकी हरेक गतिविधि मौसम ही तय करता हो। तय किया कि अगले दिन सुबह निकलेंगे।
दोपहर का इस्तेमाल हमने मेजर जेनरल का इंटरव्यू कर किया। जिस जानकारी के आधार पर हम स्टोरी करने यहां तक पहुंचे थे, उन्होंने उसकी तस्दीक की। लेकिन थोड़े अलग तरीक़े से। कहा कि एलएसी के इस तरफ भारतीय इलाक़े में चीन ने कोई पक्की सड़क तो नहीं बनायी है लेकिन एक अलाईनमेंट ( या यों कहें कि रास्ता) ऐसा ज़रुर बना लिया है जिसका इस्तेमाल वो गाड़ी से बोर्डर पेट्रोलिंग के लिए करने लगे हैं। सेना के एक आला अधिकारी या किसी भी अधिकारी ने पहली बार ये बात कैमरे के सामने स्वीकारी। ये बड़ी बात थी। क्यों और कैसे... और भारतीय सेना का इस मसले पर क्या कदम उठाया इसका ज़िक्र मैं आगे करुंगा।
तीसरी कड़ी में जारी...
चुसूल यात्रा-1 : दिल्ली से लेह
जम्मू और कश्मीर के लंबे दौरों में कुछ ऐसे मौके आये, जो हमेशा के लिए जेहन में बस गये। ऐसे वाकयों की तारीख़ बेशक ठीक ठीक याद न आये, क्योंकि डायरीनुमा लिखाई कभी की नहीं, पर पूरा वाकया नज़र के सामने यूं ही उतर आता है। जैसे चुसूल की यात्रा। यहां लाईन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी)का उल़लंघन कर चीन द्वारा क़रीब ३ किलोमीटर लंबी सड़क बना लेने से भारत-चीन सीमा विवाद में एक नया पेंच जुड़ गया। मामले की थाह लेने हम भारत-अक्साई चीन सीमा तक पहुंचे। थाकुन आॅब्जर्वेशन पोस्ट (ओपी) तक की इस यात्रा में कई उतार चढ़ाव आए। चीज़ें जिस तरह से होतीं गईं वैसे ही बताने की कोशिश कर रहा हूं। शुरुआत कर रहा हूं दिल्ली से लेह तक के हवाई सफर से...
पहली कड़ी
18 दिसंबर 2000... सुबह साढ़े पांच बजे लेह की फ्लाइट पकड़नी थी। एलायंस एयर की फ्लाइट थी। इस एयरलाइंस से ये पहला वास्ता था। आदत जेट, सहारा या बुरे से बुरे वक्त में भी इंडियन एयरलाइंस की पड़ी थी। लेकिन रनवे पर खरखराये ट्रक की तरह खड़े एयरक्राफ्ट को देख कर पटना में हुए एयरक्रैश की याद ताज़ा हो आयी। मन को मज़बूत कर सवार हुआ। कैमरामैन संजय रोहिल्ला को भी ढांढ़स बढाया। बार बार बुरा नहीं होता।
अंदर घुस एयर हॉस्टेस की तरफ टिकट बढ़ाया। एयरक्राफ्ट की तरह वो भी ज़िन्दगी से थकी हारी लगी। इशारा किया जिधर मर्जी बैठ जाओ। सीट नंबर का पंगा नहीं है। मैं खिड़की की तरफ की एक सीट पर जा बैठा। बैठने के पहले एयर हॉस्टेस को दिखाते हुए सीट को रूमाल से इस तरह झाड़ा, जैसे पनवारी की दुकान के बाहर लगे किसी स्टूल पर बैठने के पहले झाड़ते हैं। ये देख कर फिर किसी एयर हॉस्टेस ने मेरी तरफ रुख नहीं किया।
क्योंकि ऐसी सुविधा हमेशा नहीं मिलती थी और खिड़की किनारे मैं ही बैठा करता था। लिहाज़ा इस बार संजय ने भी एक खिड़की पकड़ ली। मेरे बगल की सीट खाली थी। तभी एक लड़की की आवाज़ आयी। मैं यहां बैठ जाऊं। घूम कर देखा तो नयी नयी शादी हुई लड़की थी। भरी कलाई चूड़ियां और मांग में सिंदूर। मैंने कहा- बैठ जाइए। फिर काफी देर तक कोई बात नहीं हुई। जब फ्लाइट ने टेक ऑफ किया तो अचानक ही उसने अपने आप को मेरी सीट की तरफ सिकोड़ लिया। बोल पड़ी- पहली बार बैठी हूं। डर लग रहा है। मैंने उसे पहले नज़रों से भरोसा दिलाया और फिर पूछा तो उसने नाम बताया- श्वेता बैजल। करोलबाग दिल्ली की रहने वाली। मेजर बैजल से हाल ही में शादी हुई थी। शादी के तुरंत बाद वो लेह चले गये थे। वो उनके पास जा रही थी। ऐसी ही छोटी मोटी बातें करते रोहतांग दर्रे के ऊपर से गुज़रे। फिर हम लद्दाख के ऊपर आ गये।
