Friday, April 11, 2008

मज़बूती से टिके मुशर्रफ़

पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने नवनिर्वाचित संसद के संयुक्त अधिवेशन की जगह सिर्फ नेशनल एसेंबली का सत्र बुलाया और इस तरह खुद को संसद के सामने अभिभाषण से दूर रखा। कई हलकों में इसका मतलब मुशर्रफ की लगातार कमज़ोर होती स्थिति से लगाया जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान में चुनाव के बाद से अब तक के कई तथ्य ऐसे हैं जो इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि मुशर्रफ अभी भी न सिर्फ मज़बूती के साथ अपने पद पर टिके हैं बल्कि अपनी कई शर्तें भी मनवाने में कामयाब रहे हैं। बीते फरवरी जैसे जैसे पाकिस्तान में चुनाव के ट्रेंड और नतीज़े सामने आ रहे थे तभी से मुशर्रफ़ की स्थिति को लेकर तरह तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। मैं उस समय रावलपिंडी और इस्लामाबाद के अलग अलग इलाक़ों में चुनाव से जुड़ी सूचनाएं जुटा रहा था। जब चुनाव के नतीज़े पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पीएमएल नवाज़ के हक़ में बढ़ रहे थे तभी दिल्ली से एक फोन आया। एक जानकार ने सूचना देने के अंदाज़ में पूछा कि सुना है मुशर्रफ देश छोड़ कर भागने वाले हैं। उसके लिए एक हवाई जहाज़ तैयार खड़ा है जो उन्हें टर्की ले जाएगा। मैंने छूटते ही कहा कि मुशर्रफ कहीं नहीं जा रहे। चुनाव के नतीजे जो भी हों, मुशर्रफ़ की संवैधानिक स्थिति देश के राष्ट्रपति की है। उस राष्ट्रपति की जिनके पास पाकिस्तान के संविधान की धारा 58 2बी के तहत किसी भी चुनी हुई संसद को कभी भी भंग कर देने का अधिकार है। वो राष्ट्रपति जो लंबे समय तक सेना प्रमुख की वर्दी में रहा और फिर देश में इमरजेंसी लगाने के बाद वर्दी उतारी और सिविलियन प्रेसीडेंट के तौर पर अपने को पेश कर दिया। सबसे बड़ी बात की मुशर्रफ अमेरिका के चहेते हैं और कई कारणों से अमेरिका मुशर्रफ के पीछे खड़ा है। ऐसे में मुशर्रफ की पार्टी बेशक बुरी तरह हार रही हो लेकिन इसका मुशर्रफ की व्यक्तिगत सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। आखिरकार अब तक हो भी वही रहा है।

बेनज़ीर की हत्या के बाद और चुनाव के पहले जब मैंने नवाज़ शरीफ से पूछा था कि क्या वे पीपीपी के साथ मिल कर चुनाव बना सकते हैं तो उनका जवाब था कि मुशर्रफ को शिकस्ते फाश करने के लिए अगर ऐसा ज़रुरी हुआ तो वो ऐसा ज़रुर करेंगे। तमाम रस्सकशी के बाद पीएमएल एन ने पीपीपी के साथ मिल कर सरकार बनायी। अवामी नेशनल पार्टी जैसी कुछ पार्टियां भी साथ आयीं। नवाज़ की पार्टी से मंत्री बने सांसदों को उसी मुशर्रफ ने शपथ दिलायी जिसे नवाज़ शरीफ आज भी गैर संवैधानिक राष्ट्रपति करार देने से नहीं चूकते। ज़ाहिर है नवाज़ शरीफ जैसे मंजे राजनीतिज्ञ के पास भी फिलवक्त मुशर्रफ का कोई काट नहीं है। वे मजबूरी में ही सही उन्हें राष्ट्रपति की भूमिका में स्वीकारना पड़ा है। बयानबाज़ी वो कुछ भी करते रहें। इस मामले में स्व. बेनज़ीर भुट्टो के पति और पीपीपी के सह अध्यक्ष आसिफ अली ज़रदारी नवाज़ शरीफ से बीस साबित हो रहे हैं। मुशर्रफ ने चुनाव के आ रहे नतीजों के दौरान ही कहा कि वो नई सरकार के साथ कामकाज़ी रिश्ते बना कर चलने को तैयार हैं। हालांकि ये मुशर्रफ का भी मजबूरी भरा बयान था क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं बचा। लेकिन अव्वल तो मुशर्रफ की संवैधानिक स्थिति और फिर अमेरिका के दबाव ने ज़रदारी को भी समझौतावादी रुख अपनाने को बाध्य कर दिया। वो टकराव का रास्ता अपना बेनज़ीर के अमेरिकी दोस्तों का कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे और ना ही मुशर्रफ के हाथों पीपीपी की अगुवाई वाली सरकार को गिराना। लिहाज़ा उन्होने उल्टा नवाज़ शरीफ को ही मना लिया कि वो मुशर्रफ के 'शिकस्ते फाश' यानि जड़ से ख़त्म करने की ज़िद फिलहाल छोड़ दें। वही हुआ। नवनिर्वाचित सरकार के मुखिया यूसुफ रज़ा गिलानी ने भी मुशर्रफ के साथ चलने की बात दोहराई। बेशक स्पीकर फहमीदा मिर्ज़ा महाभियोग लाने जैसे बात करती नज़र आती हों, लेकिन सरकार चलती रहे इसके लिए ज़रूरी है कि मुशर्रफ के साथ 'वर्किंग रिलेशनशिप' बनाए रखा जाए।