खिड़की के बाहर का नज़ारा देखने लायक था। बर्फ से ढंके पहाड़। बीच में अपनी पहली किरणें फैलाता सूरज। मैं बार बार बाहर का लुत्फ उठा लेता। लेकिन श्वेता की दिलचस्पी इन नज़ारों की बजाए पति के पास जल्द पहुंचने में लग रही थी। पहली हवाई यात्रा उसे परेशान कर रही थी। एयर पॉकेट्स की वजह से जब भी एयरक्राफ्ट झटका खाता उसके चेहरे पर सिकन आ जाती। लेकिन एलायंस एयर की उस फ्लाइट ने टिकट की लाज रख ली। सभी यात्रियों को सही सलामत लेह एयरपोर्ट पर उतार दिया।
लेह एयरपोर्ट पर उतरते ही थोड़ी भारहीनता महसूस होती है। हवा में ऑक्सीजन भी कम है। इसलिए दो कदम चलने पर इंसान हांफने लगता है। ऐसा तब तक होता है, जब कि उस माहौल से शरीर का तालमेल न बैठ जाए। इसका असर मुझ पर भी था। लेकिन श्वेता ज़्यादा परेशान नज़र आयी। उसे लगातार मितली आ रही थी। सहारा देकर उसे एयरपोर्ट बिल्डिंग तक लाया। वहां उसने अपने को संभाला। कहा बाहर मेजर साब इंतज़ार कर रहे होंगे। मैं खुद चली जाऊंगी। और कुछ नहीं कहा। लगा शायद उसका मेरे साथ बाहर जाना मेजर साब को पसंद न आये। बाहर मेजर साहब अपने जवानों के साथ इंतज़ार कर रहे थे। पत्नी के आने की खुशी चेहरे पर नज़र आ रही थी। मुश्किलात भरे इलाक़ों में तैनात फौज़ियों को परिवार के साथ रहने का मौक़ा मिल जाए तो ये उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी होती है। एक ऐसे लम्हें का मैं गवाह बना। मेजर साब ने श्वेता को अपनी आर्मी जिप्सी में बिठाया और चल दिये।
हम जिस मक़सद से लेह पहुंचे उसे पूरा करने की चुनौती हमारे सामने थी।
दूसरी कड़ी में जारी... (दूसरी कड़ी के लिए ऊपर जाएं)
टीवी चिंतन : ख़बर पर नज़र
ख़बरिया चैनलों के ख़बरों के चयन, उसकी प्राथमिकता, दर्शकों से उसके सरोकार और उन पर उसके असर को लेकर अक्सर छिटपुट चर्चा सुनने को मिलती है। क्या होना चाहिए और क्या हो रहा है, इस पर विमर्श शुरू तो हुआ है, लेकिन जो जैसा कर रहा है वो उसी को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करता नज़र आता है। इसलिए इस विमर्श में शामिल हो कर भी चिंतक कम और अपने को बचाने यहां तक कि अपने को थोपने की कोशिश भर में जुटा रह जाता है। दूसरा पक्ष वो है, जो कतिपय कारणों से वैसा नहीं कर पाता, जैसा कई दूसरे कर रहे हैं, तो उसे बिलो स्टैंडर्ड साबित करने में तनिक भी क़सर नहीं छोड़ता और खुश होता रहता है। टीवी पत्रकारिता से जुड़े ऐसे लोगों की अपनी एक दुनिया है। हालांकि मॉनसून की फुहार इन्हें भी ललचाती है... चलती गाड़ी में बलात्कार इन्हें भी सताता है... भूत पिशाच के किस्से इन्हें भी डराते हैं, क्योंकि कई चैनलों की टीआरपी यही बढ़ाते हैं। इसलिए अपराध कथाओं से बाहर निकल कर भी उनका द्वंद्व झलक ही जाता है। टीआरपी की दरकार कहीं न कहीं उन्हें भी है।
दिक्कत यही है। जो विमर्श भारतीय टीवी पत्रकारिता को मौजूदा संक्रमण काल से निकाल कर आगे की ओर ले जाने के लिए होना चाहिए, वो टीआरपी रेटिंग्स और कौन किसको देख रहा के आसपास ही घूम कर रह जाता है। एक कहता है कि हम वो क्यों न दिखाएं, जो पब्लिक देखना चाहती है। जो उसमें दिलचस्पी पैदा करती है। और वो क्या करती है... मीका-राखी के चुंबन दृश्य। आधे-आधे घंटे का शो रन-डाउन भर भर के। कुछ ऐसी कहानियां तो दर्शकों की दिलचस्पी को भी आगे ले जाती है। जुगुप्सा जगाती है। सेक्स आखिर जीवन का मूल है। फ्रायड ने भी कहा और ओशो का तो पूरा दर्शन ही उस पर आधारित है। सेक्सी कहानियों से दर्शकों को लुभाने की कोशिश एक तरफ, तो भूत-पिशाच और ख़ौफ़ दिखा कर दर्शकों को बांधने की कोशिश भी उसी तरफ।
दूसरी तरफ क्या है। बड़े लोगों की रातों की रंगीनियां। चिल आउट। सेक्स यहां भी है। लेकिन हर रन डाउन में नहीं। रिफाइंड तरीक़े से। तहज़ीब के साथ।
भूत-पिशाच, सेक्स अपराध और फिल्मों की मायावी दुनिया इन सबको निकाल दें तो 24 घंटे के न्यूज़ चैनलों में आख़िर बचता क्या है। कुछ राजनीति ख़बरें, जो नेताओं के बयानबाज़ी से आगे कभी कभार ही बढ़ पाती है। कुछ क्रिकेट और फुटबॉल का जुनून। कई सारे स्पोर्ट्स चैनल शायद ज़्यादा बेहतर दिखाते हैं। कुछ धर्म की बातें, जो आस्था और संस्कार के साथ भी आप देख सकते हैं।
टीवी चैनलों में इधर काफी कुछ बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। दर्शकों का सेगमेंटेशन हो चुका है। जिस तरह 90 के दशक में राष्ट्रीय अख़बार भी स्थानीय परिशिष्टांक निकालने को बाध्य होते गये ताकि हर इलाक़े के लोगों को उनकी बात मिल सके। उसी तरह टीवी भी इस दिशा में आगे बढ़ा है। लोकल चैनल आये हैं गली मोहल्ले की ख़बर लेकर। नालों में डीडीटी का छिड़काव हुआ या नहीं, खुला मेनहॉल बंद किया गया, आवारा पशु को बाड़े में डाला गया या नहीं। इस तरह की विषय-वस्तु के साथ वे अपने मोहल्ले के लोगों को लुभा भी रहे हैं। फैशन शो, गृहणियों के लिए पकवान प्रोग्राम, स्कूली बच्चों के वाद-विवाद प्रतियोगिता का पुरस्कार वितरण समारोह- ये सभी इसके हिस्से बन रहे हैं। बड़े चैनलों ने भी ऑप्ट आउट और एनसीआर चैनल के ज़रिये स्थानीयता को समेटने की कोशिश की है। उनमें लगे संसाधन और उनसे मिल रहे नतीज़े भी उनके लिए उत्साह बढ़ाने वाले हो सकते हैं। ये एक नया टीवी है और इनका एजेंडा नेशनल नेटवर्क वाले चैनलों से अलग हो सकता है। लेकिन नेशनल नेटवर्क मौजूदा आपाधापी की पत्रकारिता से कब आगे बढ़ेगा।
एक उम्मीद भी बंधती है। ये सब बदलेगा। तुरंत न सही कुछ साल में। इसके लिए कई सोच समांतर रूप से चल रही है। वो सोच अभी की व्यवस्था को तोड़ उससे अलग राह बना पाने में बेशक अभी क़ामयाब नहीं हो पा रही हो, लेकिन वो लगातार जारी है। वो सोच फिलहाल मौजूदा हिंदी टीवी पत्रकारिता में ही शामिल है। अलग-अलग तरह की ख़बरों के खले में शामिल रह कर वो इसके गुण दोष पर लगातार चिंतनशील है। ये वो सोच है जो ख़बरिया चैनलों की शुरुआत के साथ ही उससे जुड़ा... बहुत ऊंचे नहीं... निचले स्तर पर। जिसका वास्ता पिछले कई साल से लगातार फील्ड से है। वो डेढ़-दो मिनट की ख़बर कर कर के बोर होने लगा है। कुछ स्पेशल स्टोरीज़ भी की। कई ने बड़ा इंपैक्ट भी छोड़ा। गंभीर होने के बाद भी दर्शकों ने देखा और सराहा। लेकिन ये भी कहीं न कहीं टीआरपी जुगाड़ने की रणनीति बनाने में लगे रहने वाले नीतिकारों की मांग के मुताबिक... उनकी ज़द में फंसा नज़र आने लगा है।
दो रास्ते बचते हैं। या तो दर्शकों की फैंटेसी, उनके भीतर के डर, उनकी लालसा या कुछ स्तर पर कह सकते हैं कि उनकी कुंठा का फायदा उठाते हुए आगे बढ़ा जाए... या फिर वाकई में उनके वास्तविक सरोकारों वाले मुद्दों को ही फोकस में रखा जाए। दिक्कत ये है कि पब्लिक से जुड़ा एक गंभीर मुद्दा एक के लिए मायने रखता है, तो दूसरा उसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता।
उसे इस बात का भी भान है कि ख़बर के साथ साथ टीआरपी भी ज़रूरी होगा। मार्केटिंग और मैनेजमेंट के लिहाज़ से। शायद उसके बिना लंबे समय तक सस्टेन करना मुश्किल होगा।