फिलहाल पाकिस्तान में कई चीज़ें एक साथ चल रही हैं। मुशर्रफ विरोधी जजों की रिहाई तो कर दी गई लेकिन उन्हें बहाल नहीं किया गया। एक ख़बर आयी कि पीपीपी चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी को छोड़ कर बाक़ी सभी जजों की बहाली को तैयार है। इफ्तिखार को दरकिनार करने की ज़रदारी की कोशिश के पीछे एक वजह और है। मुशर्रफ ने 1973 के संविधान को ताक पर रख कर जिस प्रोविजिनल कांस्टीच्यूशनल आर्डर यानि पीसीओ के तहत जजों की बहाली की उन्ही के सौजन्य से ज़रदारी और बेनज़ीर को भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्ति मिली। तो अगर इफ्तिखार चौधरी ने दुबारा चीफ जस्टिस की कुर्सी संभाला तो पीसीओ के तहत लिए गए तमाम फैसलों के साथ साथ ये फैसला भी सवालों के घेरे में आ सकता है। इसलिए 3 नवबंर की इमरजेंसी के पहले के चीफ जस्टिस न सिर्फ मुशर्रफ बल्कि ज़रदारी के लिए भी ख़तरे की घंटी साबित हो सकते हैं। लेकिन चौधरी इफ्तिखार को बहाल नहीं करने का मतलब होगा नवाज़ शरीफ ने ज़रदारी के साथ जो चार्टर ऑफ डेमोक्रेसी साइन किया है उसका सीधा सीधा उल्लंघन। ऐसे में नवाज़ की पार्टी को अपना चेहरा बचाने के लिए सरकार से निकलना पड़ सकता है। ऐसे में पीपीपी एमक्यूएम के साथ रिश्ते मज़बूत कर और मुशर्रफ की काफ़ लीग के क़रीब चार दर्जन सांसदों को साथ लेकर वैकल्पिक रणनीति बनाने की तरफ जा सकती है। बेशक सिंध सूबे में एमक्यूएम के साथ पीपीपी को मिलकर सरकार बनानी पड़ी हो। लेकिन पीपीपी का एक खेमा एमक्यूएम को कराची में अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का दोषी मानती है और वे एमक्यूएम को राष्ट्रीय सरकार में शामिल करने के बिल्कुल खिलाफ है। ऐसे में पार्टी की टूट की बात भी कही जा रही है। हालांकि ऐसा होने की संभावना काफी कम है। इसके पीछे वजह ये है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मखदूम अमीन फहीम, शाह महमूद कुरैशी और चौधरी अहमद मुख्तार जैसे नामों को उछाल इनके आपस में खींचतान पैदा करने के बाद ज़रदारी ने बड़ी होशियारी से यूसुफ रज़ा गिलानी को प्रधानमंत्री बनवा दिया। इससे असंतुष्ट का कोई बड़ा गुट नहीं बचा बल्कि वो छोटे छोटे गुट में बंट गए। इस बीच ज़रदारी के हैदराबाद के भरोसेमंद सांसद ने ज़रदारी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा की बात फैला कर एक तरह पार्टी के भीतर और बाहर की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की। ज़रदारी के नेशनल एसेंबली में चुन कर आ जाने के बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर एक बार फिर खींचतान की आशंका अभी ख़त्म नहीं हुई है।


इन सब बातों के बीच एक बात जो नहीं बदली प्रतीत होती है वो है पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ की स्थिति। मुशर्रफ़ ने हाल के अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि अगर वे अपने पद से हटे तो अमेरिका पाकिस्तान के कबाईली इलाक़े पर हमला कर देगा। उनका कहना है कि अमेरिका उन्हीं की वजह से पाकिस्तान में सीधे उतरने से रुका हुआ है। नहीं तो तालिबान और अलक़ायदा जैसी ताक़तों से निपटने के लिए वो अपनी फौज़ पाकिस्तान में उतारने तनिक भी देर नहीं लगाएगा। मुशर्रफ का ये बयान अमेरिका के खिलाफ नहीं है। बल्कि नई नई आयी जम्हूरियत के उन नुमाइंदों के खिलाफ है जो मुशर्रफ का ताज़ छीनने की मंशा पाले हुए हैं। हो सकता है कि ये बयान अमेरिकी शह पर ही दिया गया हो ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।

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